जंगलों में लगी आग से क्या उत्तराखंड में बढ़ी गर्मी ?
जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, और जंगलों में लगने वाली आग का कारक अगर इंसान है तो इस सबसे निपटने में भी इंसान की ही है भूमिका
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
जंगलों में लगने वाली आग अब तक हमें अमेरिका और ब्राज़ील की याद दिलाती हैं। लेकिन अब, आग लगने और उसके प्रभाव से बढ़ती गर्मी की ख़बर उत्तराखंड से आ रही है। अटपटा सिर्फ यही नहीं कि भारत के जंगलों में आग लगी है। जंगलों में आग लगना असामान्य नहीं है लेकिन हैरान करने वाली बात ये भी है कि अब जंगलों में आग लगने की घटनाएँ तब हो हो रही हैं जब पहले नहीं हुआ करती थीं। सोचने बैठिये तो समझ आएगा कि इसका सीधा नाता बदलते मौसम, यानि जलवायु परिवर्तन, से है। सरलीकरण कर के सोचें तो एहसास होता है कि गर्मियां बढ़ रही हैं, पेड़ पौधे ज़यादा सूख रहे हैं, धरती का पानी सूख रहा है, टूटे पत्ते जल्दी सूख रहे हैं और सूखे पत्ते भी आग लगने का सबब बनते हैं। भारत में भी इस सब का असर साफ़ दिख रहा है। साल 2020 में भारत के कम से कम 4 राज्यों के जंगलों में आग की बड़ी घटनायें हुई। ये राज्य थे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, ओडिशा और नागालैंड।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल 2020 में उत्तराखंड में सर्दियों के मौसम में आग की जितनी घटनायें हुईं वह फरवरी से लेकर मई तक हुई घटनाओं से कम हैं। और इस साल,एक बार फिर से जंगलों में आग की तस्वीरें दिख रही हैं। उड़ीसा के सिमलीपाल नेशनल पार्क से हिमाचल के कुल्लू तक और नागालैंड-मणिपुर की सीमा से उत्तराखंड के नैनीताल, टिहरी और पौड़ी तक, जंगलों में आग धधक रहे हैं। जानकार मानते हैं कि जंगलों में आग की घटनायें उतनी ही पुरानी है जितने पुराने ये सब जंगल हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से जिस तरह से जंगलों में आग की घटनाओं की संख्या और उनका स्वरुप विकराल होता जा रहा है, वो परेशानी का सबब बन रहा है।
अब यहाँ सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? वैसे देखा जाये तो जंगलों की आग अमूमन इंसानी लापरवाही होती है। लेकिन ऐसे में विशेषज्ञों की राय जानना ज़रूरी है। डॉ. जगदीश कृष्णस्वामी, वरिष्ठ फेलो, सेंटर फॉर बायोडायवर्सिटी एंड कंजर्वेशन, अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (ATREE) बताते हैं, “आजकल देश के कुछ हिस्सों में मौसम बहुत गर्म है, और विभिन्न प्रकार के जंगल में आग लगने की खबरें आ रही हैं।” साथ साथ इन दिनों पारंपरिक प्रथाओं जैसे महुआ की फसल के साथ जमीनी आग का उपयोग करने के संयोजन से जंगलों में आग लगने की घटनाओं में तेजी आने की संभावना है। हालांकि, उत्तराखंड में ये अन्य कारक उच्च तापमान की तुलना में प्रासंगिक नहीं हैं।
वो आगे बताते हैं कि तेज़ गर्मी के चलते वहां पहाड़ों पर उगने वाले झाड़-झंकार के सूख जाने से शुष्क ईंधन की उपलब्धता इन दिनों बढ़ गयी है और इसकी आसानी से प्रज्वलन और ज्वलनशीलता की संभावना है। इस साल की शुरुआत में उत्तराखंड में सर्दियों में बारिश बड़ी कमी हुई। हर साल की तरह 50 मिली मीटर ( मिमी) के बजाये इस वर्ष वर्षा का स्तर 10 मिमी के आस पास रहा जोकि सामान्य से बहुत ज्यादा कम है। हिमालय में वैसे भी ग्लोबल वार्मिंग की दर सबसे ज्यादा है । मानसून की बारिश का अभाव वहां मौजूद वनस्पति को सूखा कर ज्वलनशील ईंधन में तब्दील करने के लिए काफी है । पश्चिमी विक्षोभ जो आम तौर पर जनवरी और फरवरी में बारिश लाते हैं, इस साल लगभग अस्तित्वहीन थे। अपनी बात समेटते हुए डॉ. कृष्णस्वामी कहते हैं, “कुल मिलकर ये सभी कारक सूखी घास, झाड़ी और वनस्पति उपलब्ध करने में योगदान कर रहे हैं जो आसानी से आग लगने और उसके फैलने के लिए काफी है।”
लेकिन यहाँ मानवीय भूमिका नकारी नहीं जा सकती। इस बीच ये भी ध्यान रहे कि सरकार भी मानती है कि भारत में करीब 10 प्रतिशत वन क्षेत्र ऐसा है जो आग से बार-बार प्रभावित होता है। लेकिन वन विभाग के पास न स्टाफ है और न संसाधन हैं।
अब ऐसे में क्या समाज की भूमिका नहीं बनती कि वो भी अपना योगदान करे? जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, और जंगलों में लगने वाली आग का कारक अगर इंसान है तो इस सबसे निपटने में भी इंसान की ही भूमिका है।