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हर्ड इम्युनिटी यानी कि घातक सामाजिक अनैतिकता

समूचे मानव समुदाय को मिलकर लड़ने के लिए एक चुनौती

राजेन्द्र सिंह जादौन

मानव ने जंगली ओर असभ्य जीवन से जैसे जैसे सामूहिक जीवन की ओर कदम बढ़ाए वैसे वैसे एक समाज संस्कृति ओर सभ्यता का विकास हुआ। इसमें सभ्यता भौतिक रूप में दिखाई दी। सभ्यता के भौतिक रूप का मतलब था कि आवास,भोजन,पहनावा ओर जीवन को सुखद एवं सहज बनाने वाले तमाम साधनों का विकास हुआ। यह सभ्यता बन गई। इसके साथ ही संस्कृति का विकास हुआ। संस्कृति वैचारिक थी। इस संस्कृति ने मानव समाज को सामूहिक जीवन की नैतिकता दी।
संस्कृति ने यह तय किया की रीति रिवाज कैसे होंगे ओर समूह में जीवन जीते हुए मानव एक दूसरे के साथ किस तरह से सम्बन्धित होगा। यह परस्पर व्यवहार एक गम्भीर नैतिकता के रूप में सामने आया। इसे ही सामाजिक नैतिकता भी कहा गया। समाज के रूप में जब मानव समुदाय ने विकास शुरू किया तो व्यापार,सुरक्षा, शिक्षा,स्वास्थय आदि विषयों पर भी समाज ने अपने को आगे बढ़ाया। सभी को शिक्षा,सभी को रोजगार,सभी को स्वास्थय जैसे विषयों पर काम किया गया ओर उसके लिए सभी जरूरी संसाधन जुटाए गए।
सभी के बेहतर स्वास्थ्य के लिए विभिन्न बीमारियों के इलाज खोजे गए। हृदय रोग, केंसर,टीबी, कोढ़ ओर तमाम असाध्य रोगों के इलाज खोजे गए। बहुत विस्तार से स्वास्थय के क्षेत्र में प्रगति हुई। आखिर यह प्रगति समूह के रूप में जीने की मानव की इच्छाशक्ति का परिणाम था।
अब अगर इसी संदर्भ में कोरोना महामारी के सन्दर्भ को जोड़ा जाए तो यह भी समूचे मानव समुदाय को मिलकर लड़ने के लिए एक चुनौती है। समाज निर्माण के लिए जिस नैतिकता को आधार बनाया गया था, वह नैतिकता तो यही जवाब देती है। अगर सामूहिक जीवन के सामने आने वाली चुनौतियों को मिलकर नहीं लड़ा जाए और कुदरत के फैसले पर ही छोड़ दिया जाए तो यह समाज की नैतिकता के विरूद्ध होगा। यह घोर अनैतिकता होगी कि लॉकडाउन समाप्त कर ओर कोरोना महामारी का इलाज मिलने से पहले ही प्रकृति के न्याय के लिए दरवाजे खोल दिए जाएं। यह चार्ल्स डार्विन का सिद्धांत होगा कि जो जीवन जीने के लिए सक्षम है वह जी ले ओर जो नहीं है वह मृत्यु का वरण कर लें। सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट का सिद्धांत अपनाया जाए।
झुंड की रोग प्रतिरोधक क्षमता यानी कि हर्ड इम्युनिटी कुछ इस तरह का ही फॉर्मूला है। संक्रमण को फैलने दिया जाए ओर जब सत्तर अस्सी फीसदी तक लोग संक्रमित ही जाएं, तब बीमारी का प्रभाव भी खत्म हो जाएगा। मतलब यह है कि इसमें कुदरत ही फैसला कर देगी कि करोना वायरस के साथ किसे जीना है और किसे नहीं। अगर यही फैसला करना है तो इन तमाम अस्पतालों की जरूरत क्या है।
अगर समाज अपनी नैतिकता को छोड़कर कुदरत के फैसले पर ही चलना चाहता है तो उसे पहले से स्थापित स्वास्थ्य रक्षा के सारे संस्थान बन्द कर देना चाहिए। क्या झुंड प्रतिरोधकता के पैरोकारों को यह मंजूर होगा। जब भी उन्हे कोई रोग हो तो अस्पताल मै उनके इलाज के बजाय उन्हें कुदरत के हवाले कर दिया जाए।
हमारे देश में बड़ी संख्या में लोग झुंड प्रतिरोधकता के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। अमरीका में तो राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लॉकडाउन को जल्द से जल्द समाप्त कर कारोबार शुरू करना चाहते हैं। लेकिन क्या यह मानव समुदाय का अनैतिक आचरण तबाह करने वाला नहीं बन जाएगा। इस तरह की पैरवी करने वालो के भी कुदरत के न्याय में बचे रहने की क्या गारंटी होगी।
झुंड प्रतिरोधकता जैसे उपाय खोजने के बजाय मनुष्य मात्र को अब तक कामयाब रही अपनी वैज्ञानिक प्रतिभा पर भरोसा करना होगा। विश्व के वैज्ञानिक इतिहास पर नजर डाली जाए तो पता चलेगा कि बड़ी बड़ी महामारियों का समाधान खोजा गया है। साल 1918 का स्पेनिश फ्लू कोरोना से भी अधिक घातक था। इस फ्लू पर 1920 तक काबू पाया जा सका था ओर विश्व में करीब पांच करोड़ लोगों ने जीवन गवाया था।
झुंड प्रतिरोधकता जैसे उपायों पर विचार करने के बजाय हमें आए दिन होने वाले वायरस हमलों से लड़ना सीखना होगा ओर वायरसों को नाकाम करने वाली संस्कृति का विकास करना होगा। आज मुंबई की एशिया मै सबसे बड़ी झोपड़ पट्टी धारावी में अगर करोना संक्रमण बेकाबू है तो घनी बसावट के कारण है। ऐसे में संक्रमणों से बचने वाली दूरी के साथ आबादियों का विकास करना होगा।
समूह या भीड़ के रूप में कार्य करने की संस्कृति को छोड़ने की जरूरत होगी। रोग प्रतिरोधक क्षमता के विकास के कुछ और आहार एवं ओषधीय उपाय खोजने होंगे। हमें जीवन में बेहतर स्वास्थय ओर रोग मुक्त रहने को प्राथमिकता देनी होगी। ऐसे व्यसन छोड़ने होंगे, जो रोगों से लड़ने की ताकत कम करते हैं।
सरकार को अपने स्तर पर भी नई जनस्वास्थ्य नीति बनानी होंगी। सरकार की जिम्मेदारी होगी कि वह रोगों से लड़ने की शक्ति कम करने वाली वस्तुओं को सख्ती के साथ प्रतिबन्ध कर दे। अभी तो लॉकडाउन के दौरान ही शराब की तस्करी हो रही थी ओर तम्बाकू गुटखा जैसे पदार्थ दोगुनी कीमत पर बेचे जा रहे थे।
भारत को तो कुपोषण से लड़ना है। सरकार का दायित्व है कि वह भूख ओर कुपोषण से अपने देश को मुक्त करे। लोगों का आर्थिक स्तर जो भी रहे, लेकिन उन्हें हर हाल में भूख ओर कुपोषण से मुक्त करने की जरूरत है। झुंड प्रतिरोधकता नहीं बल्कि राष्ट्रीय प्रतिरोधकता विकसित करने की जरूरत है।
भारत समेत अनेक देशों में कोरोना की वैक्सीन बनाने के लिए ट्रायल चल रहे है। उम्मीद है कि इस साल के अंत तक कोई कारगर इलाज सामने आ जाएगा। भारत को अपने विकास में वायरल विज्ञान आधारित शोध को प्राथमिकता देना चाहिए। अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कह रहे हैं कि अमरीका इस साल के अंत तक वैक्सीन बना लेगा।
इजरायल और इटली से भी वैक्सीन ट्रायल शुरू होने के समाचार आए हैं। आखिर वैज्ञानिक इस संकट का भी समाधान खोजने में कामयाब होंगे। संयुक्त राष्ट्र के अधीन भी करीब आठ अरब डॉलर का एक फंड वैक्सीन खोजने लिए बनाया गया है। इस फंड में अमरीका शामिल नहीं है। लेकिन प्रयास देर से ही सही, कामयाबी जरूर लाएंगे। संयुक्त राष्ट्र की चिंता गरीब देशों तक वैक्सीन पहुंचाने की है ओर वह अमीर देशों से आर्थिक सहयोग की अपील कर रहा है।

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