चला तो ‘तीर’, नहीं तो ‘तुक्का’

- देश में बेरोजगारी बीते पांच दशक में अपने उच्चतम स्तर पर
- तकरीबन 40 लाख के करीब सरकारी नौकरियां समाप्त
- दो साल में एक करोड़ से अधिक लोग अपनी गंवा चुके हैं नौकरियां
योगेश भट्ट
एक बार फिर से चुनावी दहलीज पर खड़े लोकतंत्र में आर्थिक आरक्षण के बाद अब सरकार का लोकलुभावन घोषणाओं वाला अंतरिम बजट चर्चा में है । देश में दस फीसदी आर्थिक आरक्षण के बाद बजट में किसान, मजदूर और नौकरीपेशा पर ‘मेहरबानियों’ को मोदी सरकार का दूसरा बड़ा ‘मास्टर स्ट्रोक’ कहा जा रहा है । सरकार के रणनीतिकारों का मानना है कि मोदी सरकार के हालिया फैसले ‘गेम चेंजर’ साबित होंगे और सत्ता में मोदी की वापसी तय करेंगे । लेकिन कहते यह भी हैं कि सियासत में इसकी कोई गारंटी नहीं कि हर ‘तीर’ निशाने पर जा लगे । खासकर उस वक्त जब हकीकत से मुंह फेरा जा रहा हो ।
सियासत से अलग हटकर बात करें तो हकीकत यह है कि हालात बहुत ठीक नहीं हैं । देश में बेरोजगारी बीते पांच दशक में अपने उच्चतम स्तर पर है । देश भर में तकरीबन 40 लाख के करीब सरकारी नौकरियां समाप्त हो चुकी हैं, दो साल में एक करोड़ से अधिक लोग अपनी नौकरियां गंवा चुके हैं ।
वक्त तो यह कामयाबी और नाकामियों के आंकलन का है, लेकिन अपने यहां राजनीति का अर्थशास्त्र अलग ही है । जनता की हर समस्या और उसके समधान को सिर्फ सियासत के चश्मे से देखा जाता है । सरकार में आओ तो पहले चार साल सिर्फ अपने एजेंडे पर काम करो, समस्याओं और उनके दीर्घकालीन समाधान की कोई बात नहीं । आखिरी साल में अगले पांच साल के लिए वापसी का रास्ता तैयार करो, इसके लिए लोकलुभावन घोषणाएं करो, सौगातों का पिटारा खोल दो, हर वह हथकंडा अपनाओ जो सत्ता में बनाए रखने की संभावना रखता हो । और अगर आप विपक्ष में हो तो रस्मअदायगी के तौर पर सरकार पर सवाल उठाओ, फैसलों की आलोचना करो, विवाद खड़े करो और आखिरी साल में वोटरों के बड़े वर्ग को फोकस कर वायदों की झड़ी लगा दो ।
जरा अपने चारों ओर नजर दौड़ाइये, देखिए फिलवक्त यही तो हो रहा है देश में । एक ओर किसानों की कर्ज माफी के बड़े-बड़े वायदे, युवाओं को रोजगार और न्यूनतम आय की गारंटी जैसे शिगूफे , दूसरी ओर किसानों के खातों में नगदी हस्तांतरण, मजदूरों को आर्थिक सुरक्षा का लालीपाप, मध्यम वर्ग को आयकर में छूट और आर्थिक आधार पर आरक्षण के फैसले । आखिर क्या है यह सब ? इसे कहते हैं कोरी सियासत, और अगर ऐसा नहीं है तो फिर यह सब चुनाव के मौके पर ही क्यों ? बताइये क्या छह हजार रुपए सालाना नगद दिये जाने से देश में किसानी का संकट टल सकता है ? यही नहीं सवाल दूसरी ओर कर्ज माफी के उस विपक्षी वायदे पर भी है, जो कहीं से व्यवहारिक नजर नहीं आता । और यदि व्यवहारिक मान भी लिया जाए तो क्या कर्ज माफी से स्थायी तौर पर किसानों की खुशहाली लौट सकती है ?
सच यह है कि खेती और किसान के मुद्दे पर देश में किया जाना वाला हर वायदा, हर घोषणा सिर्फ संवेदनहीनता है । यकीनन कुछ इसी तरह का मुद्दा आर्थिक आरक्षण का भी है । कोई बताये कि जब देश में सरकारी नौकरियों की संभावनाएं धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं, तो इस आरक्षण के क्या मायने हैं ? साफ नजर आता है कि सामाजिक आधार पर आरक्षण के दायरे से बाहर के लोगों की नाराजगी को शांत करने के लिए सरकार ने आर्थिक आधार पर आरक्षण का एक आसान सा रास्ता चुना । लेकिन इस बात कि क्या गारंटी है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण का फैसला आने वाले वक्त में नयी समस्यायें खड़ी नहीं करेगा ?
हालांत किस कदर गंभीर हो चले हैं जरा इन तथ्यों के आलोक में अंदाजा लगाइये । राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के मुताबिक वर्ष 2018 में देश की बेरोजगारी दर 6.1 रही है, जबकि वर्ष 2011-12 में यह दर 2.2 फीसदी थी । यह बात अलग है कि राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग से मंजूरी के बावजदू यह रिपोर्ट जारी नहीं होने दी गयी । यह जानकर हैरानी होना निश्चित है कि देश में बेरोजगारी की स्थिति इस वक्त पाकिस्तान से युद्ध के समय से भी बदतर हो चुकी है । सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1972-73 में पाकिस्तान से युद्ध और वैश्विक मंदी के दौर में भी बेरोजगारी का प्रतिशत 5.8 ही था । आल इंडिया मैन्युफैक्चर्स आर्गेनाइजेशन के मुताबिक वर्ष 2016 से अब तक 35 लाख से अधिक नौकरियां खत्म हुई हैं । जबकि दूसरी ओर सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकानामी के मुताबिक 1 करोड़ 10 लाख भारतीयों ने साल 2018 में नौकरियां गवांई हैं । यह संदर्भ इसलिए है क्योंकि यह देश की आज बड़ी समस्या है और चुनाव से ठीक पूर्व जो पिटारा खुला है, उसमें इसका जिक्र तक नहीं है ।
सवाल यहां सरकार या विपक्ष की मंशा का नहीं है, मंशा दोनो की साफ है । एक को सत्ता पानी है तो एक को बचानी है । सवाल प्राथमिकता और राजनैतिक इच्छाशक्ति का है । सवाल सरकार के फैसलों और विपक्ष के वायदों की व्यवहारिकता का है, उनकी टाइमिंग का है । अब संसद में पेश हुए हालिया बजट को ही लें, सरकार ने जो बजट पेश किया वह हालांकि अंतरिम बजट था लेकिन सैद्धांतिक सीमाओं को पार करते हुए इसे एक पूर्ण बजट के तौर पर पेश किया गया । तकनीकी तौर पर इस बजट की मियाद मात्र दो महीने है, इसके बावजूद सरकार ने आर्थिक फैसले लेने से परहेज नहीं किया ।
निसंदेह आसन्न आम चुनाव के चलते सरकार ने मौके के फायदा उठाकर चौका मारा है । बजट के तीन मुख्य आकर्षण हैं ।किसानों के खातों में छह हजार रुपये सालाना दिया जाना, पांच लाख रुपये तक की कमाई आयकर मुक्त होना और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को पेंशन के दायरे में लाना । फौरी तौर पर सरकार के यह व्यवस्था तकरीबन 12 करोड़ किसान परिवारों, 10 करोड़ श्रमिक परिवारों और साढ़े तीन करोड़ नौकरीपेशा परिवारों को ध्यान में रखते हुए किए हैं।
वोटों के अंकगणित के लिहाज से देखा जाए तो साठ फीसदी से अधिक मतदाता इसके दायरे में आ सकते हैं। संभवत: योजना तैयार भी यही ध्यान में रखते हुए की गयी है, लेकिन योजना कामयाब होगी इस पर संदेह है । देश में 12 करोड़ से ऊपर छोटे सीमांत किसानों को पांच सौ रुपए महीने के नगद हस्तांतरण से देश कैसे कृषि संकट से उबर पाएगा यह अपने आप में बड़ा सवाल है ? संदेश यह भी है कि आसन्न चुनाव में किसानों की नाराजगी से बचने के लिए मोदी सरकार का यह जल्दबाजी में लिया गया निर्णय है । सरकारी संस्था नाबार्ड का सर्वेक्षण कहता है कि एक किसान की न्यूनतम आय नौ हजार रुपया प्रतिमाह होनी आवश्यक है। इस लिहाज से भी देखा जाए तो योजना कारगर प्रतीत नहीं होती । योजना में भूमिहीन किसानों के लिए कोई स्थान नहीं है । सरकार ‘होमवर्क’ करती तो तेलंगाना और उड़ीसा राज्यों में सफल योजनाओं को आधार बनाते हुए बटाईदार किसानों को भी शामिल करती ।
झोल तो असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की पेंशन स्कीम में भी है, सरकार की इस योजना का लाभ उसी श्रमिक को मिलना है जिसकी आयु 18 से 29 साल के बीच है । योजना के मुताबिक श्रमिक को 100 रुपया प्रतिमाह देना होगा और तीस साल के बाद सरकार तीन हजार रुपया प्रतिमाह पेंशन देगी । यह योजना मजदूरों को कितना सुहायेगी और लुभायेगी कहा नहीं जा सकता । और अब बात करते हैं आयकर सीमा के फैसले की, सरकार के इस फैसले को आर्थिक आधार पर आरक्षण के फैसले के साथ जोड़कर देखा जाए तो साफ है कि सरकार ने गरीब और गरीबी का भी वर्गीकरण कर दिया है । एक आयकर की सीमा में आने वाला गरीब और दूसरा आयकर की सीमा से बाहर का गरीब ।
सरकार के इन फैसलों से एक बात यह तो साफ हुई है कि सरकार वह अर्थव्यवस्था तैयार करने में नाकाम रही है, जो आरक्षण को मात दे सके । वह विकास की ऐसी नीतियां तैयार करने में भी सफल नहीं रही, जो वंचित और शोषित वर्ग के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर सके । सरकार के फैसलों पर जानकारों, विश्लेषकों और विशेषज्ञों की राय अलग-अलग हो सकती है, लेकिन यह साफ है कि सरकार नाराजगी से डरी हुई है । यह नाराजगी कितनी गहरी है इसकी थाह लेना मुश्किल है, लेकिन सरकार के आंकलन से लगता है कि देश का एक बड़ा वर्ग निराश है, नाराज है । अंतरिम बजट में देश के तकरीबन 65 फीसदी मतदाताओं को रेवड़ियां बांटना इसी नाराजगी का डेमेज कंट्रोल है । यह भी कहा जा सकता है कि एंटी इनकंबेंसी को कम करने का दांव है।
चिंताजनक पहलू यह है कि न जाने क्यों राजनैतिक दलों को यह लगता है कि मतदाता अभी भी दूरदर्शी कदमों के बजाय लोक लुभावन फैसलों को ज्यादा तवज्जो देते हैं । जबकि आज देश की सबसे बड़ी आवश्यकता सामाजिक और आर्थिक सुधार की ओर कदम बढ़ाने की है । रोजगार और किसानी के संकट को दूर करने के लिए दीर्घकालीन समाधान की आवश्यकता है । उन कारणों को दूर करने की आवश्यकता है, जो आर्थिक बदलाव में बाधक बने हैं ।
बेहतर होता कि प्रधानमंत्री मोदी मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते । अंतरिम बजट के जरिये समाजिक व आर्थिक पिछड़ेपन और बढ़ती बेरोजगारी पर दीर्घकालीन समाधान का संकेत देते । जिस तरह की छवि सरकार की गढ़ी गयी है, उसके अनुरूप वास्तविकता का सामना करते । लेकिन बड़ी बातें करने वाली मौजूदा सरकार ने भी आखिरकार तुष्टीकरण का मार्ग चुना । दीर्घकालीन समाधान के बजाय सियासत के चश्मे से ही फैसले किये । वास्तविकता को नजरअंदाज ही नहीं किया बल्कि उसे झुठलाने की कोशिश भी की । अपने मौजूदा कार्यकाल के अंतिम दिनों में मोदी सरकार अब जबकि सारे ‘मास्टर स्ट्रोक’ खेल चुकी है तो सवाल यह उठता है कि ये कितने कारगर होंगे । क्योंकि चुनावी गणित में जो चल गया वो ‘तीर’, जो नहीं चला वो तुक्का ।