UTTARAKHAND

!!गुरु व्यक्तित्व की समग्रता का आधार…!! (कमल किशोर डुकलान ‘सरल’)

गुरु पूर्णिमा पर्व पर मनुष्य से लेकर समाज,प्रकृति और परमेश्वर के बीच में जिस शक्ति का सम्बंध है अगर उस शक्ति रुपी सम्बंध को जिनके चरणों में बैठकर समझने का प्रयास किया जाए वास्तव में वही गुरु है।……

गुरु शब्द का शाब्दिक अर्थ है तेज अज्ञान का नाश करने वाला तेज रूप ब्रह्म गुरु ही है, इसमें संशय नहीं। उपनिषदों के व्याख्याता आदिगुरु महर्षि वेदव्यास जी उपनिषदों में गुरु गरिमा का वर्णन करते हुए लिखा है कि अज्ञान का मुक्ति प्रदाता,सन्मार्ग एवं श्रेय पथ की ओर ले जाने वाला पथ-प्रदर्शक गुरु ही ब्रह्मा,विष्णु और महेश्वर ही परब्रह्म है। गुरुकृपा के अभाव में साधना की सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी।
योग विज्ञान के जनक भगवान शिव ने भी सप्त ऋषियों को योग दीक्षा देते समय उन्हें आत्मबल संपन्न बनाया। आत्मबल सम्पन्न बनाने के लिए ही गुरु का वरन किया जाता है। मानव असीम सामर्थ्यों से युक्त है। अनन्त संभावनाओं में आत्मबोध के बिना शक्ति संपन्नता का लाभ मनुष्य को नहीं मिल पाता। आत्मबल के द्वारा ही गुरु अपने शिष्यों में ऐसी प्रेरणाएं भरने का काम करते हैं जिससे वह सद्मार्ग पर चल सके।

साधना मार्ग के अवरोधों एवं विक्षोभों के निवारण में गुरु का असाधारण योगदान होता है। वे शिष्य को अंत:शक्ति से परिचित ही नहीं कराते, वरन उसे जाग्रत एवं विकसित करने के हरसंभव उपाय बताने का प्रयास भी करते हैं। उनका यह अनुदान शिष्य अपनी आंतरिक श्रद्धा के रूप में उठाता है। जिस शिष्य में आदर्शों एवं सिद्धांतों के प्रति जितनी अधिक निष्ठा होगी, वह गुरु के अनुदानों से उतना ही अधिक लाभान्वित होगा। भारत की प्राचीन शिक्षा का आधार यहां की सांस्कृतिक परंपरा एवं विश्व इतिहास तथा आध्यात्मिकता पर आधारित था। प्राचीन शिक्षा मुक्ति एवं आत्मबोध के साधन के रूप में थी। जो शिक्षा व्यक्ति के लिए नहीं, वरन धर्म के लिए भी थी।
प्रख्यात शिक्षाविद एजे टोयनबी का कथन ‘सीखो अथवा नष्ट हो जाओ’ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में और अधिक प्रासंगिक हो जाता है,जब तेजगति के विकास और प्रतिस्पर्धा के युग में मनुष्य वर्तमान चुनौतियों और मांग के संदर्भ में स्वयं को सूचनायुक्त, सजग और दक्ष नहीं बना पाता ऐसे समय में वह विकास की मुख्य धारा से वंचित हो जाता है।

प्राचीन शिक्षा में हमारी सांस्कृतिक परंपराएं एवं विश्व इतिहास तथा आध्यात्मिकता को जीवित रखने के लिए गुरु का ज्ञान ही सक्षम है। वहीं गुरु शिष्य में निरंतर सीखते रहने की जिज्ञासा और प्रवृत्ति को जगाता है,जो मानव की प्रगति और अस्तित्व के लिए अपरिहार्य माना जाता है। गुरु मनुष्य में निरंतर सीखने और जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के साथ मनुष्य में स्वतंत्र रूप से चिंतन करने और निर्णय लेने के योग्य बनाता है।

विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के ध्येय वाक्य में लिखा है ‘सा विद्या या विमुक्तये।’ जो शिक्षा मनुष्य के ज्ञान, अभिवृत्ति और व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन करती है और उसको समाजोपयोगी अंतरदृष्टि प्रदान कर लक्ष्य के प्रति क्रियाशील बनाए रखती है वास्तव में वही शिक्षा है। महर्षि अरविंद कहते हैं कि सद्ज्ञान भगवान की प्रतिमूर्ति है और जब किसी को भी पथप्रदर्शक के रूप में स्वीकार किया जाता है तब उन्हें गुरु रूप में स्वीकार किया जाता है। श्रद्धा-विश्वास की प्रगाढ़ता ही मनुष्य का सही पथ-प्रदर्शन करती और पूर्णता के लक्ष्य तक पहुंचाती है। गुरु ही शिष्यों में सुसंस्कार डालता और आत्मोन्नति के पथ पर अग्रसर करता है। उनके चरित्र और समग्र व्यक्तित्व का निर्माण करता है। शिक्षाविद डॉ.एस.राधाकृष्णन ने लिखा है कि- शिक्षा जीवनपर्यंत चलने वाली एक सतत् प्रक्रिया है इस प्रक्रिया का मूलाधार गुरु है। किसी भी राष्ट्र का विकास तब तक असम्भव है जब तक शिक्षा के द्वारा मनुष्य और समाज का कल्याण। निहित न हो चाहे वह राष्ट्र कितने ही प्राकृतिक संसाधनों से आच्छादित क्यों न हो।

वर्तमान बदलते परिवेश में परिवर्तन की धारा ने हमारी प्राचीन भारतीय शिक्षा,सांस्कृतिक परंपराओं एवं विश्व इतिहास तथा आध्यात्मिकता को विशेष रूप से प्रभावित किया है। जहां एक ओर पश्चिमी सभ्यता और शिक्षा में बढ़ते अंग्रेजी के प्रचलन ने मानवीय संबंधों में बदलाव लाया है, वहीं विज्ञान के बढ़ते चरण ने शिक्षा की दशा व दिशा दोनों को ही परिवर्तित किए हैं। वैज्ञानिक आविष्कारों से प्रत्येक क्षेत्र में युगांतकारी परिवर्तन हुए हैं। मनुष्य ने तकनीकी उन्नति के माध्यम से स्वयं का जीवन उन्नत किया है। यह सभी गुरु के कारण संभव हुआ है, क्योंकि गुरु एवं शिक्षकों ने राष्ट्र के नागरिकों को समुचित शिक्षा प्रदान की है जिससे तात्कालिक समस्याओं को प्राथमिकता देते हुए मानवीय उद्देश्यों के प्रति सरकार एवं नागरिक प्रतिबद्ध हैं। चरित्र की उत्कृष्टता एवं व्यक्तित्व की समग्रता ही गुरु अनुग्रह की वास्तविक उपलब्धि है। यह जिस भी साधक में जितनी अधिक मात्रा में दिख पड़े, समझा जाना चाहिए गुरु की उतनी ही अधिक कृपा बरसी,अनुदान-वरदान मिला। स्पष्ट है कि मानव जीवन के सर्वांगीण विकास हेतु गुरु तत्व कितना जरूरी है।
गुरु-शिष्य परंपरा का वर्तमान रूप जैसा बन गया है, उसे न तो वांछनीय कहा जा सकता है और न ही उचित। इस रूढ़िगत परंपरा के कारण आत्मिक प्रगति का मार्ग अवरुद्ध ही हुआ है। शास्त्रकारों ने जिस गुरु तत्व की महिमा का वर्णन किया है, उसका प्रचलित बिडंबना के साथ कहीं कोई तालमेल नहीं बैठता। आध्यात्मिक समर्पण तभी संभव हो पाता है, जब गुरु को सब भावों परात्पर,निर्व्यक्तिक,सव्यक्तिक में स्वीकार किया जाए। गुरु-शिष्य का गठबंधन वह श्रेष्ठतम गठबंधन है जिसके द्वारा मनुष्य भगवान से जुड़ता और संबंध स्थापित करता है। गुरु या भगवत्कृपा दोनों एक ही हैं और ये तभी चिरस्थायी बनती हैं, जब शिष्य कृपा-प्राप्ति की स्थिति में हो। श्रद्धासिक्त समर्पण ही इसका मूल है।

स्वाध्याय एवं सत्संग से मनुष्य ऋषि ऋण से गुरु ऋण से मुक्त हो सकता है। साहित्य के कुछ पृष्ठ नित्य पढ़ने का संकल्प लेकर गुरु चरणों में सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की जा सकती है। अब समय आ गया है कि पुष्प,फल,भोजन दक्षिण आदि से ही गुरु पूजन पर्याप्त न माना जाए, वरन जन-जन को अपना जीवन निर्माण करने के लिए गुरु के उपयोगी वचनों को हृदयंगम करने और उन्हें कार्यरूप में परिणित करने का प्रयत्न किया जाए। गुरु पूर्णिमा के पर्व पर यदि एक बुराई छोड़ने और एक अच्छाई ग्रहण करने की परंपरा पुन: आरंभ की जाए तो जीवन के अंत तक इस क्रम पर चलने वाला मनुष्य पूर्णता और पवित्रता का अधिकारी बनकर मानव जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
-रुड़की हरिद्वार (उत्तराखंड)

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