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हिजाब विवाद मजहबी सोच थोपने का है मामला।

शिक्षा के मन्दिर से सुरु हुआ हिजाब विवाद मात्र मुस्लिम समुदाय के अधिकारों से जुड़ा हुआ विवाद नहीं है। मुस्लिम समुदाय का अपने पहनावे से अपनी मजहबी मान्यता को अधिकाधिक प्रचारित-प्रसारित करना है।
कमल किशोर दुक्लान
कर्नाटक से प्रारंभ हुए हिजाब विवाद को देखकर लगता है कि भारत में अब इस्लाम के सारे फैसले मुस्लिम पुरुष लेने लगे हैं और यहाँ अल्लाह की मर्जी जैसा कुछ नहीं है। तालिबानी कैद में जकड़ा अफगानिस्तान भी हिजाब,नकाब और बुरखा से आजाद होने को छटपटा रहा है परन्तु भारत में इसकी जकड़न में आने की बेताबी यह साफ दिखाती है कि भारत में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति उनके पुरुषों के रहमो कदम पर है।
स्कूल/कालेजों से प्रारंभ हुए हिजाब विवाद को मैं अब बुरखे तक आते हुये देख रहा हूँ। मुस्लिम लड़कियों का स्कूल/कालेजों में बुरखे में आना मानों संविधान से लेकर सरकारी नियम-कानूनों को ठेंगा दिखाना है।
कर्नाटक के उडुपी से शुरू हुआ विवाद को अब मुस्लिम समुदाय ने अपनी साख का सवाल बना लिया है। केंद्र सरकार से खफा मुस्लिम समुदाय ने कर्नाटक के इस विवाद में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है ताकि राज्य की भाजपानीत सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक को सबक सिखाया जा सके।
हालांकि मामला अब न्यायालय में हैं और इस पर आने वाला फैसला देशभर के शिक्षण संस्थानों में हिजाब को लेकर स्थिति तय करेगा लेकिन शिक्षा के मंदिर से शुरू हुआ यह विवाद मात्र अधिकारों से जुड़ा हुआ नहीं है। यह अधिकार से अधिक अपनी मजहबी मान्यता को प्रचारित-प्रसारित करना है। हालांकि मैं इसे भारत के मुस्लिमों की दकियानूसी ही मानूंगा।
सऊदी अरब की बात करें तो वहां के शासक आधुनिक दुनिया से कदमताल करते हुए जहाँ हिजाब और बुरखे से निजात दिलाने की वकालत कर रहे हैं वहीं भारत में इस कट्टर मजहबी सोच को लड़कियों के माध्यम से धार देना उसी सोच को इंगित कर रहा है जहाँ मुस्लिम पुरुष महिलाओं-लड़कियों को आगे कर माहौल ख़राब करना चाहते हैं। शाहीन बाग़ से लेकर ताजा विवाद इसका प्रमाण है।
अगर हम बांग्लादेश की राजधानी ढाका की बात करें तो वहां हिजाब या बुरखे में ढंकी महिलाएं कम ही मिलेंगी। विश्व की तमाम मुस्लिम महिला उद्यमी बुरखा,हिजाब और नकाब से तौबा कर चुकी हैं। कायदे से भारत की मुस्लिम लड़कियों की आदर्श वे ही होना चाहिये।
जिन संविधान के मौलिक अधिकारों की वे बात करती हैं यदि कायदे से वे उसे मानें तो शिक्षण संस्थानों के नियमों से भी वे बंधी हुई हैं। कल को यदि भारत का हिन्दू समुदाय मनु स्मृति,वेद,गीता,पुराणों के नियमों से चलने लगे तो क्या मुस्लिम समुदाय इसे स्वीकार करेगा? फिर एक लोकतांत्रिक देश के शिक्षण संस्थानों में किसी के मजहबी प्रतीक चिन्हों का क्या काम? एक ओर तो मुस्लिम लड़कियां संविधान की दुहाई दे रही हैं वहीं अदालतों में उनके पेरोकार कुरान की आयतें बता रहे हैं।
अब प्रश्न उठता है कि क्या भारतीय न्यायालय कुरान की सुरों से चलेंगे? क्या भारत में शरिया कानून है? यह तो बेवकूफी भरा कदम है जो कानून से लेकर संविधान और संस्थाओं तक का मजाक बना रहा है। कायदे से तो इन लड़कियों को पढ़-लिखकर खुद को इस जकड़न से मुक्त करना था पर अपनी मजहबी सोच को थोपने की जिद ने उनकी स्थिति दयनीय कर दी है।
मुस्लिम समुदाय में जहर उगलता पुरुष क्या कम था जो अब लड़कियों को इसका शिकार बना रहा है। यदि वे लड़कियां उच्च शिक्षित होती तो अन्य लड़कियों के लिए आदर्श बनती लेकिन मुस्लिम समुदाय में ऐसा नहीं हुआ।
वैसे देखा जाये तो हिजाब विवाद का असर प्रगतिशील मुस्लिम लड़कियों पर पड़ना तय है। केरल की आयशा मर्केराउज ने पिछले साल दिसंबर में मस्जिद जाकर इस्लाम छोड़ने का ऐलान कर दिया। वे कहती हैं, ‘करीब 10 सालों से मैं ऊहापोह में थी। इस्लाम को लेकर मेरे भीतर सवाल ही सवाल थे।
कुछ साल पहले मैंने पैगंबर मोहम्मद की ऑटोबायोग्राफी पढ़ी। किताब के पन्ने जैसे-जैसे मैं पलटती गई, वैसे-वैसे मेरा इरादा पक्का होता गया। दरअसल, उस किताब में दासता और औरतों को लेकर जो बातें लिखी गई हैं वह मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ाती हैं। इसी कारण मैंने इस्लाम छोड़ने का फैसला किया।’आयशा अकेली नहीं हैं जिन्होंने मजहबी कट्टरता और महिलाओं को लेकर इस्लाम की सोच के कारण इस्लाम त्याग दिया।
दक्षिण भारत के केरल और तमिलनाडु में बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाएं इस्लाम छोड़ रही हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि हिजाब विवाद के बाद कर्नाटक में भी प्रगतिशील मुस्लिम महिलाएं इस्लाम छोड़ने लगें।
यदि ऐसा होता है तो उक्त विवाद मुस्लिम समुदाय पर भारी भी पड़ सकता है। फिलहाल तो मुस्लिम समुदाय ने मुस्लिम लड़कियों व महिलाओं की बेहतरी और शिक्षा के तमाम रास्ते बंद कर दिए हैं और एक ऐसा जहर घोलने में लगा है जो उन्हें प्रगतिशील समाज से बहिष्कृत करने की ओर अग्रसर कर रहा है।

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