योगेश भट्ट
देश के न्यायिक इतिहास में यह पहली बार है जब इंसान से इतर किसी को इंसानी दर्जा दिया गया है। नैनीताल उच्च न्यायालय ने बीते रोज गंगा, यमुना और उनकी सहायक नदियों को जीवित व्यक्ति का दर्जा देने का आदेश दिया है। जाहिर है, इन नदियों को जीवित व्यक्ति का दर्जा देने का फैसला इनके वजूद को बचाने के मकसद से ही दिया गया होगा।
इस फैसले से साफ है कि इन नदियों के जीवन के लिए खतरा पैदा करने वालों के खिलाफ उसी तरह की दंडात्मक कार्रवाई हो सकती है, जिस तरह किसी व्यक्ति के जीवन को खतरा पहुंचाने के अपराध में की जाती है। इस लिहाज से देखें तो न्यायालय का यह फैसला बहुत साहसभरा और ऐतिहासिक है। इस फैसले से यह तो साफ हो गया है कि गंगा को लेकर सरकारें ही नहीं बल्कि न्यायपालिका भी संजीदा है।
लेकिन सवाल यह है कि क्या केवल सरकारी योजनाओं और न्यायपालिका के फैसलों से ही नदियों का संरक्षण संभव है? बीते तीन दशक से गंगा को लेकर खूब चिंता की जा रही है। चिंता इसलिए भी है क्योंकि देश की तकरीबन एक चौथाई कृषि भूमि सिंचाई के लिए गंगा पर ही निर्भर है। देश की तकरीबन चालीस फीसदी आबादी के लिए गंगा ‘लाइफ लाइन’ है। बीते तीन दशक में हजारों करोड़ रुपये की योजनाएं गंगा और यमुना के नाम पर मंजूर हुईं और संचालित की गई हैं, लेकिन नतीजा अभी तक सिफर से आगे नहीं बढ पाया।
गंगा और यमुना दोनों नदियों का अस्तित्व आज खतरे में है। गंगा की बात करें तो तकरीबन सात हजार एमएलडी से अधिक सीवेज रोजाना इसमें गिर रहा है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जीवनदायिनी गंगा किस कदर मरणासन्न अवस्था में है। यमुना की स्थिति तो गंगा से भी बदतर है। तेरह सौ कीलोमीटर लंबी यमुना को धार्मिक शास्त्रों में ‘मृत्यु का भय दूर करने वाली नदी’ कहा गया है। लेकिन असलियत यह है कि इसका खुद का वजूद भारी संकट में है।
देश की राजधानी दिल्ली, जहां संसद और सुप्रीमकोर्ट हैं, में ही यमुना सबसे ज्यादा प्रदूषित है। दिल्ली में किसी बाहरी व्यक्ति के लिए यह अंतर कर पाना मुश्किल है कि सामने दिख रहा काला पानी यमुना है या कोई नाला। बहरहाल नैनीताल हाईकोर्ट के आदेश के बाद इन नदियों के भविष्य को लेकर एक आस तो जगी है, मगर साथ ही यह सवाल भी है कि जिन लोगों के लिए ये नदियां जीवनदायिनी हैं, उनकी जागरुकता और मजबूत इच्छाशक्ति के बिना क्या इनका पुनर्जीवन संभव है?
नैनीताल उच्च न्यायालय ने गंगा-यमुना को जीवित नदी का दर्जा देने का फैसला, दरअसल न्यूजीलेंड की वांगानुई नदीं को मिले इंसानी दर्जे के फैसले की तर्ज पर सुनाया है। वांगानुई नदी न्यूजीलैंड के उत्तरी द्वीप पर स्थित नदी है, जिसेसे वहां रहने वाली माओरी जनजातियों की आस्था जुड़ी है, ठीक उसी तरह, जैसे गंगा और यमुना के साथ भारतीय समाज की। न्यूजीलेंड की संसद ने बाकायदा बिल पास कर वांगानुई नदी का पक्ष रखने के लिए प्रतिनिधियों की नियुक्ति भी की है।
हालांकि प्रतिनिधि तो यहां भी नियुक्त किए गए हैं, लेकिन वे सरकार के ही कारिंदे हैं। वही सरकारी कारिंदे, जो सालों से तमाम योजनाओं को अंजाम देते आ रहे हैं। हकीकत यह है कि बिना सामाजिक जागरुकता और सामूहिक भागीदारी के इन नदियों का पुनर्जीवन संभव नहीं है। ऐसा नहीं है कि इन नदियों की सफाई का काम असंभव है। अत्याधुनिक तकनीक के इस दौर में तमाम देशों ने दूषित हो चली नदियों की तस्वीर बदलने के उदाहरण दुनिया के सामने रखे हैं। ऐसा यहां भी संभव है। बस, सरकारी योजनाओं और बजट से ज्यादा समर्पण और मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत है।