मानव एवं प्रकृति के पारस्परिक संबंधों का ऋतु पर्व फूलदेई
Flower festival of mutual relations between man and nature
कमल किशोर डुकलान ‘सरल’: फूलदेई लोकपर्व प्रकृति से जुड़ा सामाजिक,सांस्कृतिक, एवं लोक-पारंपरिक त्योहार की एक अनूठी उत्तराखण्डी संस्कृति की त्रिवेणी है। यह पर्व मानव एवं प्रकृति के पारस्परिक संबंधों का ऋतु पर्व है।…..
उत्तराखंड में ऋतुओं के अनुसार अनेको लोक पर्व मनाए जाते रहे हैं। ये पर्व जहाँ हमारी संस्कृति को संजोये हुए है वहीं उत्तराखण्ड की धार्मिक परंपराओं को भी जीवित रखे हुए हैं। इन्हीं खास पर्वो में शामिल लोकपर्व है ”फूलदेई पर्व” उत्तराखंड में इस त्योहार की काफी मान्यता है इस त्योहार को फूल सक्रांति के नाम से भी कहा जाता है।
लोकपर्व फूलदेई का मानव और प्रकृति से सीधा संबंध है। इस समय चारों ओर हरियाली और नए-नए प्रकार के खिले फूल प्रकृति की खूबसूरती पर चार-चांद लगा देते हैं।
हिंदू पंचांग के अनुसार चैत्र महीने से ही भारतीय नव वर्ष प्रारंभ होता है और नववर्ष के स्वागत के लिए खेतों में सरसों के फूल खिलने लगते हैं पेड़ों में फूल की कोंपलें फूटने लगती हैं। उत्तराखंड में चैत्र मास की संक्रांति अर्थात पहले दिन से ही बसंत आगमन की खुशी में फूलों का त्योहार “फूलदेई” पर्व मनाया जाता है ,जो कि ऋतुराज बसन्त ऋतु के स्वागत का प्रतीक है। चैत्र के महीने में उत्तराखंड के जंगलों में कई प्रकार के फूल खिले होते हैं,ये फूल इतने मनमोहक व सुन्दर होते हैं कि जिनका वर्णन यहाँ शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है।
हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद जी ने बसंत आगमन पर ‘कामायनी’ में लिखा है:-
“कौन हो तुम बसंत के दूत,
विरस पतझड़ में अति सुकुमार।
घन तिमिर में चपल की रेख,
तपन में शीतल मंद बयार।
जयशंकर प्रसाद जी द्वारा कामायनी में लिखी उक्त पंक्तियाँ उत्तराखंड के लोकपर्व ‘फूलदेई’ पर्व पर सटीक व्याख्या करती हैं।देवभूमि उत्तराखंड विभिन्न संस्कृतियों को समेटे एक विशाल सभ्यता का नाम है। कई तरह की जाति और जनजातियों के मिश्रण से बना यह राज्य उत्तराखंड अपने नैसर्गिक रूप में ही नहीं बल्कि अपने त्यौहारों के माध्यम से भी अपनी सुन्दर सांस्कृतिक धरोहरों को त्योहारों के रुप में आज भी बयाँ करता है।
उत्तराखंड में हिन्दू मास की प्रत्येक संक्रान्ति को एक विशेष त्यौहार के साथ मनाया जाता है जो चैत्र माह की विशेषता से जुड़ा पर्व है। फसल को बोने से लेकर काटने तक,स्थानीय ग्राम्य देवताओं की पूजा एवं विवाहिता महिलाओं के मायके से आने से लेकर जाने पर अलग-अलग त्यौहारों का उत्तराखंड में खूब प्रचलन है।
फूलदेई पर्व में गांव में नन्हे-मुन्ने बच्चे प्रातः सूर्योदय के साथ-साथ घर-घर की देहलीज पर रंग बिरंगे फूल को अर्पित करते हुए घर की खुशहाली,सुख-शांति और समृद्धि की कामना के गीत गाते हैं अर्थात जिसका यह आशय है कि हमारा समाज फूलों के साथ नए साल की शुरूआत करें। इसके लिए बच्चों को परिवार के लोग गुड़,चावल व पैसे देते हैं । ज्योतिषियों के मुताबिक यह पर्व पर्वतीय परंपरा में बेटियों की पूजा करना समृद्धि का प्रतीक होने के साथ ही “रोग निवारक औषधि संरक्षण”दिवस के रूप में भी मनाया जाता है।
फूलदेई पर्व के दिन एक मुख्य प्रकार का व्यंजन बनाया जाता है जिसे “सयेई” कहा जाता है। फूलदेई का यह पर्व पूरे चैत्र मास तक चलता है,इस चैत्र मास में बच्चे रोज फ्योंली,बुरांस और दूसरे स्थानीय रंग बिरंगे फूलों को चुनकर लाते हैं और उनसे सजी फूलकंडी लेकर घोघा माता की डोली के साथ घर-घर की देहलीजों पर जाकर फूल डालते हैं,भेंट स्वरूप लोग इन बच्चों की थाली में पैसे,चावल,गुड़ इत्यादि चढ़ाते हैं।
घोघा माता को “फूलों की देवी” माना जाता है । फूलों के इस देव को बच्चे ही पूजते हैं। अंतिम दिन बच्चे घोघा माता की बड़ी पूजा करते हैं। फूलदेई लोकपर्व पूरे चैत्र मास में मनाया जाता है। इस अवधि के दौरान इकठ्ठे हुए चावल,दाल और भेंट राशि से सामूहिक भोज पकाया जाता है। इस दिन से लोकगीतों के गायन का अंदाज भी बदल जाता है , होली के त्यौहार की खुमारी में डूबे लोग इस दिन से ऋतुरैंण और चैती गायन में डूबने लगते हैं।
उत्तराखण्ड का लोकवाद्य ढोल-दमाऊ बजाने कलाकार जिन्हें बाजगी,औजी या ढोली कहा जाता है,वे भी इस दिन गांव के हर घर के आंगन में जाकर चैती गीतों गायन करते हैं,जिसके फलस्वरुप उन्हें घर के मुखिया द्वारा चावल,आटा या अन्य कोई अनाज और दक्षिणा देकर विदा किया जाता है। फूलदेई लोकपर्व से प्रकृति ने अपना श्रृंगार करना शुरू किया। इस पर्व में श्रृष्टि ने हमें कोमलता सिखाई है। यह कहा जा सकता है कि अबोध देवतुल्य बचपन ही हमें जीने का मूल मंत्र देता है।
दुर्भाग्य से पृथक पर्वतीय उत्तराखंड वासियों की शिक्षा और रोजगार के लिए पहाड़ों से दूर जाना मजबूरी बन चुकी है,जिसका नतीजा यह है कि अब पहाड़ धीरे-धीरे खाली होते जा रहे हैं। यहाँ के घर-गाँवों में सदियों से मनाए जाने वाले खुशियों और नव वर्ष के इस फूलदेई पर्व को भी पलायन ने अपनी चपेट में ले लिया है। पहाड़ के कई गाँवो में अब इस त्यौहार को मनाने के लिए बच्चे ही नहीं हैं क्योंकि इन गाँवो में केवल कुछ बुजुर्ग ही बाकी रह गए हैं, जो बस खंडहरों के प्रहरी की तरह अपने घरों की रखवाली करते नजर आते हैं।
उम्मीद है कि यह सभ्यता सोशल मीडिया तक सिमटने से पहले एक बार फिर जरूर गुलज़ार होगी। बसंत का यह त्यौहार उत्साह और उम्मीद का प्रतीक है, शायद पहाड़ अपने बसंत के दूतों की चहचहाहट से फिर जरूर महकेगा।
वासुदेव लाल मैथिल सरस्वती विद्या मंदिर इंटर, कालेज,रूड़की हरिद्वार