पौड़ी जिले का बंडुल गांव, जहां हैं अब 40 में से दो परिवार और वोटर सिर्फ तीन
जिले में 341 गांव पलायन के चलते हुए वीरान
गाँव खेती से ही बचेंगे लेकिन सरकारों के पास नहीं कोई ठोस नीति
पौड़ी (गढ़वाल) : राज्य को अस्तित्व में आए 16 साल का एक लम्बा समय गुजर चुका है, लेकिन पर्वतीय क्षेत्र के गांवों की सूरत बदलने की बजाए और बदरंग होती जा रही है। सियायत की उपेक्षा का दंश झेल रहे तमाम गांवों में तो वर्तमान में अगुलियों पर गिनने लायक लोग ही रह गए हैं।
बावजूद इसके लोकतंत्र में भागीदारी को लेकर उनका हौसला जरा भी डिगा नहीं है। अब कोट विकासखंड के बंडुल गांव को ही ले लीजिए। 40 परिवारों वाले इस गांव में अब केवल दो परिवार ही रह गए हैं और इनमें वोटर हैं सिर्फ तीन। आजादी के 70 साल बाद भी पानी, बिजली व सड़क सुविधा से महरूम यहां के निवासियों की लोकतंत्र में आस्था डिगी नहीं है।
बंडुल गांव की 75 वर्षीय पुष्पा देवी कहती हैं कि मतदान स्थल करीब तीन किमी दूर है। बावजूद इसके यहां के लोग उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में हमेशा अपने मताधिकार का प्रयोग करते आए हैं और इस बार भी करेंगे। हालांकि, सरकारी उपेक्षा से वह खासी आहत भी हैं। वह बताती हैं कि जब उत्तराखंड बना, तब गांव में 40 परिवार थे। लेकिन, सुविधाओं के अभाव में लोग धीरे-धीरे पलायन करते चले गए। नतीजा, खाली होते गांव के रूप में सामने आया।
अपनी 65 वर्षीय माता उषा देवी के साथ रह रहे 40 वर्षीय नवीन कहते हैं कि गांव के लोग हमेशा लोकतंत्र के महोत्सव में भाग लेते आए हैं, लेकिन अब तक किसी भी सरकार ने ग्रामीणों की सुध लेने की जहमत नहीं उठाई। अलबत्ता, पौधरोपण के नाम पर गांव को चारों ओर चीड़ के जंगल से जरूर घेर दिया गया है।
गांव छोड़ चुके सुरेंद्र चंद्र जुयाल बताते हैं कि राज्य आंदोलन की भूमि पौड़ी से सटे विकासखंड कोट का बंडुल आज सड़क, पानी जैसी मूलभूत जरूरत के लिए जूझ रहा हैं। गांव में बिजली भी 2007 में पहुंची। सिस्टम की इस बेरुखी के चलते धीरे-धीरे गावं खाली होता चला गया। यही नहीं, जंगली जानवरों का खौफ भी पलायन एक बड़ी वजह बना।
कभी एक दौर में बंडुल गांव में खेतों में फसलें खूब लहलहाती थीं, लेकिन अब खेत बंजर में तब्दील होते जा रहे हैं। लोग बताते हैं कि 2007 से पहले तक गांव की सिंचित भूमि में धान, गेंहू, प्याज, लहसुन, तंबाकू का बड़ी मात्रा में उत्पादन होता था। जबकि, अङ्क्षसचित भूमि में धान, गेहूं, मंडुवा, झंगोरा के साथ ही उड़द, सोयाबीन, तोर, गहथ समेत अन्य दलहनी फसलें खूब हुआ करती थीं। खेती ग्रामीणों की आजीविका का मुख्य साधन भी थी, लेकिन पलायन की मार ऐसी पड़ी कि खेती लगभग खत्म हो गई है।
क्षेत्रफल के लिहाज से विशाल भूभाग वाले पौड़ी जिले में पलायन की मार का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि कुल 1212 गांवों में से 341 खाली हो चुके हैं। चकबंदी आंदोलन के प्रणेता गणेश सिंह गरीब कहते हैं कि पहाड़ के इन गांवों को आबाद करने के लिए सरकार के पास न पहले ठोस नीति थी। न आने वाली सरकारों के पास ही कोई विजन नजर आ रहा हैं। उन्होंने कहा कि गांव खेती से ही बचेंगे, लेकिन सरकारों के पास कृषि की समृद्धि को लेकर कोई नीति ही नहीं हैं।