“यूरीन एक्सप्रेस” चलता फिरता ट्रीटमेंट प्लांट जिसे घास से भरे स्टेडियमों के पास लगाया जाएगा
डॉ. मोहन पहाड़ी
क्रिकेट स्टेडियम की घास को खिलाड़ी और फैन्स के मूत्र से हरा भरा रखा जाए। सुनने में यह भले ही अजीब सा लगे, लेकिन स्विट्जरलैंड की एक खोज विज्ञान को इसी दिशा में ले जा रही है। खोज को नाम दिया गया है, “यूरीन एक्सप्रेस”
इसके तहत एक चलता फिरता ट्रीटमेंट प्लांट घास से भरे स्टेडियमों के पास लगाया जाएगा। स्टेडियम से निकलने वाले इंसानी मूत्र को इस प्लांट तक लाया जाएगा और फिर उससे फॉस्फोरस बनाया जाएगा।
इस तरीके से फॉस्फोरस जैसा खनिज भी मिलेगा और पानी की बर्बादी भी कम होगी। एटर कहते हैं, “आम तौर पर एक लीटर मूत्र को बहाकर साफ करने के लिए हम 100 लीटर पानी इस्तेमाल करते हैं।”
कैसे काम करती है तकनीक
स्टील के एक टैंक में मूत्र को जमा किया जाता है। फिर उसमें बैक्टीरिया, शैवाल के साथ कुछ अन्य चीजें मिलाई जाती है। इस दौरान तरल अपशिष्ट का काफी हिस्सा गाढ़ेपन के साथ ठोस होने लगता है। साथ ही पानी उससे अलग होने लगता है। इस पानी से प्रदूषक, कीटाणु और दुर्गंध को दूर किया जाता है। अंत में पानी 90 फीसदी तक साफ हो जाता है।
इस प्रक्रिया के दौरान मिले गाढ़े अपशिष्ट में मैग्नीशियम ऑक्साइड मिलाया जाता है। यह फॉस्फोरस को बांधते हुए मैग्नीशियम अमोनियम फॉस्फेट (एमएपी) बनाता है। फिर एक्टिवेटेड कार्बन की मदद से इससे फॉस्फोरस को अलग किया जाता है।
खाद भी और पानी भी
इस सिस्टम की बदौलत 1,000 लीटर मूत्र से दो या तीन दिन के भीतर 70 लीटर खाद और 930 लीटर पानी हासिल किया जा सकता है। इतनी खाद को 2,000 वर्गमीटर के इलाके में इस्तेमाल किया जा सकता है। पानी की और ज्यादा प्रोसेसिंग कर उसे पीने लायक बनाया जा सकता है। बिल गेट्स फाउंडेशन भी ऐसी तकनीक अफ्रीकी देशों में पहुंचा रही है। इससे निकलने वाले साफ पानी को ख़ुद बिल गेट्स ने पीकर दिखाया।
लेकिन यूरीन एक्सप्रेस खोजने वाली कंपनी का कहना है कि वह पेयजल के बारे में नहीं सोच रही है। एटर कहते हैं, “हम पानी का संजीदा तरीके इस्तेमाल करना चाहते हैं। उससे पोषक तत्व निकालकर औद्योगिक स्तर पर दुर्गम इलाकों के लिए टॉयलेट बनाना चाहते हैं।”
एटर और उनकी टीम अपने मोबाइल प्लांट को नेपाल और दक्षिण अफ्रीका में टेस्ट कर चुकी है। दोनों ही देशों में सेंट्रल सीवेज सिस्टम नहीं है।
महसूस होने लगी है संसाधनों की कमी
फिलहाल खाद के तौर पर इस्तेमाल होने वाला फॉस्फोरस, फॉस्फेट चट्टानों से निकाला जाता है। ये चट्टानें करोड़ों साल पहले धरती के भूगर्भीय हलचलों के दौरान बनीं। हर साल जितना फॉस्फोरस प्राकृतिक संसाधनों से निकाला जाता है, उसका 90 फीसदी इस्तेमाल कृषि और खाद्यान्न उद्योग करते हैं।
अब फॉस्फेट से समृद्ध चट्टानें धीरे धीरे कम खत्म होती जा रही हैं। नए इलाकों में ऐसी चट्टानों को खोजने का मतलब होगा, प्रकृति से नई जगह छेड़छाड़। लिहाजा अब इस जरूरी खनिज की रिसाइक्लिंग पर जोर दिया जा रहा है।