नेता प्रतिपक्ष के तौर पर अच्छी छाप छोड़ने के बजाय कलह पैदा किया
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!!नेता प्रतिपक्ष के तौर पर अच्छी छाप छोड़ने के बजाय कलह पैदा किया!!
(कमल किशोर डुकलान ‘सरल’)
रुड़की, हरिद्वार (उत्तराखंड)
संसद में महामहिम राष्ट्रपति के अभिभाषण पर नेता प्रतिपक्ष के तौर पर अपनी पहली चर्चा के दौरान राहुल गांधी का उद्देश्य सरकार की आलोचना कम और धार्मिक उन्माद फैलाकर जनता को गुमराह करना अधिक था।…..
नेता प्रतिपक्ष के तौर पर संसद में अपने पहले संबोधन से राहुल गांधी ने देश की जनता को निराश ही किया। महामहिम राष्ट्रपति के अभिभाषण पर ऐसा लग रहा था कि राहुल गांधी आम जनता के मुद्दों पर कोई छाप छोड़ेंगे लेकिन राहुल गांधी ने कोई छाप छोड़ने के बजाय हिन्दुत्व के मुद्दे पर संसद में अपने पहले ही भाषण में टकराव और कलह पैदा करने का काम किया। उन्होंने कहा कि जो अपने आपको हिंदू कहते हैं, वे 24 घंटे हिंसा और नफरत करते हैं। जब उनके इस कथन पर स्वयं प्रधानमंत्री ने आपत्ति जताई तो वह यह कहने लगे कि भाजपा और आरएसएस ही हिंदू नहीं हैं।
भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में ही हिन्दू नहीं है राहुल गांधी का यह निष्कर्ष तो ठीक है,लेकिन राहुल गांधी को संसद में नेता प्रतिपक्ष के तौर पर यह भी सिद्ध करना चाहिए कि जो भी हिंदू भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा है, क्या वह 24 घंटे हिंसा और नफरत पैदा करता है?यह संभव है कि वह ऐसा ही मानते हों, लेकिन उन्हें यह याद रखना चाहिए कि अट्ठारवीं लोकसभा के चुनावों में भाजपा को लगभग 24 करोड़ मतदाताओं ने वोट दिया है। इसका मतलब तो यही है,कि राहुल गांधी अट्ठारवीं लोकसभा के चुनावों में भाजपा को पड़े 24 करोड़ मतदाताओं को हिन्दू मानते हैं। राहुल गांधी का संसद में नेता प्रतिपक्ष के तौर पर चर्चा के दौरान उनका आशय जो भी रहा हो,उनके इस कथन से इतना तो पता चल ही गया कि वह भाजपा को अपने राजनीतिक विरोधी के रूप में नहीं,बल्कि एक शत्रु के रूप में देखते हैं और उससे नफरत भी करते हैं।
संसद में राहुल गांधी ने अपने संबोधन की शुरुआत जय संविधान से की और यह दावा किया कि उन्होंने अट्ठारवीं लोकसभा के चुनाव में इसे बचाने का काम किया है। अट्ठारवीं संसद का गठन विधिवत हो चुका है,देश में तीसरी बार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार का गठन हो चुका है। महामहिम राष्ट्रपति का अभिभाषण नई की कार्ययोजना की ओर इंगित करता है। महामहिम राष्ट्रपति के अभिभाषण पर सामान्यतः सरकार की योजनाओं पर विपक्ष का रचनात्मक विरोध रहता है। लेकिन संसद में राहुल गांधी द्वारा हिन्दुओं पर हिंसा और नफरत की तल्ख टिप्पणयों से स्पष्ट है कि वह अभी भी चुनावी मुद्रा में ही हैं। शायद इसी कारण वह सदन के स्थान पर किसी चुनावी सभा को संबोधित करते हुए अधिक दिखे।
यह ठीक है कि चुनाव के दौरान भी उन्होंने संविधान के खतरे में होने का हौवा देकर उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में दलितों, अल्पसंख्यकों के वोटों का ध्रुवीकरण होने का खड़ा किया था और इसका उन्हें विपक्ष के तौर पर कुछ राजनीतिक लाभ भी मिला,उन्होंने अपने संख्याबल पर आंशिक वृद्धि भी की और एक मजबूत विपक्ष खड़ा किया। देश में एक फिर गठबंधन सरकारों का चलन सुरु किया। लेकिन यदि वह संविधान के इतने ही बड़े ही हितैषी और रक्षक हैं तो फिर उस आपातकाल की आलोचना क्यों नहीं सहन कर पा रहे हैं, जिसे देश पर थोपकर न केवल संविधान को बदलने का काम किया गया था,बल्कि यह व्यवस्था भी बना दी गई थी कि कोई भी अदालत संसद से पारित किसी कानून की सुनवाई नहीं कर सकेगी।
आखिर संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान राहुल गांधी ने धार्मिक उन्माद फैलाकर इसे तानाशाही के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? क्या यह हास्यास्पद नहीं कि राहुल गांधी एक ओर संविधान बचाने का दावा कर रहे हैं और दूसरी ओर इसी संविधान को कुचलने वाले आपातकाल की आलोचना को अनावश्यक करार दे रहे हैं? ऐसा नहीं है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा करते समय राहुल गांधी सरकार की आलोचना नहीं कर सकते थे, लेकिन उन्होंने दिखाया कि उनका उद्देश्य राष्ट्रपति के अभिभाषण पर सरकार की आलोचना करना कम और संसद में धार्मिक उन्माद फैलाकर जनता को गुमराह करना अधिक था।