उत्तराखंड में एक या दो नहीं बल्कि 13 बोली जाती हैं लोकभाषाएँ
उत्तराखंड की भाषाओं के इतिहास पर सबसे पहले जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने किया था काम
उनके बाद डॉ. गोविंद चातक,चक्रधर बहुगुणा, डॉ. हरिदत्त भट्ट ,डॉ. डी शर्मा आदि ने उत्तराखंड की लोकभाषाओं के सन्दर्भ में किया उल्लेखनीय काम
कमल किशोर डुकलान
हिंदी की एक पुरानी कहावत है,
“कोस कोस पर बदले पानी
चार कोस पर बाणी”9 नवम्बर सन् 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग हुए उत्तराखंड राज्य की राजकीय भाषा भी हिंदी है,लेकिन अगर हम लोकभाषाओं की बात करें तो यहां एक या दो नहीं बल्कि 13 लोकभाषाएँ बोली जाती हैं। इन लोकभाषाओं के अलग-अलग रूप देखने को मिलते हैं। उत्तराखंड की भाषाओं के इतिहास पर अगर बात करें तो इन पर सबसे पहले जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने काम किया। उन्होंने 1894 से लेकर 1927 के बीच राजस्व विभाग के कर्मचारियों की मदद से उत्तराखंड की भाषाओं का वर्गीकरण किया। उत्तराखंड के भाषाविद जार्ज अब्राहम के काम से काफी प्रभावित लगते हैं जबकि उन्होंने एक तरह से सरकारी दस्तावेज तैयार किया था जिसमें भोटांतिक भाषाओं को खास जगह नही मिली हैं। उनके बाद भी डॉ गोविंद चातक,चक्रधर बहुगुणा, डॉ हरिदत्त भट्ट ,डॉ डी शर्मा आदि ने भी उत्तराखंड की लोकभाषाओं के सन्दर्भ में उल्लेखनीय काम किया।
गढ़वाली,कुमाऊनी,जौनसारी,जौनपुरी,रवांल्टी,जाड़,बंगाणी,माच्छा,जोहरी,थारु,बुग्साणी,रडल्वू,राजी सहित तेरह लोक भाषाएं उत्तराखंड में हैं। यूनेस्को ने स्वयं एक सारणी तैयार की जिसमें विश्व की उन सभी भाषाओं को शामिल किया था जो असुरक्षित हैं या जिन पर खतरा मंडरा रहा है। उत्तराखंड की दो प्रमुख भाषाएं “गढ़वाली” और “कुमाऊंनी” को इसमें असुरक्षित वर्ग में रखा गया था। “जौनसारी” और “जाड” जैसी भाषाएं संकटग्रस्त जबकि “बंगाणी” अत्यधिक संकटग्रस्त की श्रेणी में आ गई। अगर वर्तमान स्थिति नहीं बदली तो हो सकता है कि आने वाले 10 से 12 वर्षों में ही “बंगाणी” लोक भाषा खत्म हो जाएगी भूटान की भाषाएं जैसे जोहरी,मर्छया, तुलछा, जाड आदि “संकटग्रस्त” भाषाएं बन चुकी हैं। “यदि किसी भाषा को तीन पीढ़ी के लोग बोलते हैं तो वह सुरक्षित भाषा कहलायेगीं। यदि दो पीढ़ियां बोल रही हैं तो वह संकट में है और यदि केवल एक पीढ़ी बोल रही है तो उस भाषा पर गम्भीर संकट मंडरा रहा है”।
उत्तराखंड की लोकभाषाओं पर मंडरा रहे इस खतरे का प्रमुख कारण है उत्तराखंड से लगातार हो रहा पलायन है। वर्तमान समय में राज्य की गढ़वाली,कुमाउनी दो प्रमुख भाषाओं पर हिंदी और अंग्रेजी पूरी तरह से हावी होने के कारण संकट मंडरा रहा है। हकीकत में जब सामाजिक,राजनीतिक, और आर्थिक तौर पर मजबूत भाषा किसी अन्य भाषा के गढ़ में घुसपैठ करती है तो फिर स्थानीय भाषा खतरे में पढ़ जाती है। ऐसे में लोग अपनी भाषा को कम करके आंकने लगते है और उस भाषा को अपनाने लगते हैं जिसके जरिये वे रोजगार हासिल कर सकते हैं। उत्तराखंड से पलायन करके देश या दुनिया के विभिन्न हिस्सों में बसे लोग अपने बच्चों को अपनी मूल भाषा प्रचलन में न होने के कारण नही सिखा पा रहे हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि बच्चों की सफलता में लोक भाषाएं बाधक बन सकती है।
शहरी बनने के बाद लोंगों का अपनी भाषा के प्रति नजरिया ही बदल गया। उन्हें हिंदी के सामने अपनी भाषा कमतर लगने लगने लगी है। जबकि वास्तव में ऐसा नही हैं। ग़ढ़वाली और कुमाऊँनी के बारे में कहा जाता है कि वे शब्द सम्पदा के मामले में हिंदी और अंग्रेजी से काफी समृद्धशाली हैं। गन्ध,ध्वनि,अनुभूति, स्वाद,स्पर्श आदि के लिए उसके भाव के अनुसार अलग-अलग शब्द हैं।
ध्वनि सम्बंधित शब्द ,छणमण, छपताट, घुंघराट, चचड़ाट, स्यूँसाट,किकलाट, गगड़ात,सिमणाट,ऐसे ही 100 से अधिक ऐसे शब्द हैं, जिन्हें अलग अलग ध्वनियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। ऐसे ही गन्ध के लिए भी अनेक शब्द है जैसे फुक्यांण, बस्याण, मोल्यांण, चिराण, कुतराण,कौळाण आदि आदि।कहने का तात्पर्य हमारी इन लोक भाषाओं की शब्द सम्पदा अत्यधिक सशक्त है लेकिन प्रचलन में न होने से इनकी ताकत को कभी समझा नहीं गया।
यूनेस्को ने स्वयं एक सारणी तैयार की जिसमें विश्व की उन सभी भाषाओं को शामिल किया था जो असुरक्षित हैं या जिन पर खतरा मंडरा रहा है। उत्तराखंड की दो प्रमुख भाषाओं “गढ़वाली” और “कुमाऊंनी” को इसमें असुरक्षित वर्ग में रखा गया था। “जौनसारी” और “जाड” जैसी भाषाएं संकटग्रस्त जबकि “बंगाणी” अत्यधिक संकटग्रस्त की श्रेणी में आ गई। अगर वर्तमान स्थिति नहीं बदली तो हो सकता है कि आने वाले 10 से 12 वर्षों में ही “बंगाणी” लोक भाषा खत्म हो जाएगी भूटान की भाषाएं जैसे जोहरी,मर्छया, तुलछा, जाड आदि “संकटग्रस्त” बन गई हैं
यह लोकभाषाएँ केवल तभी जिंदा रह सकती हैं जब इन्हें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुचाया जाएगा। हम कहीं भी रहे उत्तराखंड या उसके अलावा यदि हमें अपनी इन भाषाओं से प्रेम है तो हमें अपनी पीढ़ी को इसे सौंपना होगा वैसे ही जैसे पिछली पीढ़ी ने हमें सौपा था। इसके अलावा एक सबसे उपयुक्त माध्यम है कि राज्य सरकार इन भाषाओं को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाये। इसके तहत कार्य हो भी रहे हैं। विगत वर्ष मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की प्रेरणा से पौड़ी जनपद के जिलाधिकारी महोदय द्वारा पौड़ी ब्लाक के अंतर्गत प्राथमिक कक्षाओं (1-5)में ग़ढ़वाली पाठ्यक्रम शुरू कर दिया गया है। इस दिशा में शायद यह मील का पत्थर साबित हो। भले ही यह भाषाएँ हमारे संविधान की 8 वीं अनुसूची में शामिल नहीं है,लेकिन इन्हें सरकार पाठ्यक्रम का हिस्सा बना सकती है। इसकी इजाजत हमे संविधान का अनुच्छेद 345 देता है। इसमें कहा गया है कि किसी राज्य का विधान मण्डल उस राज्य में प्रयोग होने वाली भाषाओं में किसी एक या अधिक भाषाओं को या हिंदी को उस राज्य के सभी या किन्ही शासकीय प्रायोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा या भाषाओं के रूप में अंगीकार कर सकेगा। यही नही अनुच्छेद 350 ए में प्राथमिक स्तर पर अपनी भाषा मे शिक्षा देने की बात भी करता है। एक प्रश्न जो इन भाषाओं को भाषा न होने के लिए पूछा जाता है कि इन भाषाओं की अपनी लिपि नही है।जिसकी लिपि नही उसे बोली कहा जाता है। तो अंग्रेजी की भी तो कोई लिपि नही है । इस तरह से तो अंग्रेजी भी भाषा नही लिपि है। यह प्रश्न अब शायद हो प्रासंगिक हो।
जब भाषाओं की बात आती है तो साहित्य का स्थान उसमें अहम होता है। दुर्भाग्य से दुनिया की अधिकतर लोकभाषाओं का लिखित साहित्य नही रहा। विश्व की केवल एक तिहाई भाषाओं का लिखित साहित्य है।उत्तराखंड की लोक भाषाओं विशेषकर गढ़वाली, कुमाऊनी, जौनसारी, रवांल्टी, जौनपुरी आदि में पिछले कुछ समय से साहित्य रचना के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन बहुत कम व्यक्ति इस तरह की मुहिम से जुड़े हैं। अब गढ़वाली का ही उदाहरण ले लीजिए इसमें कभी “चिट्ठी पत्री”, बुग्याल ,हिलांस,अंजवाळ जैसी पत्र पत्रिकाएं प्रकाशित होती थी लेकिन आर्थिक पक्ष कमजोर होने के कारण वे बंद हो गई। गढ़वाली में कवि और वरिष्ठ पत्रकार गणेश कुशाल ‘गणि’ के प्रयासों से “धाद” पत्रिका को पुनर्जीवन मिला है। यह मासिक पत्रिका पिछले कुछ वर्षों से नियमित रूप से प्रकाशित हो रही है ।
इसी तरह से पाक्षिक समाचार पत्र “रन्त रैबार”। काठगोदाम से पिछले कुछ वर्षों से “कुमगढ़” पत्रिका का प्रकाशन किया जा रहा है जो गढ़वाली और कुमाउनी दोनों भाषाओं की पत्रिकाएं हैं। इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है कि सरकार का स्थानीय भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं के प्रति रवैया सकारात्मक नहीं है। व्यक्तिगत प्रयासों से ही किसी पत्रिका को लंबे समय तक जीवित नहीं रखा जा सकता है। “धाद” और “कुमगढ़” जैसी पत्रिकाओं का आर्थिक पक्ष भी कमजोर है ।इस कारण जौनसार की पत्रिका “मेघाली” साल में केवल एक बार ही प्रकाशित हो जाती है।
जो भाषाएं छोटी हैं उनमें अलिखित साहित्य है जैसे वहां के लोग गत कथाएं कहावतें गीत मुहावरे लोकोक्तियां आदि। अच्छी खबर यह है कि इंटरनेट की दुनिया में इन भाषाओं के प्रति कुछ लोगों का लगाव देखने को मिल रहा है लेकिन इस संदर्भ में राजी बुकस्याणी, बंगाडी, जाड़, मर्च्छा आदि भाषाओं के लोगों में जागरूकता का अभाव नजर आता है। कुछ लोकभाषाओं विशेषकर गढ़वाली में पिछले कुछ वर्षों से उपयोगी काव्य संग्रह भी आए हैं। जो कुछ भी लिखा जा चुका है या लिखा जा रहा है उस साहित्य की उपलब्धता भी आसान है। साहित्य सृजन के साथ साथ उसकी आसान उपलब्धता भी बहुत बड़ा विषय है।आज लिखा तो बहुत जा रहा है परंतु उसकी उपलब्धता सीमिति जगहों तक ही है। जन-जन तक यह महत्वपूर्ण साहित्य आज भी कोषों दूर है।
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