गांधी जी का स्वदेशी और भारत
कमल किशोर डुकलान
लोगों की वैश्विक सुख सुविधाओं के कारण देश के तमाम प्रकार के हस्त उद्योग, कुटीर उद्योग लुप्त होते चले गए, घर-घर से चरखा गायब होता गया। वहीं बुनकर, लोहार, बढ़ई, चर्मकार, ठठेरा, कुम्हार सबके उद्योग नष्ट होते गए और शहरों से लेकर गांवों तक सस्ती लोकप्रियता के कारण देशी-विदेशी फैक्ट्रियों, कंपनियों के उत्पादित माल गांव गलियों में छाते गए। भूमंडलीकरण में तेजी के कारण हमारा देश इलेक्ट्रॉनिक सामान से लेकर खिलौनों तक चीन उत्पादित उपकरणों के सामान से पटता जा रहा है।
‘स्वदेशी भारत की स्वाधीनता संग्राम का मूल-मंत्र था’ कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उन्नीसवीं शताब्दी में ‘ड्रेन थ्योरी’ एवं ‘भारत का आर्थिक इतिहास’ या ‘देशेर कथा’ जैसी पुस्तकें हो, सभी का चिंता के केंद्र में औपनिवेशिक शासन-तंत्र द्वारा देशी संसाधनों का दोहन व देशी धन-संपदा के विलायत में पलायन को रोकना था। आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक माने जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने लेखन से स्वदेशी की अलख जगाई। 1905 का बंग-भंग विरोधी आंदोलन भी स्वदेशी की भावना से ओतप्रोत था। बंगाल में विदेशी वस्तुओं की होली जलाना एवं विदेशी सामान के बहिष्कार को बल देना स्वदेशी भाव को राष्ट्रीय स्तर पर बहुआयामी स्वरूप प्रदान करना था।
महात्मा गांधी जी स्वाधीनता के लिए किया गया असहयोग आंदोलन भी विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार तथा विदेशी वस्तुओं का अग्निदाह करना एवं देश में शिल्प-उद्योग,स्वदेशी भाषा, स्वदेशी शिक्षा,स्वदेशी वेश-भूषा आदि द्वारा स्वदेशी भाव का जागरण करना था।
स्वदेशी के मामले में गांधी द्वारा स्वदेशी समर्थक भारतीय बुद्धिजीवियों के समक्ष जो स्वदेशी प्रस्थान-बिंदु था,वह उत्पादन पद्धति का मुद्दा था। भारत की आज़ादी के समय जो यूरोपीय मशीनी क्रांति अपना जो जलवा दिखा रही थी, उससे यूरोप तो चमत्कृत था ही, भारत के स्वदेशी समर्थकों का मानना था कि इंग्लैंड या यूरोप से मिलों में बनी वस्तुएं भारत में आकर बिकती हैं जिसके कारण हमारा धन विदेश चला जाता है। इसलिए वैसी मशीनों एवं मिलों को भारत में स्थापित कर अपनी धरती पर उन वस्तुओं का उत्पादन करना चाहिए ताकि भारतीय धन विदेशों में न जा सकें।
गांधी ने इस सोच की काट यह कहते हुए रखी कि भारत की आर्थिक प्रगति के लिए विदेश से मशीनों को लाने के बजाय हमें अपने देश के पारंपरिक उद्योग-शिल्प को बढ़ावा देना चाहिए। गांधी मशीनों के अत्यधिक चलन को भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लिए अनिष्टकारी रूप में देख रहे थे। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने 1909 में अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में मशीनीकरण के इस भयावह रूप की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट कर चेतावनी दी थी कि ‘मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहां की हवा अब हिंदुस्तान में चल रही है। यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महापाप है, ऐसा मैं तो साफ देख सकता हूं।…मशीन की यह हवा अगर चली तो, हिंदुस्तान की बुरी दशा होगी।’
गांधी जी भारत में यूरोपीय मशीनों का जाल बिछाने के सख्त खिलाफ थे। गांधी जी का मानना था कि भारतीय स्वदेशी का मतलब यह करते थे कि विदेशी मशीनों का आयात कर हम अपने देश में उनके जरिए उत्पादन कार्य करें, उनसे गांधी बिल्कुल असहमत थे। वे भारत में इंग्लैंड की मैनचेस्टर जैसी मिलें कायम करने को अनिष्टकारी समझते थे। उन्होंने उसी पुस्तक में यह चेतावनी देते हुए कहा- ‘हम हिंदुस्तान में मिलें लगाएं, उसके बजाय हमारा भला इसी में है कि मैनचेस्टर को और भी रुपए भेजकर उसका सड़ा हुआ कपड़ा काम में लें, क्योंकि उसका कपड़ा काम में लेने से सिर्फ हमारे पैसे ही जाएंगे। हिंदुस्तान में अगर हम मैनचेस्टर कायम करेंगे, तो पैसा हिंदुस्तान में ही रहेगा, लेकिन वह पैसा हमारा खून चूस लेगा।
गांधी जब यह विचार लिपिबद्ध कर रहे थे तब हिंदुस्तान में मिलें स्थापित करने का सिलसिला शुरू हो चुका था। उत्पादन की इस मशीनी पद्धति को एकाएक रोक पाना मुमकिन नहीं था, इसलिए इसका विकल्प उन्होंने इस रूप में प्रस्तुत किया-‘मिल-मालिकों की ओर हम नफरत की निगाह से नहीं देख सकते। हमें उन पर दया करनी चाहिए। ये यकायक मिलें छोड़ दें, यह तो मुमकिन नहीं है, लेकिन हम उनसे ऐसी विनती कर सकते हैं कि वे अपने इस साहस को बढ़ाएं नहीं। अगर वे देश का भला करना चाहें, तो खुद अपना काम धीरे-धीरे कम कर सकते हैं। वे खुद पुराने प्रौढ़ चरखे देश के हजारों घरों में दाखिल कर सकते हैं और लोगों का बुना हुआ कपड़ा लेकर उसे बेच सकते हैं।’
यह था गांधी का स्वदेशी के नाम पर उत्पादन पद्धति-वस्त्र-उद्योग के भारत के पुराने, प्रौढ़ चरखे जैसे उपकरण को अपनाने का आग्रह। अंग्रेजों ने अपने यहां की मिलों से बने कपड़ों के बेचने के लिए हमारे देश के इस हस्त-उद्योग को इस बेरहमी से नष्ट किया कि चरखा ही इस देश से विलुप्त हो गया। इसलिए गांधी ने असहयोग आंदोलन के दौरान लिखे अपने एक लेख में यहां तक कह डाला कि ‘भारत ने चरखा खोकर अपना बायां फेफड़ा खो दिया।’ इस ‘खोये हुए बाएं फेफड़े’ को ही गांधी दक्षिण अफ्रीका से 1915 में भारत वापस आने पर पुन: प्रतिष्ठित करने के कार्य में जी-जान से जुट गए। 1917 में साबरमती आश्रम में काठियावाड़ी महिला गंगा बेन के सौजन्य से उन्होंने चरखे का निर्माण कराया और 1930 तक आते-आते उन्होंने भारत के शहरों से लेकर गांवों तक चरखे का जाल बिछा दिया जिससे इंग्लैंड से कपड़ों का आना बंद हो गया। हालांकि बहुतों ने, जिनमें हमारे विश्व कवि रवींद्रनाथ भी थे, गांधी के इस चरखा प्रेम का विरोध किया लेकिन गांधी वस्त्र-उत्पादन के स्वदेशी तरीके के प्रचार में जीवनपर्यंत जुटे रहे और इसमें उन्हें आशातीत सफलता भी प्राप्त हुई।
बाद के दिनों में गांधी ने कुछेक मामलों में मशीनों के प्रयोग को स्वीकार किया, लेकिन उसे वे राज्य या समाज के नियंत्रण में रख कर चलाने के पक्ष में थे। आम आदमी के लिए वे मशीन को अनिष्टकारी ही मानते रहे। उनका मानना था कि जो काम हाथ-पैर से हो सके, उसके लिए मशीनों का इस्तेमाल हरगिज नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे बेरोजगारी बढ़ेगी। लेकिन आजादी के बाद गांधी के इस धराधाम से कूच करते ही उनके स्वदेशी का यह चरित्र भी लुप्त होने लगा और आधुनिक भारत के मंदिरों के नाम पर ‘स्वदेशी धरती’ पर विदेशी मशीनों को लाकर बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां स्थापित की जाने लगीं। नतीजतन, देश के तमाम हस्त उद्योग, कुटीर उद्योग लुप्त होते चले गए, घर-घर से चरखा गायब होता चला। बुनकर, लोहार, बढ़ई, चर्मकार, ठठेरा, कुम्हार सबके उद्योग नष्ट होते गए और शहरों से लेकर गांवों तक देशी-विदेशी फैक्ट्रियों, कंपनियों के उत्पादित माल छाते गए।
भूमंडलीकरण ने इसमें और तेजी ला दी और आज हमारा देश इलेक्ट्रॉनिक सामान से लेकर खिलौनों तक विदेशी सामान से पटता जा रहा है। आज हमारे जो भी राजनेता या संत महात्मा स्वदेशी का मंत्रोच्चारण करते हैं, उनका गांधी के इस स्वदेशी से कोई वास्ता नहीं है। इनके लिए स्वदेशी का मतलब है अपने देश में विदेश से उच्च तकनीक लाकर अपने यहां उत्पादन करना।
गांधी ने स्वदेशी के रूप में हस्त उद्योग, ग्रामोद्योग को बढ़ावा दिया और हमें मशीनीकरण का रास्ता छोड़ कर गांधी द्वारा बताए गए इस रास्ते पर चलना चाहिए तो स्वदेशी का चरित्र स्पष्ट होता और कदाचित इस दिशा में सोचने एवं बढ़ने की देशवासियों को प्रेरणा मिलती।
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