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गैर उत्तराखंडी लोगों के एशो-आराम की चारागाह है उत्तराखंड !

  • सरकार को सूचना आयोग में उत्तराखंड के बुद्धिजीवी नहीं पसंद !
  • यानि घर का जोगी जोगटा आन गांव का सिद्ध !
  • सत्ता के चाटुकारों और दलालों के लिए खुले दरवाजे  !

दिनेश कण्डवाल 

DEHRADUN : संसदीय जनतंत्र में शासन-प्रशासन में जनता की सीधी दखल और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के साथ ही भ्रष्टाचार, मनमानी तथा नौकरशाही की लालफीताशाही और तानाशाही पर अंकुश लगाने के लिये संविधान प्रदत्त सूचना का अधिकार को सुनिश्चित करने के लिये गठित संवैधानिक संस्था उत्तराखण्ड में बिना सूचना आयुक्तों के बीरान तो पड़ी ही हुयी थी लेकिन जब बड़ी हालहुज्जत के बाद कई खाली पदों में से केवल दो पद भरने की प्रक्रिया शुरू हुयी तो उत्तराखण्ड को अपने स्वार्थों की चारागह मानने वाले तिकड़मी लोगों की नजर इन संवैधानिक पदों पर पड़ गयी।

राज्य में पिछले तीन सालों से सूचना आयुक्तों के तीन पद खाली पड़े हुये थे। ये पद विनोद नौटियाल, अनिल शर्मा और प्रभात डबराल के रिटायर होने से खाली पड़े हुये थे। इन पदों को भरने की जिम्मेदारी पिछली कांग्रेस सरकार की थी लेकिन उस सरकार ने और तत्कालीन प्रतिपक्ष के नेता ने कोई रुचि नहीं ली। जब पद भरने का दबाव बढ़ा तो दोनों पक्षों में पदों की बंदरबांट पर सहमति न होने के कारण नियुक्तियां नहीं हो सकीं।

वर्तमान सरकार ने पदों का भरने के बजाय पहले से चली आ रही नियुक्ति प्रक्रिया ही रद्द कर दी। इस दौरान बचे खुचे राजेन्द्र कोटियाल और सुरेन्द्र सिंह रावत के दो पद भी खाली हो गये और आयोग का कामकाज पूरी तरह ठप्प हो गया। इसके लिये त्रिवेन्द्र सरकार ने नियुक्ति प्रक्रिया  शुरू की तो फिर पक्ष और विपक्ष में पदों की बंदरबांट का मामला आड़े आ गया।

भाजपा का सरकार के साथ ही सूचना आयुक्तों की चयन समिति में भी बहुमत है लेकिन प्रतिपक्ष की नेता भी अपना एक आदमी आयोग में चाहती थी। हालांकि कमेटी में बहुमत सरकार का है मगर उसमें प्रतिपक्ष के नेता की सहमति हो या न हो मगर उपस्थिति जरूरी होती है। इस अनिवार्यता का लाभ प्रतिपक्ष की नेता भी क्यों नहीं उठाती?

सुना गया है कि दो आयुक्तों के चयन में दोनों पक्षों में सहमति बन गयी है। लेकिन सहमति ऐसी कि जिसे जगजाहिर करने में दानों पक्ष कतरा रहे हैं। चूंकि यहां सवाल लोकलाज का है। आप उत्तराखण्ड में सरकार और राजनीति की आजीविका चला रहे हैं और उत्तराखण्ड के लोगों की अभिलाषाओं और आकांक्षाओं पर पानी फेर कर बाहरी लोगों (गैर-उत्तराखंडी) को इन पदों पर बिठाने की तैयारी कर रहे हैं।

चयन समिति की सहमति की जो खबरें छन कर मीडिया में आयी हैं उनके अनुसार भाजपा के उच्च पदस्त लोगों की सिफारिश के बलबूते अजय सेतिया नाम के एक व्यक्ति का चयन लगभग तय हो चुका है। यह वही अजय सेतिया है जो कि 2010-2011 में भी भाजपा नेताओं और उच्च सिफारिश के सहारे उत्तराखण्ड में अपनी किस्मत आजमाने आया था। लेकिन भुवन चन्द्र खण्डूड़ी जैसा मुख्यमंत्री जनविरोध के कारण सेतिया को सूचना आयुक्त नहीं बना पाये। खण्डूड़ी जी के बाद निशंक मुख्यमंत्री बने तो उन पर भी सेतिया को सूचना आयुक्त बनाने का दबाव पड़ा।

निशंक ने बिना प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह रावत की सहमति के सेतिया के चयन की फाइल राजभवन भेज दी थी लेकिन भारी विवाद के कारण राजभवन से फाइल वापस लौटा दी गयी। उस समय विभिन्न संगठनों ने सेतिया का भारी विरोध किया था। जब बात नहीं बन पायी तो सेतिया को बाल आयोग का अध्यक्ष बना कर उनको कमाऊ रोजगार दे दिया गया। इसी दौरान राज्य सरकार ने बाल आयोग के अध्यक्ष को वेतन देने की व्यवस्था समाप्त कर दी थी। इसके लिये शासनादेश भी जारी हुआ मगर सेतिया साहब फिर भी बाल आयोग से भारी भरकम वेतन लेकर उसे आम की तरह चूसते रहे।

जबकि सेतिया के बाद योगेन्द्र खण्डूड़ी अध्यक्ष बने तो उन्हें आयोग से कोई वेतन नहीं मिला। अब उषा नेगी आयोग की अध्यक्ष हैं मगर उनको भी वेतन नहीं मिलता है। सवाल उठता है कि क्या चार दर्जन से अधिक उत्तराखण्डडियों ने उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान इन सेतिया जैसे लोगों के लिये शहादतें दी थीं। क्या यह उत्तराखण्ड सेतिया जैसे बाहरी जीवों के चरने के लिये बना है।

सुना यह भी गया है कि सूचना आयक्त पद के लिये चर्चित आईएएस विनाद शर्मा नाम के एक अन्य पूर्व नौकरशाह पर भी सहमति बन गयी है। शर्मा साहब प्रतिपक्ष की नेता के कोटे के दोवेदार माने जा रहे हैं। शर्मा जी उत्तरप्रदेश काडर के पीसीएस रहे और उत्तराखण्ड काडर के पीसीएस अफसरों के भारी विरोध के बावजूद उन्हें उत्तर प्रदेश भेजने के बजाय उत्तराखण्ड में ही मनमानी करने के लिये रखा गया था। लगता है कि हमारी सरकार और प्रतिपक्ष में बैठी कांग्रेस को उत्तराखण्ड में सत्ता का सुख तो रास आता है मगर उत्तराखण्ड के बुद्धिजीवी रास नहीं आते। जो गैर-उत्तराखंडी को सूचना आयोग में बैठाने की जुगत में  लगे  हुए हैं वह भी तब जब प्रधानमंत्री मोदी उत्तराखंड के बेशकीमती हीरों को खोज-खोजकर लाकर देश के कई महत्वपूर्ण संस्थानों में बैठा रहे हैं। इसी को कहते है  घर का जोगी जोगटा आन गांव का सिद्ध !

devbhoomimedia

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