TEMPLES

हाटकोटी की माँ हाटेश्वरी देवी

  • शिमला-रोहड़ू मार्ग पर स्थित है यह प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर

अजय पुरी 

हिमाचल प्रदेश में जितने भी प्राचीन मन्दिर है, उनमे से अधिकतर का निर्माण महाभारत काल खण्ड के दौरान ही हुआ है l  और ये निर्माण पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास के समय में किये है l  ऐसा ही एक और मन्दिर है, माता हाटेश्वरी देवी का l  माता के नाम पर ही इस स्थान का नामकरण हाटकोटी प्रसिद्ध है। माता हाटेश्वरी का मूल स्थान ऊपर पहाड़ों में घने जंगल के मध्य खरशाली नामक जगह पर है । उत्तरकाशी से लगभग 200 किलोमीटर दूर 1370 मीटर की ऊंचाई पर शिमला-रोहड़ू मार्ग के तहसील जुब्बल कोटखाई में पब्बर नदी के दाहिने किनारे पर माता हाटकोटी का यह प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर अवस्थित है।

जिसमें वास्तुकला, शिल्पकला के उत्कृष्ठ नमूनों के साक्षात दर्शन होते हैं। कहते हैं कि यह मंदिर 10वीं शताब्दी के आस-पास बना है। इसमें महिषासुरमर्दिनी की ऊंची कांस्य की भव्य प्रतिमा है। इसके साथ ही शिव मंदिर है जहां पत्थर पर बना प्राचीन शिवलिंग है। द्वार को कलात्मक पत्थरों से सुसज्जित किया गया है। छत लकड़ी से र्निमित है, जिस पर देवी देवताओं की अनुकृतियों बनाई गई हैं। मंदिर के गर्भगृह में लक्ष्मी, विष्णु, दुर्गा, गणेश आदि की प्रतिमाएं हैं। इसके अतिरिक्त यहां मंदिर के प्रांगण में देवताओं की छोटी-छोटी मूर्तियां हैं। बताया जाता है कि इनका निर्माण पांडवों ने करवाया था।
मान्यता है कि हाटेश्वरी माता समस्त दुखों का निवारण करने वाली है। माता रोग शोक का नाश करती है। इसी मान्यता से लोग दरबार में पहुंचते हैं और समस्त रोग शोक से मुक्ति पाते हैं।

मंदिर के साथ लगते सुनपुर के टीले पर कभी विराट नगरी थी जहां पर पांडवों ने अपने गुप्त वास के कई वर्ष व्यतीत किए। माता हाटेश्वरी का मंदिर विशकुल्टी, राईनाला और पब्बर नदी के संगम पर सोनपुरी पहाड़ी पर स्थित है मूलरूप से यह मंदिर शिखराकार नागर शैली में बना हुआ था बाद में इसकी मरम्मत कर इसे पहाड़ी शैली के रूप में परिवर्तित कर दिया। मंदिर के दक्षिण पश्चिम में चार छोटे शिखर शैली के मंदिर हैं। यह मुख्य अर्धनारिश्वरी मंदिर के अंग माने जाते हैं। मां हाटकोटी के मंदिर में एक गर्भगृह है जिसमें माँ महिषासुर मर्दिनी की विशाल मूर्ति विद्यमान है ।

मंदिर के प्रवेश द्वार पर बाई ओर एक तांबे का कलश लोहे की जंजीर से बंधा है जिसे स्थानीय भाषा में चरू कहा जाता है। चरू के गले में लोहे की जंजीर बंधी है। यहां की मान्यता है कि वर्षाकाल में जब पब्बर नदी अत्यधिक बाढ़ से ग्रसित होती है तब हाटेश्वरी मां का यह चरू सीटियां मारता है और भागने का प्रयास करता है। मंदिर के दूसरी ओर बंधा चरू नदी के वेग से भाग गया था, जबकि पहले को मंदिर पुजारी ने पकड़ लिया था चरू पहाड़ी मंदिरों में कई जगह देखने को मिलते हैं। इनमें यज्ञ में ब्रह्म भोज के लिए बनाया गया हलवा रखा जाता है।

स्थानीय जनश्रुति अनुसार इस देवी के संबंध में मान्यता है कि बहुत वर्षो पहले एक ब्राह्माण परिवार में दो सगी बहनें थीं उन्होंने अल्प आयु में ही सन्यास ले लिया और घर से भ्रमण के लिए निकल पड़ी उन्होंने संकल्प लिया कि वे गांव-गांव जाकर लोगों के दुख दर्द सुनेंगी और उसके निवारण के लिए उपाय बताएंगी। दूसरी बहन हाटकोटी गांव पहुंची जहां मंदिर स्थित है उसने यहां एक खेत में आसन लगाकर ईश्वरीय ध्यान किया और ध्यान करते हुए वह लुप्त हो गई। जिस स्थान पर वह बैठी थी वहां एक पत्थर की प्रतिमा निकल पड़ी। इस आलौकिक चमत्कार से लोगों की उस कन्या के प्रति श्रद्धा बढ़ी और उन्होंने इस घटना की पूरी जानकारी तत्कालीन जुब्बल रियासत के राजा को दी। जब राजा ने इस घटना को सुना तो वह तत्काल पैदल चलकर यहां पहुंचा और इच्छा प्रकट की कि वह प्रतिमा के चरणों में सोना चढ़ाएगा जैसे ही सोने के लिए प्रतिमा के आगे कुछ खुदाई की तो वह दूध से भर गया। उसके उपरांत खोदने पर और राजा ने यहां पर मंदिर बनाने का निश्चय ले लिया। लोगों ने उस कन्या को देवी रूप माना और गांव के नाम से इसे ‘हाटेश्वरी देवी’ कहा जाने लगा।

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