राजनेताओं को तो गलती करने का लाइसेंस ही जनता ने पकड़ा रखा है!
‘बुबौ बिगाड्यूं नौं अर पटवर्यु बिगाड्यूं गौं कभी ठीक नि ह्वै सकदा’
रमेश ”पहाड़ी”
देहरादून में अवैध निर्माण व झुग्गी-झोपड़ियों से हुए अतिक्रमण को ध्वस्त करने के हाईकोर्ट के आदेश से हो रहे ध्वस्तीकरण को रोकने के लिए उत्तराखंड सरकार अध्यादेश ला रही है। इस पर कोहराम और हल्ला मचा हुआ है। अवैध निर्माण को नष्ट कर सरकारी भूमि को मुक्त करने के इस अदालती आदेश को रोकने की सरकारी मंशा पर सवाल उठने लाजिमी हैं। सरकारों के निकम्मेपन के कारण सड़कों, नदी-नालों, सरकारी संपत्तियों पर धड़ल्ले से कब्जे हो रहे हैं, जिस पर सरकार को फटकार लगनी चाहिए थी, उन अधिकारियों को दंडित किया जाना चाहिए, नौकरियों से निकाल बाहर करना चाहिए था, जवाबदेही तय होनी चाहिए थी। इसके उलट त्रिवेंद्र सरकार इन गलतियों को दुरुस्त करने की बजाय हाईकोर्ट को ही आइना दिखाते हुए, अध्यादेश लेकर उसके आदेश को ठंडे बस्ते में डाल रही है तो यह उत्तराखंड के लोगों की भी गलती है। राजनेताओं को तो गलती करने का लाइसेंस ही जनता ने पकड़ा रखा है! इसलिए ऐसे निर्णय होते रहेंगे।
इसका दूसरा पक्ष यह है कि भूमि के अतिक्रमण को रोकने के सरकारी कानून और सरकारी अफसरों की जिम्मेदारी तय करने के नियम बहुत हल्के और कमजोर हैं। भूमि पर अतिक्रमण का चालान हो जाये तो समझा जाता था कि अब वह पक्के तौर पर अतिक्रमणकारी की हो गई है। इसलिए राजस्व विभाग को सबसे ज्यादा शक्तिशाली माना जाता है। कुछ वर्षों पहले तक इस संदर्भ में एक गढ़वाली कहावत काफी चर्चित थी- ‘बुबौ बिगाड्यूं नौं अर पटवर्यु बिगाड्यूं गौं कभी ठीक नि ह्वै सकदा’। पटवारी को खुश करने वालों की पौबारह रहती थी। अब बहुत से विभागों के कब्जे में जमीन है तो वे उसकी रक्षा के न स्वयं मालिक हैं और न उसकी पैरवी करने की चिंता करते हैं। जमीन का काम राजस्व विभाग का है तो उसकी मर्जी है कि वह करे, न करे! इसलिए भी हजारों मामले लटके पड़े रहते हैं। ‘अंधे की जोरू का राम रखवाला’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए सरकारी जमीनों के वारे-न्यारे इसीलिए हो जाते हैं कि उसका कोई एक मालिक नहीं है। साझी संपत्ति सबकी या किसी की भी नहीं कि उक्ति को चरितार्थ करते हुए यहाँ सब चल रहा है और नोट व वोट के लिए कुछ भी करने के लिए कुछ लोग हमेशा तैयार बैठे हैं। इसे वोट की नीयत से किया गया फैसला भी इसीलिए कहा जा रहा है। वोट से कुर्सी मिल जाय, इस कारण राज्य की चिंता गौण है!
इसका तीसरा पक्ष यह है कि सड़कों पर तो कोठी-बंगले वालों ने अतिक्रमण किया जो अत्यधिक लोभ और अराजकता का कारण है लेकिन नदी-नालों पर झुग्गी-झोपड़ियां बनाकर रहने को मजबूर लोग कौन हैं? ये पलायन करके शहरों-बाजारों में पहुंचे लोग हैं और इनमें ज्यादातर लोग कामकाजी लोग हैं। इनमें भी अधिसंख्य लोग उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, नेपाल से बताये जा रहे हैं, जो उत्तराखंड में रोजगार की सहज उपलब्धता के कारण यहाँ आते हैं। उनको रोजगार के साथ बसने की व्यवस्था छुटभैये नेता करते हैं और कुछ का तो धंधा ही यह बना हुआ है। सच्चाई यह भी है कि यदि ये लोग यहाँ नही रहेंगे तो मजदूर, मिस्त्री, घरों में काम करने वाली बाई या भुला, राशन व सब्जी की बोरी उठाने वाले कुली और इसी प्रकार के तमाम छोटे-मोटे काम होंगे कैसे? आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि उत्तराखंड में भारी बेरोजगारी है। नौकरियों के लिए सेवायोजन कार्यालयों की बढ़ती भीड़ और युवा-शून्य गाँव इसके गवाह हैं।
अब सवाल यह है कि जब उत्तराखंड में रोजगार की भारी कमी सबसे बड़ी समस्या है तो हमारी सरकारों व सामाजिक संगठनों ने इस तथ्य की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया कि हमारे पास जिस ढंग के काम हैं और जिनके लिए दूसरे प्रदेशों से बड़ी संख्या में लोग यहाँ पहुँच कर रोजगार पा रहे हैं, उन कामों के लिए श्रम-शक्ति हम यहीं तैयार करें? क्या यह हमारे नियोजन-तंत्र की असफलता नहीं है कि उत्कृष्ट निर्माण-शिल्प के धनी हमारे राज-मिस्त्रियों को आधुनिक भवन निर्माण में प्रशिक्षित कर उन्हें यहाँ रोजगार की अपार संभावनाओं से नहीं जोड़ा गया? घरेलू सेवाओं में उच्च कोटि का प्रशिक्षण देकर तथा उनका समुचित नियमन कर हम रोजगार के असंख्य अवसरों से अपने बेरोजगारों को परिचित क्यों नहीं कराया जाता? खेती, बागवानी, पशुपालन, गृह उद्यम जैसी अपार संभावनाओं को अपने बेरोजगारों तक क्यों नहीं पहुंचाया जा रहा? पहाड़ के बंजर पड़े खेतों को सामुदायिक खेती, कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग जैसी संभावनाओं से आगे बढ़ाकर रोजगार के बेहतर विकल्प बेरोजगारों को उपलब्ध कराने के बारे में कुछ कम क्यों नहीं किया जा रहा है? इन बंजर जमीनों पर भी तो देर-सबेर बाहर वाले ही आकर बसने वाले हैं। इस पर कब सोचा जाएगा?