विश्व की सनातन संस्कृति का ध्वजवाहक हिन्दू नववर्ष
इस दिन को संवत्सराम्भ, गुडीपडवा,युगादी,बसंत ऋतु प्रारंभ दिन आदि नामों से भी जाना जाता है
कमल किशोर डुकलान
भारतीय वैदिक एवं ज्योतिषीय परंपरा में बताया गया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हिंदू नववर्ष का आरंभ होता है क्योंकि इसी दिन सृष्टि का आरंभ हुआ है इसलिए इसे कल्प, सृष्टि और युगादि का आरंभिक दिन भी कहा जाता है और चैत्र मास का वैदिक नाम मधु मास भी है। ज्योतिषशास्त्र में बताया गया है कि जब सूर्य और चंद्रमा मीन राशि में एक समान अंशों पर गोचर कर रहे होते हैं तो हिंदू नववर्ष का आरंभ होता है।
विक्रमी संवत् चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ होने वाला भारतीय नववर्ष इस राष्ट्र की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक परम्परा के संवाहक के रुप में प्रकृति के अन्तर्निहित सम्बन्धों को प्राणतत्व में समाहित करने वाला विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति का ध्वजवाहक है।
भारतीय सनातन संस्कृति का पावन पुनीत पर्व जिसे हम सृष्टि का आरंभ पर्व भी कहते हैं,जिसका प्रारंभ प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी नव सम्वत्सर हिन्दू नववर्ष से होता है। भारतीय वैदिक धर्म ग्रंथों में स्पष्टतया यह उल्लेखित है कि सृष्टि के सृजनकर्ता भगवान ब्रह्मा ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही सृष्टि की रचना के प्रवर्तन का कार्य प्रारंभ किया था अर्थात हमारा हिन्दू नववर्ष सृष्टि के निर्माण का आधारभूत स्तंभ भी है जिसकी छाया में सौहार्द प्रेम एवं आत्मिक परिशुद्धता का वातावरण पुष्ट होता है। जिसे हम अनादिकाल से उल्लास एवं आनंदित होकर अपनी संस्कृति की सर्वोत्कृष्टता के भाव में डूबकर मनाते आ रहे हैं। यद्धपि सातवीं शताब्दी के बाद अपना देश भारत वर्ष अनेक वर्षों तक मुगलों एवं अंग्रेजों जैसी विभिन्न बाहरी शक्तियों के अधीन होने के कारण उनके द्वारा थोपे गए ईसवीं सन् अंग्रेजी वर्ष को नया वर्ष कहने की परंपरा प्रचलन में आयी।
भारतीय नव संवत्सर विश्व की कालक्रम गणना से सत्तावन वर्ष (57) आगे चलता है जो इस बात का प्रमाण है,कि हम विश्व का दीर्घकाल से नेतृत्व करते हुए समस्त क्षेत्रों में कीर्ति की पताका फहराते आए हैं, इसलिए यह समझना और भी आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी संस्कृति के मूल स्वरूप के महात्म्य को ग्रहण कर अपनी पुरातन परिपाटी को पुनर्स्थापित करने के लिए मजबूती के साथ प्रतिबद्धता व्यक्त करने का नव सम्वत्सर पुनीत अवसर है। भारतीय नववर्ष प्रकृति के आत्मबोध के साथ नैसर्गिक रुप से जुड़ा हुआ पर्व अपनी
विश्व में प्रचलित कैलेण्डरों में भारतीय पंचांग अपनी एक विशिष्ट पहचान रखता है।हमारा देश भारत वर्ष जलवायु आधारित ऋतुप्रधान देश है जो समयांतरालों पर अपनी छटा बिखेरता है,इसी क्रम में हमारे यहां छः ऋतुओं में बसंत को ऋतुराज कहा जाता है। इस बात पर ध्यानाकृष्ट करने एवं प्रमुखता के साथ समझने की आवश्यकता है कि हमारे नववर्ष के प्रारंभ के लिए प्रकृति सहगामिनी के रूप में दृष्टव्य होती है।
हम सब जानते हैं,कि माघ शुक्ल पंचमी बसंत पंचमी को ज्ञान की देवी मां आद्या भगवती सरस्वती का अवतरण दिवस मनाया जाता है,इसी के साथ प्रकृति के द्वारा नववर्ष आगमन की सूचना सम्पूर्ण चराचर जगत में पहुंचने लगती है,नये फूल,पत्तियों द्वारा प्रकृति अपना श्रृंगार करने लगती है सहज ही प्रकृति में चारों ओर नूतनता परिलक्षित होने लगती है, यद्यपि फाल्गुन मास में ही बसंत का आगमन होता है तथापि बसंत अपनी सभी कलाओं में परिपूर्णता चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही मूलस्वरूप में प्राप्त करता है इस समय प्रकृति में विद्यमान पेड़-पौधों में पूर्णतया नई पत्तियां एवं कोपलें आने के साथ-साथ नए अनाज के घर आगमन से किसानों के चेहरे प्रसन्नता से भर जाते हैं। चारों ओर शुध्दता का माहौल निर्मित होने लगता हैं,जिसके आनंददायी वातावरण में मन आह्लादित होकर झूमने लगता है। भौरों की कलियों में गुंजार नवीनता का एवं रसपूर्ण वातावरण के बोध को प्रकट करती है।
वर्तमान में लुप्त प्राय होने की कगार में लोककलाएं पुरानी पीढ़ी के द्वारा हमें देखने और सुनने को मिलती हैं चैत्रमास के आगमन एवं नववर्ष से सम्पूर्ण वातावरण आनंदित होकर मंगल गायन करने लगता है, सभी ओर आनंद की अमृत वर्षा होने लगती है पशु-पक्षी,जीव-जंतु सभी में नवजीवन का संचारित होने से प्रेम एवं आनंद से परिपूर्ण नावांकुर प्रस्फुटित होने लगता है जिसकी पावनता में सुख-शांति एवं समन्वय की रसधारा बहने लगती है। सरलतम शब्दों में कहें तो यह समय दो ऋतुओं का संध्याकाल होने से इस समय संतुलित सरसतापूर्ण वातावरण बना रहता है।शायद विधाता ने सृष्टि की रचना करने के लिए इस समय को सर्वाधिक उपयुक्त समय माना होगा। यह सब हमारे नववर्ष के आगमन से प्रकृति एवं मानव सम्बन्धों की अभिव्यक्ति ही तो है।
भारतीय नववर्ष या चैत्र मास की श्रेष्ठता इतनी ही नहीं बल्कि हमारे यहां धार्मिक, अध्यात्मिक,पौराणिक,सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक महत्ता के प्रतिपादन का भी एक लम्बा इतिहास रहा है उसी वटवृक्ष की शाखाएं आज विविध रूपों में अपने मूलतत्व को समेटे हुए हमें जीवटता का बोध कराती हैं।बासंती नवरात्रि के प्रारंभ के साथ मां आदिशक्ति के नौ रुपों की उपासना का प्रारंम्भ भी चैत्र शुक्ल वर्ष प्रतिपदा से ही प्रारंभ होता है। पहले के समय अर्थात त्रेतायुग में हमारी सनातन संस्कृति के आधार पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का अवतरण चैत्र शुक्ल की नवमीं तिथि को हुआ था। घटनाक्रम में महत्वपूर्ण बात यह भी है कि अन्याय,अत्याचार एवं अधर्म रूपी रावण का समूलनाश करने के उपरांत भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन के उपरांत प्रभु का राज्याभिषेक भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही हुआ था इसी के साथ रामराज्य के शंखनाद की ध्वनि से समूचा जगत एकरूपता में तल्लीन हो गया था।
महाभारत काल अर्थात द्वापर युग में चैत्रशुक्ल प्रतिपदा तिथि का अपना एक अलग प्रकार का महत्व रहा है इसी तिथि को सत्य व असत्य के युद्ध महाभारत के बाद दिग्विजयी होने के उपरांत धर्मराज युध्दिष्ठिर का भगवान श्रीकृष्ण के पाञ्चजन्य शंख के उद्घघोष के साथ ही राजतिलक हुआ था तथा धर्म की स्थापना का संकल्प लिया गया जिस कारण तब से सम्पूर्ण आर्यावर्त में सुख-शांति एवं धार्मिक चेतना की अविरल धारा निरंतर प्रवाहित होती रही है। इसीलिए हमारे धार्मिक,पौराणिक इतिहास के साथ अपने अद्वितीय महत्व चैत्रशुक्ल प्रतिपदा तिथि का विशेष महत्त्व सहस्त्रों वर्ष पूर्व से हम सभी के लिए है,समय की गति के साथ ही चैत्रशुक्ल प्रतिपदा तिथि अपने अर्थ एवं महात्म्य बोध को अपने में समेटे हुए है। इसी दिन महाराज विक्रमादित्य ने विक्रम संवत्सर का प्रतिपादन किया जिसे भगवान महाकाल की पावन नगरी तात्कालीन उज्जयिनी वर्तमान उज्जैन की पावन पुनीता शिप्रा नदी के तट पर नव सम्वत्सर पर्व मनाया था जिसे हम तब से लेकर अनवरत हिन्दूनववर्ष के रूप में मनाते आ रहे हैं।
भारतीय धार्मिक-सामाजिक एवं अध्यात्मिक चेतना के प्रखर पुरुष वेदों के भाष्य कार महर्षि दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही की थी जिसका उद्देश्य सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान को पुनर्स्थापित कर समाज को जागृत करने का था।इसी तरह वर्तमान में विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी,सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक आद्य सरसंघचालक परम पूजनीय केशवराम बलिराम हेडगेवार जी का जन्मदिन भी भारतीय पंचांग के अनुसार हिन्दी महीनों की तिथियों के अनुसार चैत्र शुक्ल वर्ष प्रतिपदा को ही मनाया जाता है।
चैत्रशुक्ल प्रतिपदा तिथि को मनाया जाने वाला हिन्दू नववर्ष हमारे राष्ट्र की सांस्कृतिक-पौराणिक,सामाजिक-ऐतिहासिक,सांस्कृतिक,आध्यात्मिक परम्परा के संवाहक के रुप में जीव व प्रकृति के मध्य अन्तर्निहित सम्बन्धों को व्यक्त करने के साथ धर्म व मानवीय चेतना के प्राणतत्व को समाहित करने की श्रेष्ठतम संस्कृति का ध्वजवाहक है। सभी भारतीयों का यह परम कर्तव्य है कि पश्चिमी अंधानुकरण के भ्रमजाल से बाहर निकलकर अपनी जड़ों की ओर वापस आएँ एवं महान सभ्यता के नववर्ष को बढ़चढ़कर मनाएं जिससे भारतवर्ष का गौरव पुनः विश्वपटल पर स्थापित हो सके हिन्दू नववर्ष में ही सभी प्रकार की उन्नति का सार छिपा हुआ है।