HISTORY & CULTURE

लोकपर्व इगास पशुओं के प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त करने का पर्व

इगास पर्व पर बैलों को रोली का टीका और गले में पुष्पमाला तथा इनके सींगों पर  लगाया जाता है तेल

कमल किशोर डुकलान 
इगास लोकपर्व पर्वतीय कृषक-समाज का अपने कृषि-सहयोगी पालतू उन बैलों के प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त करने का लोकपर्व है। जिन्होंने खेतों में हल खींचकर खलिहानों में बालियों से दाने अलग करने में हमारी सहायता कर हमें अन्न प्रदान करने के लिए प्राकृतिक कामेच्छा से वंचित होना स्वीकार किया।…..
उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र में मनाया जाने वाला इगास प्रमुख पर्व है। गढ़वाल क्षेत्र में दीपावली बग्वाल नाम से मनायी जाती है। इगास पर्व बग्वाल से ठीक ग्यारह दिन बाद इगास आता है।वास्तव में गढ़वाल में बग्वाल से लेकर इगास तक फेस्टिव-सीज़न होता है जिसे बारा बग्वाली के नाम से जाना जाता है। बारा बग्वाली अर्थात दीपावली से लेकर बारह दिन यूं समझ लीजिए पूरा पखवाड़ा लक्ष्मी पूजन के दिन से एक दिन पहले गढ़वाल में दीपावली का ये फेस्टिव-सीज़न शुरू होता है और इगास के साथ सम्पन्न होता है।
गढ़वाल के इस फेस्टिव-सीज़न की विशेषता यह है कि पहले और आखिरी दिन कृषि कार्य में सहयोगी पालतू (बैल)पशुओं के प्रति आभार कृषकों द्वारा आभार प्रकट किया जाता है। इगास पर्व पर इन्हें रोली का टीका औल गले में पुष्पमाला तथा इनके सींगों पर तेल लगाया जाता है। जौ के आटे के गोल पिण्ड प्रसाद रूप में बैलों को खिलाए जाते हैं।इगास पूर्णमासी से ग्यारह दिन बाद एकादशी को दिन पड़ती है जिसे हरिबोधनी एकादशी या देवोत्थान एकादशी के नाम से जानते है।इगास मनाने का एक तथ्य यह भी है कि हरिबोदनी एकादशी से पूर्व छ:माह तक देवता गण सप्तावस्था में रहते हैं ।
इगास पर्व पर रात में ग्रामवासी भैलो का खेल खेलते हैं तथा उत्तराखंड के पारम्परिक झुमेला नृत्य के साथ इस पर्व को आनन्द मय बनाते हैं। पुराने समय में ऐसा पूरे पखवाड़े किया जाता था जो आगे चलकर बग्वाल(दीपावली) के दो दिन और इगास तक ही सीमित रह गया। प्राचीन समय में इस पर्व के निमित्त पखवाड़े भर घरों में विशेष पकवान बनते हैं साथ ही पूरा प्रयास रहता था कि जो गांव के नौकरी या व्यवसाय के लिए घर से दूर रहने वाले परिजन हैं वे भी इस पर्व को परिवारी जनों के साथ मनाने में शामिल हों।
इगास पर्व पर्वतीय कृषक-समाज का अपने कृषि-सहयोगी पालतू पशुओं के प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त करने का पर्व है।आभार उन बैलों के प्रति जाता है जिन्होंने हमें अन्न प्रदान करने के लिए प्राकृतिक कामेच्छा से वंचित होना स्वीकार किया,खेतों में हल खींचा,खलिहान में बालियों से दाने अलग करने में सहायता की।आज दिन आभार उस गाय माता के प्रति भी होता है।जिसके दुग्ध-उत्पादों ने हमें श्रम करने की शक्ति मिली।
इगास पर्व का संदेश स्पष्ट है कि सफलता और उपलब्धि के सहयोगियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना,वंचितों के आंचल में भी हर्ष-उल्लास व पकवान-मिष्ठान्न सुनिश्चित करना और इससे भी बढ़कर यह अंधकार को दूर करने के लिए अंत तक प्रयास करना है।
आज ग्लोबलाईजेशन और सूचना क्रांति के दुष्परिणाम के कारण हमें अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर हम पर्व-त्योहारों की जानकारी से तो लैश हो गए परन्तु अपनी जड़ों से जुड़े पर्वों की सामान्य जानकारी रखने में हम निश्चित रुप से वंचित नहीं हो रहे हैं।
पिछले 20 वर्षों से उत्तराखण्ड में राजकीय स्तर इगास पर्व के आयोजन,संकल्प को लेकर नहीं हुआ है। मुझे यह लिखने में कोई संकोच नहीं हो रहा है कि इस पर्व के महत्वपूर्ण अवसर का कोई सदुपयोग नहीं हो सका है।ऐसा अवसर जब प्रदेश के पर्वतीय-कृषकों और कृषि-सहयोगी पशुओं के कल्याणार्थ संकल्प लिया जा सकता है।
इगास के निहितार्थ को समझ कर ही असली इगास मनायी जा सकती है। घरों को प्रकाशित करना,गीत-नृत्य का आयोजन करना और पकवान बनाना ये सब भी इगास में सम्मिलित हैं पर इगास की पूरी तस्वीर इतनी ही नहीं,कृतज्ञता का भाव,वंचितों का ध्यान और जीवों के प्रति सम्मान इगास के मूल तत्व हैं। इन तत्वों को तत्वों को ध्यान में रखकर अगर इगास मनाएंगे और मनाते हुए दिखेंगे तो जड़ें भी मजबूत होंगी और शाखाएँ भी पुष्पित-पल्लवित होगी।

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