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उत्तराखंड में आख़िर कब तक चलेगा ये ”कैंप कार्यालयों” का ”खेल”

पहाड़ियात पर हावी गैर पहाड़ी सोच के लोगों के कारण उत्तराखंड का पहाड़ बढ़ रहा है वीरानी की तरफ

पर्वतीय राज्य की बात करने वाले राज्य के राजनीतिक दलों तक के मुख्यालय देहरादून और हल्द्वानी जैसे सुविधा संपन्न स्थानों में बन चुके

राजेंद्र जोशी 
देहरादून : तमाम शहादतों के बाद मिले उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आए 20 वर्ष पूरे होने के बाद 21 वें  वर्ष में प्रवेश हो गया है लेकिन जिस राज्य की कल्पना कर इस राज्य की मांग की गई थी वह इन् बीस वर्षों में गौण सी हो होती जा रही है।  सोचा था पहाड़ी राज्य की राजधानी पहाड़ में होगी, पहाड़ में स्थित कार्यालयों से  ही इस पहाड़ी राज्य की नीति का निर्धारण होगा लेकिन पहाड़ियात पर हावी गैर पहाड़ी सोच के लोगों के कारण उत्तराखंड का पहाड़ वीरानी की तरफ बढ़ रहा है और उत्तरप्रदेश के दौरान के लगभग सभी कार्यालय और मुख्यालय कहने को तो कुछ अभी भी पहाड़ में हैं लेकिन उनके कैंप कार्यालय तराई वाले इलाकों में सुख सुविधा की चाह में स्थापित हो गए यहां तक पर्वतीय राज्य की बात करने वाले राज्य के राजनीतिक दलों तक के मुख्यालय देहरादून और हल्द्वानी जैसे सुविधा संपन्न स्थानों में बन चुके हैं।  जब पहाड़ों में राजनीति करने वाले दलों को पहाड़ की चिंता नहीं तो सरकारी कार्यालय का ख़ाक पर्वतीय जनपदों में टिकेंगे यह सवाल आज सबके सामने मुंह बाए खड़ा है।
सबसे पहले बात करते हैं गढ़वाल कमिश्नरी के पौड़ी कार्यालय की जो कभी गढ़वाल कमिशनरी का मुख्यालय हुआ करता था आज कहने को भले ही आज भी गढ़वाल कमिशनरी का मुख्यालय है , लेकिन राज्य के अस्तित्व में आने के बाद से यह कैंप कार्यालय सा बन गया है और देहरादून के ईसी रोड स्थित कैंप कार्यालय कमिश्नरी मुख्यालय।  ठीक इसी तरह पौड़ी सहित नैनीताल जिले के पर्वतीय इलाकों में स्थित कार्यालय भी हल्द्वानी , काठगोदाम शिफ्ट कर गए हैं। इतना ही नहीं सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि पहाड़ों से पलायन को रोकने के लिए जिस कार्यालय यानी पलायन आयोग के मुख्यालय की नींव पौड़ी में रखी गई थी वह खुद ही पलायन कर देहरादून आ गया है ऐसे में उस कार्यालय से क्या उम्मीद की जा सकती है जिसके जिम्मे पहाड़ से पलायन रोकने की जिम्मेदारी हो और वह खुद ही पलायन कर जाए। यह तो एक बानगी मात्र है कैंप कार्यालयों की देहरादून में फेहरिस्त काफी लम्बी है इनमें तमाम विश्व विद्यालयों से लेकर पर्वतीय क्षेत्रों के सर्वेक्षण की जिम्मेदारी निभा रहे वे तमाम संस्थानों के मुख्यालयों के कैंप कार्यालयों के नाम शामिल हैं जिन्हे होना तो राज्य के पर्वतीय इलाकों में था और कागजों में हैं भी लेकिन चल तराई वाले इलाकों से हैं। 
अब बात करते हैं राज्य में राजनीती करने वाले राजनीतिक दलों की , जो कसमें तो पहाड़ के विकास की खाते हैं लेकिन उनके कार्यालय और मुख्यालय देहरादून, हल्द्वानी में बन चुके हैं ऐसे में इन राजनीतिक दलों से क्या उम्मीद की जा सकती है कि वे पहाड़ के बारे में कभी कुछ सोच भी रखते होंगे। उत्तराखंड की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी का प्रदेश कार्यालय देहरादून की पॉश कॉलोनी बलबीर रोड पर स्थित है। इतना ही नहीं अब उसने जो प्रदेश कार्यालय को बनाने के लिए स्थान का चयन किया है वह नत्थनपुर बाय पास पर एक विशाल भू-खंड है जहां पर भूमि पूजन हो चुका है।  वहीं कमोवेश कांग्रेस जो प्रदेश में विकास करने का दावा कर रही है उसका प्रदेश मुख्यालय भी देहरादून की सबसे महंगे स्थान राजपुर रोड पर स्थित है। अब प्रदेश की राजनीतिक दशा और दिशा बदलने का दावा करने वाली और उत्तराखंड में अपने पांव जमाने को आतुर आम आदमीं पार्टी की बात की जाए तो उसने भी देहरादून के पॉश इलाके डालनवाला में अपना प्रदेश कार्यालय खोला है। वहीं उत्तराखंड राज्य आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की बात करने वाले उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) का प्रदेश मुख्यालय भी गाँधी रोड पर बनाया हुआ है। यानि प्रदेश में राजनीती कर इस राज्य के विकास का दम्भ भरने वाले राजनीतिक दल भी पहाड़ को छोड़ देहरादून जैसे सुविधा संपन्न स्थानों से ही पहाड़ की राजनीती कर रहे हैं। 
कुल मिलाकर यदि देखा जाए तो पहाड़ के विकास करने की  बात करने वाले सरकारी कार्यालय हों या राजनीतिक दल सभी को राजनीति तो पहाड़ की करनी है लेकिन पहाड़ के बारे में सोचना नहीं है। बात तो पहाड़ की करनी है लेकिन पहाड़ चढ़ना नहीं है।  सबकुछ देहरादून हल्द्वानी से ही नियंत्रित करना है।  इन्हीं की देखा-देखी में पहड़वासी भी तराई की तरफ पलायन करते जा रहे हैं और पहाड़ खाली होते चले जा रहे हैं।  पहाड़ों से पलायन कर नीचे की तरफ रुख करने  वाले लोगों की यह बात कि जब तक पहाड़ो में सड़क, शिक्षा और चिकित्सा की सुविधा नहीं होती तो हम वहां क्यों मरने पर मज़बूर हों। इन बीस सालों में राज्य की सत्ता  पर काबिज़ राजनीतिक दल पहाड़ों को यह तीन मूलभूत आवश्यकताएं उपलब्ध नहीं करा पाए और बात विकास की हो तो यह सब कितना झूठा दावा लगता है यह आप खुद ही आकलन कर सकते हैं।  इन बातों को देखकर तो अब पर्वतीय लोगों को लगने लगा है नेता हों या अधिकारी बात तो पहाड़ की करेंगे लेकिन रहेंगे सुविधा सम्पन्न मैदानी इलाकों में और खेलते रहेंगे कैंप कार्यालयों का खेल।  

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