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मतदान के दौरान उंगलियों पर लगने वाली नीली स्याही का क्या है सच ?

  • मतदान के दौरान लगने वाली स्याही की हर बूंद की 2.70 है कीमत

देवभूमि मीडिया ब्यूरो

देहरादून : लोकसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान हो चुका है। मतदान  के दौरान मतदाताओं की उंगलियों पर एक खास तरह की स्याही लगाई जाती है। इससे यह प्रदर्शित होता  है कि मतदाता ने अपने वोट का इस्तेमाल कर दिया है। इस बार चुनाव आयोग ने कुल 26 लाख नीली स्याही की बोतल के लिए ऑर्डर दिए हैं। करीब 90 करोड़ लोगों पर इस्तेमाल की जाने वाली इस स्याही की कीमत करीब 33 करोड़ रुपये बैठती है।

आखिर क्या है इस नीली स्याही का राज, इसके हर बूंद पर कितना आता है खर्च, जानिए रिपोर्ट में…
सरकार ने लोकसभा चुनाव 2019 के लिए कुल 26 लाख फाइल्स का इंतजाम किया है। हर फाइल्स यानी बोतल में 10 एमएल स्याही होती है। 26 लाख बोतल पर कुल खर्च 33 करोड़ यानी हर बोतल पर करीब 127 रुपये का होता है। इस लिहाज से 10 एमएल की कीमत 127 रुपये और 1 लीटर की कीमत करीब 12,700 रुपये होगी। वहीं एक एमएल यानी एक बूंद की बात करें तो 12.70 रुपये इसकी कीमत बैठती है।

  • जानिए हर वोटर्स पर आता है कितना खर्च

17 वीं लोकसभा के लिए मतदान के लिए देश में कुल 90 करोड़ वोटर्स के लिए 33 करोड़ रुपये स्याही पर खर्च किया जा रहा है। इस लिहाज से हर वोटर को स्याही लगाने पर इस चुनाव में 2.70  रुपये खर्च आएगा।

  • भारत के मैसूर में बनती है यह नीली स्याही

यह स्याही भारत में ही बनाई जाती है। मैसूर पेंट एंड वार्निश लिमिटेड (MVPL) नाम की कंपनी इस स्‍याही का प्रोडक्‍शन करती है। कंपनी इसे रिटेल में नहीं बेचती है, कंपनी सरकारों या चुनाव से जुड़ी एजेंसियों को ही इसकी सप्‍लाई करती है। इसे लोग इलेक्शन इंक या इंडेलिबल इंक के नाम से जानते हैं। यह कई दिनों तक मिटाई नहीं जा सकती है, इससे वोटर चाहकर भी एक ही चुनाव में दोबारा वोट नहीं कर सकता। यानी इसका उद्देश्य चुनाव की प्रक्रिया पारदर्शी बनाना है।

  • इस नीली स्‍याही की क्या है खासियत जानिए ….

हाथ के साथ धातु, लकड़ी या कागज पर अगर स्‍याही लग जाए, तो लाख कोशिशों के बाद भी इसे तुरंत नहीं मिटाया जा सकता है। आम थिनर जैसे केमिकल का भी इस स्‍याही पर इस्तेमाल बेअसर होता है। कंपनी स्‍याही को कनाडा, कम्‍बोडिया, मालदीव, नेपाल, नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका और टर्की जैसे देशो में भी एक्‍सपोर्ट करती है। कंपनी की शुरुआत मैसूर के तत्‍कालीन राजपरिवार की ओर से 1937 में की गई थी। बाद में यह कर्नाटक सरकार के अधीन आ गई।

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