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EXCLUSIVE : भ्रष्ट लोगों को प्रदेश में ईमानदार त्रिवेंद्र नहीं, चाहिए धृतराष्ट्र
उत्तराखंड बचाना है तो कौरवों की सेना से हमें भी अपने अभियन्यु को बचाने के लिए आगे आना होगा
राजेन्द्र जोशी
उच्च न्यायालय के निर्णय का सम्मान लेकिन कानून के नैसर्गिक सिद्धांत का भी तो होना चाहिए था पालन
देश का संविधान हर किसी को अपनी बात रखने की आजादी देता है चाहे वह आम नागरिक हो या वह किसी संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति हो। प्रोफेसर रावत ने अपनी निजी जानकारी को सार्वजनिक मीडिया में डालने और राजनीतिक रूप से मुख्यमंत्री के साथ उनका और उनके परिवार का नाम जोड़ने को लेकर एक आपत्ति दर्ज करते हुए जांच की मांग की थी।
हालांकि यह मामला प्रोफेसर रावत और तथाकथित पत्रकार के बीच का था। इसमें मुख्यमंत्री को क्यों बीच में लाया गया यह समझ से परे है और अगर लाया भी गया तो मुख्यमंत्री को क्यों नहीं सुना गया या उन्हें अपनी बात रखने का मौका क्यों नहीं दिया गया। क्या यह कानून के नैसर्गिक सिद्धांत है?
निःसन्देह यह एक कानूनन दांवपेच है जिसकी पोल खुलना अभी बाकी है सिर्फ मीडिया की सुर्खियां बटोरने के लिए और अपनी गर्दन बचाने के लिए इस मामले को हाई प्रोफाइल रंग दिया जाना कहां तक उचित कहा जा सकता है।
बीते साढे़ तीन वर्षों से उत्तराखंड सुशासन, विकास और प्रगति के मार्ग पर निरंतर बढ़ोत्तरी कर रहा है। मगर, भ्रष्टचारियों को ईमानदार सरकार रास नहीं आ रही है, उन्हें पूर्व की तरह विकास के नाम पर सिर्फ कोरे वायदे करने वाला मुखिया ही पसंद आता है। यही कारण है कि लगातार मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की सत्ता को हिलाने का पुरजोर प्रयास किया जा रहा है। ऐसे गिरे हुए लोगों के पास जब मुख्यमंत्री के ऊपर लगाने के लिए कोई आरोप नहीं मिले तो बीते पांच वर्ष पूर्व का ऐसा मामला उठाया जो किसी नजर से जायज प्रतीत नहीं होता है।
जानकार बता रहे हैं कि ऐसे ही लोगों ने न्यायालय तक को गुमराह करने की पूरी कोशिश की है। जिस प्रकार महाभारत के युद्ध में वीर अभिमन्यु से जीत न पाने पर कौरवों ने घेर लिया था। कुछ इसी प्रकार की गंदी और ओछी राजनीति वर्तमान में उत्तराखंड में देखने को मिल रही है, और कौरवों की सेना मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र को घेरने में जुटी हुई है।
मित्र की शक्ल में बैठे कुछ लोग मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत पर बार-बार यह आरोप लगाते हैं कि वर्ष 2015-16 में वह झारखंड के बीजेपी प्रभारी थे। इसी दौरान उन्होंने वहां के एक व्यक्ति से 25 लाख रुपये की रिश्वत अपने नाते रिश्तेदारों के बैंक खातों में डाले गये हैं।
आपको बता दें कि इस मामले में एसआईटी अपनी जांच कर चुकी है और आरोपों को सिरे से खारिज भी किया जा चुका है। इसके विपरीत जिस व्यक्ति हरेंद्र रावत और उनकी की पत्नी के खाते में रूपये डाले जाने का आरोप लगाया जा रहा हैं, उन दंपत्ति ने देहरादून के नेहरू काॅलोनी थाने में मुकदमा दर्ज किया है। यहां सवाल यह है कि एसआईटी जांच और स्वयं दंपत्ति ने मामले को निराधार बताया है। निजी जानकारी (बैंक लेनदेन) और मुख्यमंत्री से संबंध जोड़ने को लेकर हुए विवाद और जांच में मुख्यमंत्री कैसे मोहरा बन गये, यह समझ से परे है? वह भी तब जब डॉ. हरेंद्र सिंह रावत त्रिवेंद्र सिंह रावत से अपने किसी भी तरह के संबंधों या रिश्तेदारी तक को साफ़ नकार चुके हैं। इतना ही नहीं ताज़े प्रकरण पर उन्होंने साफ़-साफ़ कहा है पहले एसआईटी उनके खातों को खंगाल चुकी है अब सीबीआई भी खंगाल ले उन्हें क्या ऐतराज़।
इन हमलों के चलते कम से कम इतना तो समझ आ रहा कि मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को कुर्सी से हटाने के चौतरफा प्रयास हो रहे हैं। इस पॉवर गेम में अपने और पराये वो सभी लोग शामिल हैं जो उत्तराखंड में भ्रष्टाचार पर लगे अंकुश से तिलमिलाए बैठे हैं। वो भी तब जबकि अब तक का साढ़े तीन वर्ष का मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र का कार्यकाल बेदाग होने के साथ ही तमाम उपलब्धियों से भरा रहा है।
दरसअल, मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही त्रिवेन्द्र ने भ्रष्टाचार को लेकर ‘जीरो टॉलरेन्स’ का कड़ा संदेश दिया था। सचिवालय में दलालों की एंट्री बंद करने के उनके फैसले की स्वीकारोक्ति तो दबी जुबान से विपक्षी खेमा भी करता है। बाकी शिक्षा, स्वास्थ और बुनियादी सुविधाओं का त्रिवेन्द्र राज में गांव-गांव हुआ विस्तार तो सबके सामने है ही। पारदर्शी शासन, चहुँमुखी विकास और सामाजिक उत्थान के इस दौर में स्वार्थी तत्व हैरान भी हैं और परेशान भी।
इस मुकदमे में हाईकोर्ट का फैसले से सब हैरान है। हांलाकि कानूनविद् मानते हैं कि कानूनी दांवपेच से यह फैसला आया होगा। क्योंकि वादी और प्रतिवादी के मझे हुए वकीलों की दलीलों में कितनी जान है यह माननीय न्यायाधीश तय करते हैं। वहीं, मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र ने कोर्ट के सीबीआई जांच वाले आदेश का सम्मान करने की बात कही है। कोर्ट के इस आदेश से जांच होने पर दूध का दूध-पानी का पानी हो जाएगा, लेकिन ये भी सोचना होगा कि निजी स्वार्थ के चलते कैसे कुछ राजनेता और भ्रष्टाचारी प्रदेश की छवि तक पर किस हद तक दांव पर लगा देते हैं, यह सब सामने आ गया है।
सवाल अब यह भी उठता है कि जब तक त्रिवेन्द्र मुख्यमंत्री नहीं थे तो तब तक ये मुद्दा क्यों नहीं उठाया गया। तब उनके खिलाफ झारखंड या उत्तराखंड में मुकदमा दर्ज क्यों नहीं किया गया। उस समय तो वे सीएम भी नहीं थे, और आसानी से उन पर कार्रवाई भी हो सकती थी। ऐसा इसलिये नहीं किया गया क्योंकि त्रिवेन्द्र सिंह रावत कहीं किरदार में थे ही नहीं। जब त्रिवेन्द्र मुख्यमंत्री बने तो अपने ईशारों पर उन्हें चलाने के कोशिश करने वालों को हर जगह हार ही मिली और इसके बाद शुरु हुआ यह प्रपंच। उत्तराखंड की कमान फिर से भ्रष्टाचारियों को सौंपना इनका उद्देश्य था। आज राज्य की छवि दांव पर लग गई है, लेकिन इन्हें क्या फर्क पड़ता है। यह तो सिर्फ सत्ता की मलाई और दलाली करते हैं । गुमराह करने और ईमानदार नेताओं की राजनीति हत्या करने की कोशिशें राजनीति में कोई नई बात तो है ही नहीं। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र यदि ऐसे लोगों की हाँ में हाँ मिला रहे होते तो आज उन्हें अपनी ईमानदारी और कड़क प्रशासक की छवि की इस तरह की कीमत न चुकानी पड़ती जैसे वो चुका रहे हैं। लेकिन जनता है सब जानती है।
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