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भ्रष्टाचार देश को दीमक की तरह खोखला करने का करता है काम।

राजनीति में हमारे राजनेता स्वच्छ एवं पारदर्शी राजनीति के जो भी दावे क्यों न करें सच यह है कि एक बड़ी संख्या में हमारे राजनेता ऐसे हैं जो आर्थिक भ्रष्टाचार और कदाचरण में लिप्त हैं। आज राजनेता समाज को एकजुट करने के बजाय विभाजनकारी तौर-तरीकों को अपना रहे हैं।

कमल किशोर डूकलान 
आज देश को जिस तरह से भ्रष्टाचार ने दीमक की तरह खोखला करने का काम किया है उससे किसी के असहमत होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। यह एक कटु सत्य है कि देश की हर प्रकार की समस्याओं के मूल में भ्रष्टाचार ही है। चिंता की बात यह है कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के तमाम उपायों के बावजूद भी भ्रष्टाचार समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा है। आए दिन हमें ऐसे समाचार सुनने को मिलते हैं जिससे पता चलता है कि हर सरकारी,गैर सरकारी प्रतिष्ठानों में रिश्वतखोरी का सिलसिला बदस्तूर कायम है।
आज अगर देखा जाए तो वर्तमान समय में भ्रष्टाचार का एक बड़ा जरिया सरकारी ठेके भी बने हुए हैं। इन ठेकों में कमीशनखोरी के नाम पर करोड़ों रुपये की धनराशि अवैध रूप से इधर-उधर होती है। नतीजा यह है कि जो धन सरकारी कोष में जाना चाहिए और जिसका सदुपयोग देश की प्रगति में होना चाहिए वह भ्रष्ट तत्वों की जेबों में जा रहा है और देश की प्रगति में बाधक बन रहा है।
आश्चर्य की बात यह है कि नोटबंदी के समय सरकार ने तमाम ऐसे नियम-कानून बनाये जिनके तहत एक निश्चित मात्र से अधिक नकद राशि का लेन-देन नहीं हो सकता है,आज उनका भी पूर्णतया उल्लंघन हो रहा है। यह समझना कठिन है कि आनलाइन लेन-देन का चलन बड़े पैमाने पर बढ़ने के बावजूद भी बैंकों के माध्यम से बड़ी धनराशि का लेन-देन हो रहा है जिस पर स्वत: ही बैंकिंग कार्य प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह खड़े होते हैं।
नोटबंदी के समय नकद लेन-देन को रोकने के लिए सरकार द्वारा बनाए गए नियम-कानूनों पर नए सिरे से विचार करने और इस क्रम में उन छिद्रों को बंद करने की आवश्यकता है जिनका इस्तेमाल भ्रष्ट तत्व कर रहे हैं। समस्या केवल आर्थिक भ्रष्टाचार की ही नहीं है। समस्या नैतिक आचरण की भी है।
राजनीति समाज को दिशा देने का काम करती है इसलिए वह किसी न किसी स्तर पर नेताओं के कार्य व्यवहार से प्रभावित होती है। शायद यही कारण है कि आज भ्रष्टाचार के हमारे समाज में एकजुट होकर और आपसी मतभेदों को भुलाकर देश की प्रगति के लिए कर्तव्य निर्वहन का वह भाव नजर नहीं आता जो आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य भी है।

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