LITERATURE

कभी प्रेम साहिल को भी पढिए

कुछ बचा ना जर्द,  सचमुच बात करते हैं

कर दिया सरसब्ज, सब कुछ,  बात करते हैं

वेद विलास उनियाल

प्रसिद्ध चित्रकार बी मोहन नेगी पर निकले संग्रह किताब के अवसर पर मंच पर अध्यक्ष के बतौर साहित्यकार प्रेम साहिल देखना अच्छा लगा। अमूमन उत्तराखंड में सृजन या रचनात्मकता की सारी बातें  गढ कुमाऊं जौनसार के दायरे में देखने की आदत बनी हुई है। इस नाते इस दायरे से थोडा कौन किस तरह का सृन कर रहा है या  उत्तराखंड के लिए कया योगदान दे रहा है इसका आकंलन कम हो पाता है। वरना प्रेम साहिल जैसा समर्थ और शानदार लेखक पर चर्चा आम होती। मगर उत्तराखंड का मनीषी समाज और साहित्य कला सृजन में डूबा समाज भी बहुत कम इन तक पहुंच पाता है। इस मायने में  दून प्रेस क्लब के  एक अच्छे उद्देश्य वाले आयोजन में प्रेम साहिल और गायक नरेंद्र नेगी को साथ बैठे देखना  सुखद था।

 बी मोहन नेगी पर साहित्यकार कवि नरेंद्र कठैत ने लेखों का एक संग्रह निकाला है। इसमें उनसे जुडे लेख संस्मरण नके चित्र आदि है। बी मोहन नेगी  उस परंपरा के चित्रकार थे जो किसी घटना,  आंदोलन, कहानी  आदि पर चित्र बनाते थे। यह कर्म इस रूप में भी था कि वह एक मायने में अपने प्रभावी चित्र से उस कविता कहानी या घटना को फिर से  स्मृतियों में लाते थे।  उत्तराखंड के  लगभग हर कवि लेखक  सामाजिक आंदोलन से जुडे लोगों के मन में यह भावना जरूर रहती थी कि बी मोहन नेगी उनपर कई चित्र बना दे।  पौडी में रहकर बी मोहन नेगी ने ऐसे चित्रों की श्रंखला तैयार की।   इसी प्रवृति में कभी मोलाराम तोमर ने भी कुछ चित्र बनाए थे जिसमें अपनी कविताओं को चित्र बनाकर आधार दिया था। इस अवसर पर उनकी लिखी किताब का भी विमोचन किया गया।

ऐसे अवसर पर  नरेंद्र  नेगी के साथ साथ  प्रेम साहिल को मंच पर पाना उस चित्रकार के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है।  प्म साहिल की  समय साक्ष्य से  नई कृति   आई है,  जिसे शीर्षक दिया गया है  – कोई दर पर है।   बहुत सुंदर दोहे नुमा पंक्तियां।  मन को छूती हुई।  निदा फाजली की कृति  खोया हुआ सा कुछ  या संजय मासूम के  यहीं कहीं  को पढते हुए जिस तरह का आभास होता है , मन  में जो  तरंग उठती है  जिस तरह का संवाद होता है   लगभग उसी तरह की अनुभूति  कोई दर पर है को पढते हुए मिलती रही।

  • मीठी आज भी है  गांव मेरे की नदी

        सागर हो गए हैं और भी खारे बहुत ।

खुद को पहचानें न अब तो सूरतें

आइने भी देख करके दंग हैं।

पता तो दे कभी अपना मुझे ओ जिंदगी मेरी

कि मैं महमान हो जाऊं  जां मेजबानी तेरी

  • डर है कुछ खोने का गर

फिर क्यों न हम खोएं डर

आओ तो इतना सा है

तेरे घर से मेरा घर ।

प्रेम साहिल की शिक्षा अंग्रेजी साहित्य की है। अंग्रेजी में एमए किया। लेकिन अपने साहित्य को उन्होंने हिंदी और पंजाबी में ही बुना। वह निरंतर लिखते रहे हैं। हिंदी में उनकी  कविता दस्तक देता सूरज. राहे हयात  पढने को मिली है तो पंजाबी में मिट्टी दे सुखन, लहर लहर साहिल , हर सिम्त बिखर जाओ जैसी कृतियां हैं। अस्सी के दशक से दून की साहित्य बिरादरी में उनकी अपनी पहचान बनी है। 

प्रख्यात कवि लीलाधर जगूडी के वे न केवल पडोसी हैं बल्कि गहरे मित्र भी। ज्यादातर साहित्यिक गोष्ठियो में दोनों साथ साथ घर से निकलते देखे गए हैं। उत्तराखंड के जीवन में पंजाबियत और पहाड का यह नाता अलग जिंदादिली के साथ दिखता है।   साहिलजी के विशेष साहित्य योगदान में  लीलाधर जगूडी के भारतीय साहित्य अकादमी से पुरस्कृत कविता संग्रह  अनुभव के आकाश में चांद का उन्होंने पंजाबी में बखूबी अनुवाद किया। उत्तराखंड मे रह रहे या उससे बाहर पंजाबी समाज के लिए यह साहित्य देन हैं वही हिंदी का दूसरी भाषाओं तक पहुंचने का सुंदर उपक्रम भी।  यही नहीं जगूडीजी की कुछ कविताओं का उन्होंने अंग्रेजी में भी अनुवाद किया है। जिस साहित्य बिरादरी में सराहा गया।

उत्तराखंड अपनी जिन प्रतिभाओं पर नाज कर सकता है उसमें प्रेम साहिल भी हैं। उन्हें पढा और समझा जाना चाहिए। जिस तरह का परिवेश इन दिनों दिखता है उसमें साहिल तक पहुंचने या उनको महसूस करने के लिए मंच कम दिखते हैं।  आज के बदलते रुझान में हम प्रेम साहिल को कितना पकड पाएं यह हमारी अपनी सफलता है।  उन्हें तो लिखते रहना है।

निदा फाजली कहते है   – करनी थी जितनी बात , बात हो गई।

                                                आओ शराब पिए,  शाम हो गई।

वहीं  प्रेम साहिल  कुछ इस तरह कहते हैं –

   कुछ बचा ना जर्द,  सचमुच बात करते हैं

कर दिया सरसब्ज, सब कुछ,  बात करते हैं।

संजय मासूम की पंक्तियां है –

तू पंख ले ले, मुझे सिर्फ हौसला दे दे

फिर आंधियों को मेरा नाम और पता दे दे

प्रेम साहिल ने गुनगुनाया –

किसका डर है चुप करके जो झेल रहा है।

सर ऊंचा कर खुलकर अपनी बात किया कर

चुप रहने से तो बढ जाए दुख की शिद्दत

दिल हल्का होता हैइससे  , बात किया कर

 उनकी इन पंक्तियों को भी महसूस कीजिए –  वो सुहाने दिन न वो शाम न वो रातें रहीं   अब असर वाली न वो बातें मुलाकातें रहीं , तब गली में दौडते थे सभी नंगे बदन। कब बिना बच्चों के मायूस बरसातें रहीं।

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