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आपसी गुटबाजी ने उत्तराखंड में डुबोई कांग्रेस की नाव

  • -लीडरशिप के अभाव में भी पार्टी नहीं बना पाई अपने पक्ष में माहौल
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
देहरादून। उत्तराखण्ड में कांग्रेस की अंर्तकलह ने चुनाव में कांग्रेस को पूरी तरह से डूबाने का काम किया है। पूरे चुनाव में कांग्रेसी दिग्गज एक मंच पर कहीं नजर नहीं आए। आपसी कलह के चलते कांग्रेस की चुनावी तैयारियां भी बूरी तरह से प्रभावित हुई। ऊपर से 2017 के चुनाव में कई कांग्रेस दिग्गज भाजपा में शामिल हो गए थे। जिसके बाद से कांग्रेस में मास लीडर की कमी खल रही थी। जिसके चलते कांग्रेस चुनाव में अपने में माहोल तैयार करने में पूरी तरह से विफल साबित हुई।
उत्तराखंड में 2014 का इतिहास दोहराया गया है।  पिछली बार भी राज्य की पांचों सीटें बीजेपी के खाते में गई थीं। वैसे तो पूरे देश में 2014 की तरह ही इस बार भी मोदी लहर दिखाई दे रही है। लेकिन, कांग्रेस की ऐसी पराजय के पीछे कुछ दूसरी बड़ी वजहें भी हैं. उत्तराखण्ड जैसे छोटे राज्य में भी कांग्रेसी नेताओं के बीच पूरे टाइम अपनी डफली अपना राग देखने को मिला।
हरीश रावत, प्रीतम सिंह इंदिरा हृदयेश एक-दो मौके पर ही साथ दिखे. बाकी सब अलग-अलग कांग्रेस को मजबूत करने का दावा करते रहे. इस अलग-अलग प्रयास का नतीजा ये हुआ कि पिछले चुनाव के मुताबले इस चुनाव में कांग्रेस ज्यादा बड़े अंतर से हार रही है. और तो और पार्टी के दो बड़े दिग्गज बुरी तरह परास्त हुए हैं। उत्तराखंड कांग्रेस के दो बड़े दिग्गज प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह और हरीश रावत खुद चुनाव मैदान में थे।
प्रीतम सिंह टिहरी से चुनाव हार गए हैं। 2014 की तुलना में कांग्रेस कैण्डिडेट की इस चुनाव में बड़ी हार हुई है। टिहरी से माला राज्यलक्ष्मी शाह 2014 में 1.92 वोटों से जीती थीं लेकिन इस बार तो जीत का अंतर 2 लाख पार कर गया है। ऐसा ही हाल हरीश रावत का नैनीताल सीट पर हुआ है। पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ रहे भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट लगभढाई लाख से वोटों से हरीश रावत को पटखनी देने में कामयाब रहे। सबसे बड़ी कहानी तो अल्मोड़ा सीट की है।  यहां से राज्यसभा के सांसद प्रदीप टम्टा अब तक के सबसे बड़े अंतर से चुनाव हारे है। हरिद्वार और गढ़वाल की भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। वैसे तो कांग्रेस 2017 के विधानसभा चुनाव में भी बुरी तरह हार गई थी लेकिन, ऐसा लग रहा था कि सत्ता विरोधी लहर और विपक्ष के संघर्ष के चलते उसे लोकसभा में थोड़ा फायदा होगा लेकिन, हुआ इसके उलट हुआ।
दरअसल कांग्रेस एक साथ कई राजनीतिक मोर्चों पर जूझ रही है। पहला तो यह कि उसकी पूरी लीडरशिप 2017 के चुनाव से पहले भाजपा में आ गई थी। इस वजह से जिले-जिले में उसका काडर भी ध्वस्त हो गया। जो नेता बचे भी वह भी अपनी-अपनी राह पर चलते रहे. पार्टी की हालत का अंदाजा लगाइये कि 2 साल पहले प्रीतम सिंह कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए थे लेकिन, आपसी खींचतान के कारण आज तक वह अपनी टीम यानि प्रदेश की कार्यकारिणी तक नहीं बना सके.दूसरी तरफ हरीश रावत हमेशा ही पार्टी संगठन से अलग चलकर अपनी पहचान बनाने में जुटे रहे। इंदिरा हृदयेश कभी इधर, तो कभी उधर का रुख करती रहीं। हाल यह रहा कि जिस मुद्दे पर कांग्रेस प्रदेश की भाजपा सरकार को घेर सकती थी उन मुद्दों पर भी उसका संघर्ष तब देखने को मिला जब मीडिया में मामला पुराना पड़ गया। ले-देकर राफेल और गन्ने की कीमत के आंदोलन से कांग्रेस आगे नहीं बढ़ सकी. और इनका उसे कोई फायदा मिला नहीं।

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