जनरल की वर्दी पर भी वंशवाद की ‘फेती’!

- तीरथ ने राजनीति में डूबते-उतराते खंडूड़ी का साथ कभी नहीं छोड़ा
- धृतराष्ट्र की तरह पुत्रमोह में खंडूड़ी खुद को रोक न सके तो ?
व्योमेश जुगरान
राजनीति में ढलती उम्र विलक्षण चातुर्य की भी निशानी होती है। पौड़ी गढ़वाल के निवर्तमान सांसद मे.जनरल (रिटायर्ड) भुवन चन्द्र खंडूड़ी भले ही तर्क दे रहे हों कि उनका बेटा एक शिक्षित युवा है जहां चाहेगा, जाएगा। क्यों हरदम पिता का पिछलग्गू रहे! परंतु राजनीति का ककहरा समझने वाले इस बात को बेहतर जानते हैं कि पिता का जूता बेटे के पांव में आने के मायने सिर्फ यह नहीं होते कि बेटा जवान हो गया है। क्या फौजी पिता के अनुशासन में पला-बढ़ा बेटा अपने जीवन (राजनीतिक) का सबसे बड़ा फैसला सिर्फ इस आधार पर कर सकता है कि अब उसके निर्णयों में पिता के दखल के दिन लद चुके!
जी नहीं, राजनीतिक विरासत को कहां और कैसे अक्षुण्ण रखें, यह निर्णय पूरा परिवार मिलकर लेता है। सांसद खंडूड़ी की विरासत का यही सच है कि बहुत ही चतुरता से उन्होंने अमेरिका-रिटर्न बेटे के राजनीतिक भविष्य की अलहदा डगर तय कर पार्टी में अपनी उपेक्षा का जवाब ना-फरमानी के रूप में दिया है।
गौरतलब है कि मार्च 2018 में देश की रक्षा तैयारियों पर संसद के पटल पर रखी गई स्थायी समिति की रिपोर्ट से सरकार की खूब किरकिरी हुई थी। इस समिति के अध्यक्ष खंडूड़ी ही थे। रिपोर्ट में रक्षा सेनाओं से जुड़े साजो-सामान की कमी और कमजोरी का ठीकरा सरकार के माथे फोड़ा गया। हालांकि सरकार ने इस रिपोर्ट से पल्ला झाड़ लिया, पर मुद्दा ट्रेजरी बेंच से फिसल विपक्षी बेंच के हाथ में आ चुका था। विपक्ष ने इसे सरकार के खिलाफ हथियार बनाने में जरा भी देर नहीं लगाई । लज्जा से उबरने के लिए सरकार के पास रिपोर्ट को ठुकराने के अलावा कोई और चारा नहीं था। इसके साथ ही पार्टी में खंडूड़ी के खिलाफ खुसर-फुसर भी शुरू हो गई। जाहिर है, जनरल साब अलग-थलग पड़ते चले गए।
विपक्ष, खासकर कांग्रेस को इसे भुनाना ही था और ऐन चुनावी मौके पर कांग्रेस ने खंडूड़ी के पुत्र मनीष को अपने पाले में खींच कर पौड़ी से प्रत्याशी बना दिया। अब मनीष के बहाने कांग्रेस का सबसे बड़ा मुद्दा यही है कि भाजपा ने किस तरह अपने ईमानदार और नेकनीयत वयोवृद्ध नेता की उपेक्षा की है। कांग्रेस अखबारों और टीवी डिबेटों में लगातार इस बात को दोहरा रही है।
सवाल है कि क्या मतदाताओं पर इसका असर होगा? जानकारों का मानना है कि असर हो सकता था यदि खंडूड़ी तभी पार्टी के अनुशासन की परवाह न करते हुए अपने क्षेत्र का दौरा कर लोगों से कहते कि देखिए, उनकी रिपोर्ट कैसे सरकार ने रद्दी में फेंकी और किस तरह पार्टी के नेता उन्हें अपमानित करने पर तुले हैं ! यदि उन्होंने ऐसा किया होता तो आज वह खुलकर बेटे की बलैया ले सकते थे। तब सार्वजनिक जीवन की उनकी साख का अभिषेक मनीष के माथे पर दिखता और विरासत को संभालने वाले आम कंधे भी बहुतायत में जुड़ते। लेकिन ऐसा नजर नहीं आ रहा। आज की तारीख में जनरल खंडूड़ी भी विजय बहुगुणा, हरीश रावत और सतपाल महाराज की कतार में नजर आते हैं और उनकी वर्दी पर भी वंशवाद की फेती चढ़ चुकी है।
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में जब यमकेश्वर से ऋतु खंडूड़ी को भाजपा का टिकट मिला था तब यही कयास लगाए गए कि वीसी खंडूड़ी ने अपनी राजनीतिक विरासत बेटी को सौंप दी है। यह भी कहा गया कि पार्टी ने अपने इस वयोवृद्ध नेता की इच्छा का मान रखा है। लेकिन अब बेटे की चुनावी तालठोक ने वह विमर्श बदल दिया है। खंडूड़ी एक स्वच्छ छवि के राजनेता की बजाय अपने बेटा-बेटी के राजनीतिक कॅरियर संवारने वाले एक पिता के रूप में अधिक जाने जाएंगे। इससे उत्तराखंड की राजनीति में उनका कद निसंदेह छोटा हुआ है।
सब जानते हैं कि खंडूड़ी का यह कार्यकाल क्षेत्र के प्रति सबसे निष्क्रिय दौर के रूप में बीता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब 75 पार के मानदण्ड के चलते खंडूड़ी को कैबिनेट में जगह नहीं दी, तभी शायद जनरल साब ने भी तय कर लिया होगा कि पांच सालों का यह एक्सटेंशन उन्हें बराए मेहरबानी पहाड़ में नहीं, लुटियन दिल्ली की आरामगाह में बिताना है। यही कारण था कि पूरे पांच साल वह अपने क्षेत्र में नहीं दिखे और उत्तराखंड के पांचों सांसदों के मुकाबले अपनी सांसद निधि का सबसे कम यानी मात्र 29 फीसदी ही खर्च कर सके। वैसे भी जनरल साब को उनके अक्खड़ स्वभाव के कारण मुलाकातियों के प्रति एक कंजूस नेता माना जाता रहा है, ऊपर से परिस्थितियां भी ठीक-ठाक ढाल बन गईं। इधर दो सालों से उनका स्वास्थ्य भी गड़बड़ाने लगा तो क्षेत्र की जनता से दूरी के आरोप सहानुभूति में बदल गए।
अब सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या खंडूड़ी पार्टी के एक अनुशासित कार्यकर्ता की तरह चुनाव में प्रचार कर सकेंगे? एक ओर बेटा और दूसरी ओर शार्गिद। शार्गिद यानी तीरथ सिंह रावत, जिसके सियासी कॅरियर को आगे बढ़ाने में खंडूड़ीजी का बड़ा योगदान रहा है। बदले में तीरथ ने भी नेताओं के अहं में डूबी उत्तराखंड की राजनीति में डूबते-उतराते खंडूड़ी का साथ कभी नहीं छोड़ा। तब भी नहीं जब 2017 के विधानसभा चुनाव में चौबट्टाखाल सीट से पार्टी ने तीरथ का टिकट काटकर सतपाल महाराज को थमा दिया। तीरथ तब निर्दलीय ताल ठोकने पर आमादा थे और खंड़ूड़ीजी के कहने पर ही माने थे।
खंडूड़ी यह जरूर कह रहे हैं कि पार्टी यदि चाहेगी तो वह प्रचार करने जाएंगे लेकिन क्या यह इतना सरल है? पार्टी भी उन्हें मजबूर नहीं करना चाहेगी और खासकर पौड़ी गढ़वाल लोकसभा सीट पर चुनाव प्रचार से दूर रहने की सलाह देगी। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है, यदि धृतराष्ट्र की तरह पुत्रमोह में खंडूड़ी खुद को रोक न सके तो ?