पर्यावरणविद अनिल जोशी और कल्याण रावत कहां हैं इन दिनों?
गुणानंद जखमोला
चारधाम यात्रा मार्ग के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 25300 पेड़ों के कटान की अनुमति दी थी। आलम यह है आलवेदर रोड के निर्माण के दौरान मलबे का निस्तारण सही नहीं होने से ही हजारों पेड़ मलबे में दब गये। इसका कोई रिकार्ड नहीं है। मलबा अलकनंदा, मंदाकिनी और अन्य नदियों में गिर रहा है। यदि केदारनाथ जैसी आपदा दोबारा आई तो इस बार हरिद्वार का हश्र रामबाड़ा की तर्ज पर होगा। हमारे यहां पदमश्री और पदमभूषण पुरस्कार लेने वाले अनिल जोशी और मैती आंदोलन के पदमश्री कल्याण रावत की चुप्पी इस मामले में खलती है। ये दोनों तब भी चुप रहे जब पिछले छह महीने से तोता घाटी को बमों से उड़ाया जा रहा था। ये आज भी चुप हैं जब थानों में दस हजार पेड़ों की बलि देने की तैयारी हो रही है।
पदमभूषण अनिल जोशी अखबारों में बड़े-बड़े लेख लिखते हैं। लेकिन इन मामलों पर चुप हो जाते हैं। क्या यह मान लिया जाए कि अनिल जोशी साल में 15 दिन हिमालय बचाओ यात्रा चलाते हैं और 349 दिन उस 15 दिन की कमाई खाते हैं। क्या ऐसे ही हिमालय बचेगा? हिमालय में डेंस फारेस्ट भले ही बढ़ रहे हों, लेकिन माडरेट फारेस्ट तो घट रहे हैं? उस पर सवाल कौन उठाएगा? गंगोत्री इलाके में ब्लैक कार्बन बढ़ रहा है। केदारनाथ संेक्चुरी में हेलीकाॅप्टर उड़ने से वन्य जीवों पर खतरा है। आलवेदर रोड के लिए अनियोजित और तकनीक विहीन कटान पर्यावरण के साथ ही कई सिरोबगड़, लामबगड और धरासू बैंड जैसे नासूर तैयार कर रहा है, इसका मुद्दा क्यों नहीं उठाया जाता। सुक्खी टाॅप पर भू-प्लेट के कारण कई खोखली गुफाएं बन रही हैं, उस पर बात नहीं होती। वन्य जीवों की गांवों में धमक क्यों हो रही है, क्या उसका संबंध पर्यावरण से नहीं है? वनों से ग्रामीणों की आत्मीयता समाप्त हो रही है। वन सरकारी हैं, ग्रामीणों में यह धारणा क्यों है इस पर पर्यावरणविद बात नहीं करते। हर साल फरवरी से जून माह तक पहाड़ के जंगलों में जो वनाग्नि लगती है, उस मुद्दे पर कोई पर्यावरणविद क्यों नहीं बहस या मंथन करते? मैती आंदोलन के जनक कल्याण सिंह रावत जो एक-एक पेड़ लगाने के लिए प्रख्यात हैं, वो थानो के दस हजार पेड़ों के कटान के मामले में चुप्पी साध लेते हैं। यह बात अखरती है।
उत्तराखंड देश का आक्सीजन बैंक है। यहां की नदियों से देश के एक दर्जन से भी अधिक राज्यों के लोगों को पेयजल और सिंचाई की पूर्ति होती है। टिहरी बांध की बिजली से दिल्ली रोशन होती है। यहां के वनों से पूरे देश-दुनिया को लकड़ियों की पूर्ति होती है। इसके बावजूद आश्चर्य होता है कि पिछले 20 साल के दौरान यहां जो विधानसभा चुनाव होता है उसमें पर्यावरण कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनता। आखिर क्यों?
बात सिर्फ इन दो पदमश्री की नहीं है। उत्तराखंड में लगभग दस हजार एनजीओ पर्यावरण के नाम पर चल रहे हैं। अधिकांश कागजी हैं और ज्यादातर फंड रेज करने की की बात होती है। क्या यह मान लिया जाए कि पर्यावरण रक्षा की लड़ाई महज पदम पुरस्कार हासिल करने की है। पुरस्कार मिलते ही पर्यावरण रक्षा की बात गुल हो जाती है और मुंह पर पदमश्री पुरस्कार का ताला लटक जाता है। सोचो, लोगो और जागो। मेरा मानना है कि जब तक लोग जागरूक नहीं होंगे तो पर्यावरण चुनावी मुद्दा भी नहीं होगा और जब हिमालय ही नहीं बचेगा तो पर्यावरण पर पदम पुरस्कार कौन लेगा?