POLITICS

हरीश रावत तथा किशोर के सामने एक समान राजनीतिक परिस्थितियां

कांग्रेस में सांगठनिक स्तर पर भारी फेरबदल की चर्चाएं 

भाजपा के सामने मजबूत स्थिति में खड़े होना कांग्रेस को पहली चुनौती

देवभूमि मीडिया ब्यूरो 
देहरादून। विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद अब कांग्रेस में सांगठनिक स्तर पर भारी फेरबदल होने की कयासबाजी तेज होने लगी है। ऐसे में मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष के लिए अपनी कुर्सी बचाए रखना आसान कतई नहीं हो सकता। हालांकि ऐसी भी संभावना जताई जा रही कि मौजूदा समय राजनैतिक परिस्थितियों को भांपते हुए आलाकमान मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष को और एक मौका दे सकता है। बहरहाल ग्यारह विधायकों के साथ कांग्रेस को उत्तराखंड में पांच साल तक सत्ता पक्ष का सामना करना है। सत्ता पक्ष के लिए फैसलों पर खामिंया खोजने के साथ ही जनहितैषी मुद्दों पर होने वाली अनदेखी पर राजनैतिक बयानबाजी के साथ-साथ संगठनात्मक तौर पर मजबूत स्थिति में खड़े होना कांग्रेस के सामने पहली चुनौती सामने है।

सत्तानसीं रही कांग्रेस के एक  फरवरी 2014 से लेकर आगे के सालों तक गौर फरमाया जाए तो कांग्रेस पार्टी और संगठन में गहमागहमी का दौर देखने को मिला। मुख्यमंत्री रहते हरीश रावत के लिए गए कई फैसलों पर संगठन अध्यक्ष किशोर उपाध्याय की ओर से खुलकर विरोध जताया गया। इन पूरे ढाई वर्षों में पार्टी और संगठन के बीच खटास का दौर रहा और जिसके केंद्र में प्रदेश पार्टी नेतृत्व हरीश रावत और संगठन नेतृत्व किशोर उपाध्याय ही रहे। मौजूदा समय दोनों को एक जैसी परिस्थितियों से गुजरना पड़ रहा है। कहते हैं न कि राजनीति में कोई, कभी सगा, पराया नहीं होता। मतलब के लिए अपना बना लिया और मतलब निकलने पर खामियां खोजने लगते हैं। कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में जब हरीश रावत मुख्यमंत्री हुआ करते थे, तो प्रदेश अध्यक्ष के नाते किशोर उपाध्याय ने जनहितों के नाम पर अनगिनत पत्र लिखे थे, मगर प्रदेश सरकार के स्तर पर कार्रवाई न होने से माना जाता रहा कि पार्टी मुखिया ने इस कान से सुनकर उस कान से निकाल दिया। कुछ इसी कारण तत्कालीन समय पार्टी और संगठन के बीच की तल्खियां लोगों की जुबां पर तैरती रहती थीं। हालांकि 2016 के मार्च माह में सरकार पर संकट के समय संगठन ने पूरी तरह मुखिया का साथ दिया और विपक्षी की राजनैतिक चालों को किशोर रूपी ढाल से जुझना पड़ा।

मौजूदा समय परिस्थितियां उलट दिखाई दे रही हैं, हरीश और किशोर दोनों ही एक ही कश्ती में सवार नजर आ रहे हैं। परिस्थितियां भी दोनों के सामने एक समान बनी हुई है। हालांकि किशोर उपाध्याय के पास आज भी संगठन की कमान है और हरीश रावत ने हालिया समय प्रदेश सरकार के फैसलों को लेकर मीडिया में बयानबाजी की है। जिससे एक बात तो साफ होने लगी है कि दोनों ही देहरादून को अपनी राजनैतिक कर्मभूमि बनाने की मंशा रखते हैं और कांग्रेस की मौजूदा राजनैतिक हालातों को देखते हुए ऐसा जरूरी भी माना जा रहा। कांग्रेस में नेता प्रतिपक्ष के चुनाव को लेकर क्या रस्साकसी चली, यह भी अब बीती बात हो गयी है। वहीं मौजूदा समय हरीश रावत और किशोर उपाध्याय दोनों ही के सामने अपने राजनैतिक वजूद को बचाए रखने की भी बड़ी चुनौती है। साल 2012 और 2017 में क्रमश: टिहरी और सहसपुर सीट से एक साथ दो चुनाव हारने के बाद क्या आलाकमान आगे किशोर उपाध्याय को पार्टी या संगठन में महति भूमिका देना चाहेगा, बड़ा सवाल है। इसी तरह पैरासूट के सहारे प्रदेश में सत्ता की कुर्सी संभालने वाले हरीश रावत का 2017 के चुनाव में किच्छा और हरिद्वार ग्रामीण सीट से हार जाना, पार्टी की किरकिरी के समान है।

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