उत्तराखण्ड में सिंचाई के ढांचे के विकास को प्राथमिकता देने की जरूरतः रावत
उत्तराखण्ड में औषधीय, जड़ी-बूटी एवं औद्यानिकी फसलें उगाने की व्यापक क्षमता
देहरादून । उत्तराखण्ड में मात्र 14 प्रतिशत बुआई क्षेत्र है, ऐसे में राज्य सरकार द्वारा पृथक पर्वतीय कृषि नीति को बढ़ावा दिये जाने की जरूरत है। ऐसा इसलिये भी जरूरी है क्योंकि प्रदेश की कुल श्रम शक्ति का 3/5 भाग कृषि क्षेत्र से ही जुड़ा है। उद्योग मण्डल एसोचैम और शोध संस्था आरएनसीओएस द्वारा संयुक्त रूप से किये गये एक ताजा सर्वेक्षण के आधार पर यह सुझाव दिया गया है।
‘एग्री बिजनेस आउटलुक इन उत्तराखण्ड’ विषयक इस अध्ययन में कहा गया है कि ‘‘उत्तराखण्ड में कृषि एवं सम्बन्धित गतिविधि क्षेत्र का प्रदर्शन अपेक्षानुरूप नहीं है। वर्ष 2004-05 में जहां राज्य के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) में इस क्षेत्र का योगदान 22 प्रतिशत था, वही 2014-15 में यह घटकर मात्र 9 प्रतिशत से कुछ ज्यादा ही रह गया है।
एसोचैम के महासचिव डी. एस. रावत और आरएनसीओएस के संस्थापक एवं मुख्य कार्यकारी अधिकारी डॉ.माहेश्वरी ने गुरूवार को देहरादून में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में इस अध्ययन की रिपोर्ट जारी की। उत्तराखण्ड के कृषि क्षेत्र के सामने खड़ी समस्याओं पर प्रकाश डालते एसोचैम-आरएनसीओएस के इस सर्वे के मुताबिक किसानों के पास कम जमीन का होना एक बड़ी समस्या और चुनौती है। राज्य के 70 प्रतिशत से ज्यादा किसान ऐसे हैं जिनके पास एक हेक्टेयर से भी कम खेत हैं। उत्तराखण्ड की ज्यादातर जमीन बलुई मिट्टी से बनी है, जो पानी को सोखती नहीं है और मिट्टी में नमी की कमी के कारण प्रदेश की कृषि उत्पादकता बेहद कम है। यही वजह है कि वर्ष 2004-05 से 2014-15 के बीच कृषि क्षेत्र की साल दर साल वृद्धि दर मात्र तीन प्रतिशत ही रही है। जहां तक साल दर साल वृद्धि दर का सवाल है तो उत्तराखण्ड के कृषि एवं सम्बन्धित गतिविधि क्षेत्र ने वर्ष 2014-15 में पांच प्रतिशत से ज्यादा विकास दर हासिल की है, जो उससे पहले के साल में रिकार्ड की गयी 2.5 प्रतिशत की ऋणात्मक दर से कहीं बेहतर है। श्री रावत ने इस अवसर पर कहा ‘‘उत्तराखण्ड में सिंचाई के ढांचे के विकास को प्राथमिकता देनी ही चाहिये।
इसमें नहरों का संजाल और लिफ्ट कैनाल, नलकूप, पम्प सेट तथा अन्य सुविधाएं विकसित करना जरूरी है। उन्होंने कहा ‘‘स्थानीय तथा परम्परागत पर्वतीय फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देने के साथ-साथ किसानों को कल्याणकारी योजनाओं का पर्याप्त लाभ दिया जाना चाहिये। इसके अलावा जल संरक्षण के लिये राज्य सरकार द्वारा उन्हें पर्याप्त प्रौद्योगिकीय तथा वित्तीय सहयोग भी प्रदान किया जाना चाहिये। रावत ने कहा ‘‘इसके अलावा राज्य सरकार को अधिक कृषि उत्पादकता, मिट्टी के उपचार में सुधार, मिट्टी की जल क्षमता बढ़ाने, रसायनों के समझदारीपूर्ण इस्तेमाल तथा मृदा कार्बन भण्डारण क्षमता को बढ़ाने के लिये सुधरी कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना चाहिये।
अध्ययन के अनुसार वित्तीय वर्ष 2010-11 में उत्तराखण्ड में अनुमानित 98,960 करोड़ रुपये के कुल निवेश में खाद्य एवं कृषि आधारित उद्योग की हिस्सेदारी 0.4 प्रतिशत थी। वर्ष 2015-16 में ओमानित कुल 1.40 लाख करोड़ रुपये के निवेश में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़कर 1.1 प्रतिशत हो गयी।
एसोचैम-आरएनसीओएस के अध्ययन में राज्य सरकार को सुझाव दिया गया है कि वह डेयरी क्षेत्र पर ज्यादा ध्यान देकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करे। इसके लिये प्रौद्योगिकीय सहायता दिये जाने की जरूरत है। यह इसलिये भी जरूरी है क्योंकि वर्ष 2013-14 और 2014-15 में दुग्ध उत्पादन में मात्र एक प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि डेयरी फार्मों को मजबूत करना तथा मवेशियों के अनुवांशिक उन्नयन और बकरी पालन इकाइयों की स्थापना इत्यादि कुछ ऐसे प्रमुख कदम हैं जिनसे राज्य में डेयरी उत्पादन में वृद्धि करने में मदद मिल सकती है। राज्य सरकार को कुक्कुट, मत्स्य, खाद्य प्रसंस्करण, औद्यानिकी, कृषि आधारित क्षेत्रों, औषधीय तथा खुशबूदार जड़ी-बूटियों के उत्पादन को प्रमुख उद्योगों के तौर पर बढ़ावा देना चाहिये। इसके लिये उन्हें व्यापक प्रोत्साहन तथा सब्सिडी देनी होगी। साथ ही साथ, राज्य सरकार को एक मजबूत मूलभूत ढांचा स्थापित करना होगा, जिसके पीछे खाद्य एवं कृषि प्रसंस्करण में दक्ष आपूर्ति श्रृंखलाओं का सहारा होे। इससे किसानों की आय बढ़ेगी और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों मेें भी बढ़ोत्तरी होगी।
अध्ययन में यह भी सुझाव दिया गया है कि सरकार केन्द्रित हस्तक्षेपों तथा अच्छी उत्पादक पद्धतियों के जरिये महत्वपूर्ण फसलों के बीच अन्तराल को कम करने का लक्ष्य तय करे। इसकी प्राप्ति के लिये समग्र विकास किया जाना बहुत आवश्यक है। राज्य के कृषि तथा सम्बन्धित गतिविधि क्षेत्र के प्रदर्शन को बेहतर करने के लिये ऐसा करना बेहद जरूरी है। राज्य सरकार को कृषि को अधिक उत्पादक, लचीली, लाभकारी और पर्यावरण के अनुकूल बनाने का लक्ष्य तय करना चाहिये। इसके लिये स्थान विशेष के अनुकूल, एकीकृत/मिश्रित कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना होगा।