बागेश्वर। होली का इतिहास काफी पुराना है। कुमाऊं की होली शास्त्रीय संगीत से उपजी मानी जाती है। बैठ होली का उस्ताद अमानत हुसैन को मना जाता है। ग्वालियर तथा मथुरा से भी मुस्ल्मि संगीतज्ञ यहां आते रहे। अंग्रेजों के जमाने में भी कुमाऊं होली का गायन होता रहा।
हिमालय शोध संगीत समिति के निदेशक डा़ पंकज उप्रेती ने बताया कि ग्वालियर, मथुरा से भी मुस्लिम संगीतज्ञ यहां आते रहे। 1850 से होली की बैठकें नियमित होने लगीं। 1870 से वार्षिक समारोह के रूप में मनाया जाने लगा। शास्त्रीय संगीत से उपजी कुमाऊं की बैठ होली के स्वरूप को बनाने में उस्ताद अमानत हुसैन का नाम सर्वप्रथम आता है। उन्होंने बताया कि राजा कल्याण चंद के समय दरवारी गायकों के संकेत मिलते हैं। अनुमान लगाया जाता है कि दरभंगा में शासकों से भी कहीं न कहीं संबंध रहे होंगे। कुमाऊं और दरभंगा की होली में अनोखा सामंजस्य है। कन्नौज व रामपुर की गायकी का प्रभाव भी इसमें पड़ा।
अनामत अली उस्ताद ने होली गायकी को ठुमरी के रूप में सोलह मात्राओं में पिरोया। उस्तादों व पेशेवर गायकों का योगदान इसमें रहा है। मुगल शासक व कलाकारों को भी होली गायकी की यह शैली रिझा गई। लखनऊ के बादशाह और केसरबाग का उल्लेख है। अधिकतर इसे राग काफी में गाया जाता है।
होली का इन पर्वों पर असर:प्राचीन वर्ण व्यवस्था की एक मान्यता के अनुसार रक्षावंधन, दशहरा, दीपावली व होली प्रमुख त्योहार बनकर उभरा। पौष के प्रथम रविवार से विष्णुपदी होली के बाद बसंत, शिवरात्रि अवसर पर क्रमवार गाते हुए होली के निकट आते-आते अति श्रृंगारिकता इसके गायन-वादन में सुनाई देती है। यहां कई गांवों में होली के साथ-साथ झोड़े-चांचरी लोक नृत्यगीत शैली का चलन भी है। कुमाऊं की होली के काव्य स्वरूप को देखने से पता चलता है कि कितने विस्तृत भावना इन रचनाओं में भरे हैं।
जोगिया सहित अन्य रागों में भी कई होली रचनाएं बैठकों में गायी जाती हैं। इनके गायन का शास्त्रीय अंदाज होते हुए भी लोक का ढंग होता है, जो इसे पृथक शैली का दर्जा देता है। पहाड़ों में शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार में इस होली परंपरा का बहुत बड़ा योगदान है। निर्जन और अति दुर्गम क्षेत्रों तक में रागों के नाम लेकर उसके गायन समय पर आम जन का सजग होना इस बात को सिद्ध करता है।