!!हरेला:- प्रकृति पूजन का लोकपर्व!!

(कमल किशोर डुकलान ‘सरल’)
पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक हरेला पर्व भारतवर्ष में ही नहीं,अपितु उत्तराखंड सहित भारत में पर्यावरण को सुरक्षित रखने व प्रदूषण मुक्त भारत के संकल्प को देश और दुनिया में अपनी एक अनोखी छाप छोड़ चुका है।…..
उत्तराखण्ड की संस्कृति की समृद्धता के विस्तार का कहीं कोई अन्त नहीं है, हमारे पूर्वजों ने हजारों वर्ष पहले जो सामान्य जीवन में तीज-़ त्योहारों के जो नियम बनाये,उनमें उन्होंने तीज-त्योहारों का भरपूर उपयोग किया। उत्तराखंड का लोक पर्व हरेला मनुष्य के व्यवहारिकता विज्ञान को ही चरितार्थ करता है।
उत्तराखण्ड में मुख्यतः तीन ऋतुयें होती हैं- शीत,ग्रीष्म और वर्षा। वर्षा ऋतु की शुरुआत श्रावण (सावन) मास से होती है। हरेला पर्व हमें ऋतु परिवर्तन होने की सूचना देता है। भारत वर्ष कृषि प्रधान देश होने के कारण भारत में ऋतुओं के स्वागत करने की परम्परा रही है।
हरेला शब्द का सम्बन्ध हरियाली से है, उत्तराखंड का मुख्य कार्य कृषि आधारित होने के कारण इस पर्व का महत्व उत्तराखंड के लिये विशेष रूप से है। उत्तराखण्ड को देवभूमि के नाम से जाना जाता है। कैलाश पर्वत पर भगवान शिव का वास होने के कारण देवाधिदेव महादेव शिव की यहां विशेष अनुकम्पा भी है,जिस कारण यहां के लोगों में भगवान शिव के प्रति विशेष श्रद्धा और आदर का भाव बना रहता है। उत्तराखंड में श्रावण मास में इसलिए भी हरेले पर्व का इसका महत्व विशेष रूप से रहता है।
हरियाली का प्रतीक हरेला पर्व से हमें सृष्टि में उत्पन्न सभी जीवों के कल्याण के साथ प्रकृति संरक्षण की कामना निहित है। पेड़ लगाने और पर्यावरण संरक्षण रखने की एक सुंदर झलक देवभूमि उत्तराखंड की संस्कृति में ही हमें दिखने को मिलती हैं।पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन के लिए हरेला पर्व उत्तराखंडी लोक संस्कृति का प्राचीनकाल से ही अभिन्न हिस्सा रहा है। “रोपण से काटण” यानि बुवाई से लेकर कटाई तक हरेला पर्व यहां के लोगों में प्रकृति के बेहद नजदीक होने के कारण बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यहां के लोग प्रकृति को अपने तीज-त्योहार और संस्कृति में समाहित करने के कारण हरेला पर्व उत्तराखंड की लोक परम्परा से जुड़ा पर्व माना जाता है। मान्यता है कि हरेला पर्व जितना बड़ा होगा फसल भी उतनी अच्छी होगी। इसलिए हरेला पर्व को प्रकृति संरक्षण के साथ किसानों की सुख-समृद्धि से जोड़कर भी देखा जाता है।
वर्तमान समय में उत्तराखंड सहित देश के मैदानी क्षेत्रों में जिस तरह से पेड़ों का अंधाधुंध काटन जारी है ऐसे में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से आज भारत सहित विश्व चिंतित हैं। कोरोना संक्रमण काल में पेड़-पौधे न होने एवं वायु प्रदूषण बढ़ने से पर्यावरण में अनेकों हानिकारक विशैली गैसों ने प्रदूषण को अवशोषित करने की क्षमता को कम किया था जिस कारण कोविड बचाव में एकान्तवास एवं सामाजिक दूरी का पालन कारगर सिद्ध हुआ था। देश के मैदानी क्षेत्रों में जिस तरह से पेड़ों का काटन से जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के असर को रोकने के लिए पिछले कुछ वर्षों से सरकारी अथवा सामाजिक स्तर पर पर्यावरण संरक्षण हेतु जन-जागरण के संदेशों तहत सभी जरूरी प्रयास तलाशे जा रहें हैं। ये प्रयास प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के बिना सम्भव नहीं हो सकते हैं। इसलिए अगर हरेला पर्व के संदेश पर बारीकी अध्ययन करें तो पर्यावरण शुद्धता से सम्बन्धित सारी समस्याओं का हल वृहद वृक्षारोपण में ही मिलता है। उत्तराखंड का लोकपर्व हरेला हमें भारत सहित पूरी दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ लड़ने का संदेश भी देता है।
पेड़-पौधे परिवेशीय कार्बन डाइऑक्साइड लेने के अलावा सल्फर डाइऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड सहित अनेक हानिकारक गैसों को अवशोषित करते हैं और हमारे वातावरण से प्रदूषित गैसों को फिल्टर करते हैं जिससे हमें ताज़ी और साफ़-सुथरी हवा सांस लेने में सहायक होती है। वाहनों एवं कारखानों द्वारा उत्सर्जित धुएं से उत्पन्न वायु प्रदूषण की बढ़ती मात्रा अधिकाधिक वृक्षारोपण से ही नियंत्रित की जा सकती है।पेड़-पौधे हमारे वातावरण को नियंत्रित कर पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए अति महत्वपूर्ण हैं परन्तु हम अपनी आवश्यकताओं के लिए इनको क्रूरता से काटते हैं और इन्हें नुकसान पहुंचाते हैं। इनकी क्षतिपूर्ति करने के लिए वृक्षारोपण आवश्यक है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उत्तराखंड के पूर्व प्रांत प्रचारक पर्यावरण प्रेमी,मां भारती की सेवा में अपने को समर्पित किए हुए डाक्टर हरीश रौतेला जी ने देवभूमि उत्तराखंड में प्रांत प्रचारक रहते हुए पर्यावरण संरक्षण के महापर्व हरेला को उत्तराखंड में ही नहीं अपितु भारतवर्ष के प्रत्येक घर परिवार,खेत खलिहान,स्कूल,कॉलेज और अस्पताल सहित सभी संस्थानों में एक पौधा अपने व अपने परिवार के स्वस्थ सुखी जीवन जीने के आधार का संकल्प लिया था। पर्यावरणविद प्रकृति प्रेमी डाक्टर हरीश रौतेला जो कि वर्तमान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ब्रज प्रांत के प्रांत प्रचारक हैं उनके संकल्प के फलस्वरूप पर्यावरण व प्रकृति की रक्षा के लिए मनाया जाने वाला उत्तराखंडी लोक संस्कृति का लोकपर्व हरेला आज भारतवर्ष में ही नहीं,अपितु देश के हर राज्य में पर्यावरण शुद्धि के लिए हरेला कुंभ महोत्सव के रूप में एक नई पहचान मिली है।
व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए पेड़-पौधों का होना नितांत आवश्यक हैं। ऐसा स्थान जहां कोई पेड़ नहीं है वहां की हवा में ही दुख झलकता है जबकि एक अच्छी संख्या में वृक्षों से घिरा हुआ स्थान स्वचालित रूप से जीवंत और रहने लायक दिखता है। पेड़ न केवल हमें शारीरिक रूप से स्वस्थ रखते हैं,बल्कि हमारे बौद्धिक विकास में भी सहायक होते हैं। पेड़-पौधों का हमारे मस्तिष्क पर शांत प्रभाव पड़ता है। दिमागी शांति धैर्य रखने की कुंजी है। जो शांत है वहीं बेहतर है और उसी में बेहतर निर्णय लेने की क्षमता है,वहीं विभिन्न परिस्थितियों में स्वस्थ मन,बुद्धि से काम भी कर सकता है।
पर्यावरण संरक्षण हमें अवसर देता है,सुंदर प्रकृति को नजदीक से जानने का जिस प्रकृति में हम पलकर बढ़े हुए हैं। हरेला पर्व ने हमें अवसर दिया है बृहद वृक्षारोपण कर प्रकृति के ऋण से उऋण होने का। पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रत्येक देशवासी का यह संकल्प होना चाहिए कि वह प्रतिवर्ष एक पेड़ लगाकर उसकी देखभाल अवश्य करें। साथ ही चाल,खाल या अन्य तरीकों से एक-एक बूंद पानी का हमारा प्रयास होना चाहिए। हमारे आज के प्रयास हमारी कल की पीढ़ियों के लिए वरदान साबित होंगे।
-रुड़की,हरिद्वार (उत्तराखंड)