POLITICS

अनिल बलूनी से भाजपाइयों को ईष्या नहीं प्रेरित होना चाहिए

  • भाजपा में अनिल बलूनी तो कांग्रेस में हरीश रावत ही चर्चाओं में 
  • मसीहाई छवि बन जाएगी अनिल बलूनी की गांव के आबाद होने पर
  • पैराशूट नेता की छवि से इतर अलग नज़र आने लगे हैं अनिल बलूनी 
  • हरदा की सक्रियता विपक्ष के सबसे बडे नेता का करा ही देती है अहसास

वेदविलास उनियाल

आम तौर पर उत्तराखंड के राज्यसभा के लिए चुने गए सांसद दिल्ली में जाकर केवल पदों को सुशोभित ही करते रहे। लेकिन इस बनी हुई धारणा को अनिल बलूनी ने इस तरह तोड़ा है कि वह राज्य में दूसरे भाजपाई से ज्यादा सक्रिय नजर आ रहे हैं। वहीं दो विधानसभा क्षेत्रों का चुनाव हारने के बाद राज्य की राजनीति में भी एकदम अप्रांसगिक से लगते हरीश रावत ने अपनी राजनीतिक करवट ऐसी बदली कि विपक्ष के तौर पर राज्य संगठन के नेताओं और विधानसभा में कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं से वह ज्यादा सक्रिय दिख रहे हैं। जहां अनिल बलूनी लगातार राज्य के लिए अलग अलग योजनाओ को लाकर अपने वजूद का अहसास करा रहे हैं वही विपक्ष की आवाज के लिए हरीश रावत की ओर ही देखा जा रहा है। मीडिया की तलाश भी इन दोनों नेताओं के लिए दिखती है।

भारतीय जनता पार्टी के मीडिया प्रवक्ता के बतौर जब अनिल बलूनी ने कहा था कि वह उत्तराखंड के तब के मुख्यमंत्री हरीश रावत के खिलाफ किसी भी सीट से चुनाव लड़ने की चुनौती देना चाहते हैं तो इसे बहुत हल्के तौर पर लिया गया। तब यही माना गया कि अनिल बलूनी कहीं न कहीं चर्चा मे बने रहने की कोशिश कर रहे हैं या उत्तराखंड की सियासत में अपने स्तर को बताना चाहते हैं कि भाजपा हरीश रावत जैसे कद्दावर नेता के समक्ष उन्हें टिकट दे सकती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि उत्तराखंड के चुनाव से पहले दिए गए इस बयान के समय अनिल बलूनी भारतीय जनता पार्टी के उच्च स्तर पर अपने संबंधों की कड़ी को मजबूत कर चुके थे। वाराणसी में नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रक्रिया और हालात की बारिकी से देखरेख और पार्टी के जरिए सौंपे गए कामों में दक्षता के चलते उनके पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की नजरों में वह और विश्वसनीय हो गए । यही वजह है कि बिल्कुल जिस शैली में उत्तराखंड में भाजपा की जीत के बाद त्रिवेन्द्र रावत को राज्य की बागडौर सौंपी गई उसी तरह राज्यसभा की सीट पर अनिल बलूनी को लाने में कोई संकोच नहीं बरता गया। नरेंद्र मोदी और अमित शाह के काम की जो शैली हैं उसमें अनिल बलूनी ही सबसे उपयुक्त दावेदार होते। भाजपा के सामने पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा, प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट, शौर्य डोभाल आदि विकल्प के तौर पर थे , लेकिन माहौल, सबंध और सियासी रणनीति में अनिल बलूनी बाजी मार गए। यह इस बात का भी संकेत हैं कि संघ की पृष्ठभूमि,पार्टी क्षमता, और जनस्वीकार्यता का राजनीति में अपना महत्व होगा लेकिन इस समय भाजपा के अंदर नरेद्र मोदी और अमित शाह के प्रति विश्वसनीयता और भरोसे पर कायम रख पाना सफलता की सबसे बडी कसौटी है। ब्लू आइस बने अनिल बलूनी से ज्यादा इसे कौन समझेगा। अभी अहमियत किसी खांटी या जनाधार वाले नेता या सेलिब्रिटी की नहीं बल्कि भरोसेमंद की है। अनिल बलूनी इस कसौटी में पास हो गए।

लेकिन सांसद बनने के बाद अनिल बलूनी जिस तरह राज्य के हितों के लिए सक्रियता दिखाने वाले नेता की छवि बनाई है उससे वह अनायास की राज्य की राजनीति में एक बडी धूरी बन गए हैं। वह अपने साथ जिन योजनाओं को लेकर आ रहे हैं उसके प्रति लोगों का रुझान दिख रहा है। अभी उन्होंने जिस तरह पौडी जिले के गैर आबाद गांव ”बौर” को गोद लेने का फैसला किया है , उसकी सराहना होना स्वाभाविक है। उत्तराखंड बनने के बाद इस राज्य में तेजी से हो रहे वह पलायन पर सवाल उठ रहे हैं। साथ ही ”भूतहा” गांवों पर आंकड़े बताए जाते हैं। भाजपा के इस युवा नेता ने इस मर्म को समझते हुए इस गांव को जिस तरह आबाद करने का फैसला किया है उसके नतीजे तो बेहतर होंगे ही, यह दूसरे नेताओं के लिए प्रेरणा बन सकती है। बर्शते वह ईष्या भाव से मुक्त रहे।

राज्य सभा सांसद के बतौर उनकी सक्रियता उस उत्तराखंड को रास आ रही है जो यह मान चुका था कि राजनेता लोगों से बिल्कुल दूरी बरत रहे हैं। समाज से उनका नाता कटता जा रहा है और वह अपने पद प्रतिष्ठा को सियासत की पूंजी मान चुके हैं। अनिल बलूनी ने जिस तरह काठगोदाम दून रेल का श्रीगणेश कराया उससे भी लगने लगा कि वह कागजी या बयानवाजी करने वाले नेता नहीं रहना चाहते, बल्कि कुछ अलग करके दिखाना चाहते । साथ ही एम्स ऋषिकेश के निदेशक को जिस तरह कर्मचारियों की नियुक्ति में अनियमितता के चलते दिल्ली तलब किया गया है, यह लोगों में भरोसा जगाने वाले संकेत हैं। वहीं सीमान्त इलाकों के निवासियों के लिए सैन्य और अर्धसैनिक अस्पतालों में चिकित्सा और उपचार के लिए उनका केन्द्रीय रक्षा मंत्री और गृह मंत्री से सैद्धांतिक स्वीकृति के बाद राज्य के दूरस्थ इलाकों के ग्रामीणों में स्वस्थ्य सुविधाओं के लिए उनके प्रयासों को भी राज्य की जनता में सराहा जा रहा है। 

राजनीति अब बदल रही है। पुराने ढर्रे की राजनीति ने राज्य का बहुत नुकसान किया है। राज्य की जनता अब तेजी से न केवल राजनेताओं से कामकाज की अपेक्षा कर रही है बल्कि राज्य के प्रति हर पहलू पर जिम्मेदार होने की अपेक्षा कर रही है। अनिल बलूनी ने इस मनोभावना को बखूबी समझा है। वह एक जिम्मेदार  और लोगों के लिए काम करने वाले नेता की छवि बनाते हुए दिख रहे हैं। जबकि यह माना जा सकता था कि वह भाजपा के उच्च संबंधों के साथ पैराशूट नेताओं में होंगे । लेकिन इसके विपरीत उन्होंने हर एक ऐसे ठोस मुद्दों को हाथ में लिया है जिनसे जनता का विश्वास उनके प्रति बढ सकता है। अगर गोद लिया हुआ गांव दोबारा बस जाएगा तो इसके बडे दूरगामी परिणाम सामने आएंगे। यह अपनी तरह की एक लग पहल है। उनकी कोशिश यह भी है कि न केवल ऋतुपर्व कौथिग आदि से ऐसे गांवों को जोडा जाए बल्कि गांवों के पुनर्जीवन के लिए एक सक्षण संवाद अभियान चलाया जाए। लोगों से अनुरोध किया जाए। यह एक बेहतर सोच है जो उनकी एक छवि बना सकती है।

अनिल बलूनी भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता है। यह माना जा रहा है कि सांसद रहते हुए वह अपने इस दायित्व के साथ जुड़े रहेंगे। लेकिन यह साफ है कि उनके चयन के साथ अपने आप में वह एक धूरी बन गए हैं। खासकर उत्तराखंड के उन नेताओं में हैं जिनके ऊपर ऊच्च नेताओं का वरदहस्त है। उनकी राजनीति की शैली संगठन के काम करने वाली रही है। भीड़ से घुलमिल जाना, उत्तराखंड के सांस्कृतिक आयोजनों में जाना, पर्व उत्सवों में दिखना इस तरह की शैली के बजाय वह पर्दे के पीछे काम अपना काम करे वाले रहे हैं। वह चर्चा में भी अपने बयानों से रहे हैं। लेकिन पर्दे के पीछे वह बहुत कुशलता से अपने लिए जमीन तैयार करते रहे हैं।

गुजरात की भूमि में रहते हुए जिन संबधों को उन्होंने स्थापित किया था उसे वह और प्रबल बनाते गए। मोदी अमित शाह अपने साथ जोडने केलिए जिन शैली को पसंद करते हैं उसमें अनिल बलूनी खासे खरे उतरे हैं। यह चीजें जनमानस तक नहीं पहुंची है। लेकिन जहां पहुंचनी जरूरी थी वहां पहुंचती रही है। वह अपने काम में पूरी तरह दक्ष थे। लोकसभा में वाराणसी के चुनाव में उनकी जो भूमिका थी उसमें उन्होंन पूरे नंबर पाए। पार्टी के उच्च नेतृत्व को उनसे जो चाहिए था वह हासिल होता रहा। पार्टी प्रवक्ता से इतर कुछ महत्व की जिम्मेदारियों कावह चुपचाप निर्वाह करते गए । एक तरह से वह उच्च नेतृत्व को उन सूचनाओं को तत्परता और विश्वसनीयता से देते रहे जिनकी सियासत में नितांत जरूरत होती है। यहीं से उन्होने अपने भरोसे को और जीता। बिल्कुल कुछ ऐसी ही तर्ज पर उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिह रावत ने भी अहम पद हासिल किया था।

अनिल बलूनी राज्यसभा में जाने के बाद राज्य की उनसे अपेक्षाए निश्चित तौर पर बढेंगी। अब तक महज पार्टी मीडिया प्रवक्ता होने के नाते चर्चा में रहने के बावजूद आम लोग उनसे सीधे नहीं जुडे थे। यहां तक कि दिल्ली मे सामाजिक सांस्कृतिक तौर पर बेहद सक्रिय उत्तराखंडी समाज में वह बहुत घुले मिले नहीं थे। बहुत गिने चुने आयोजनों मे उनकी अपनी भागेदारी दिखी है। यहां तक कि उत्तराखंडी जनमानस जिन सवालों को लेकर उद्वेलित रहा है उसमें उन्हें सक्रिय बनाने की कोशिश भी नहीं हुए। वह निश्चित रूप से संगठन में पर्दे के पीछे वाले नेता रहे। लेकिन अब उनकी सक्रियता लोगों को अलग तरह से उनसे जोड रही है। गैरसैण के मसले पर दिल्ली के उत्तराखंडियों ने दिल्ली को भी अपनी लड़ाई का केंद्र बना लिया है। उत्तराखंडियों की निगाह में दिल्ली की गतिविधियां है। जाहिर है अनिल बलूनी को इस हालात में अपनी भूमिका तय करनी होगी। साथ ही जनता से उन्हें संवाद भी जोडना होगा। पहाडी जनानस नेताओं को अपने आसपास मिलते जुलते देखना चाहता है। यह कडी तेजी से टूट रही है। अनिल बलूनी को इस कडी को भी फिर से जोडना होगा।

बेशक उनके संबित पात्रा जैसे तेजतर्रार मीडिया प्रवक्ता से सहज अच्छे संबंध है। फिलहाल एक संकेत तो जा ही रहा है कि अनिल बलूनी अपनी योजनाओं और कार्यों को जमीन पर उतारने में सक्षम हो रहे हैं। वह छोटे बडे जिस योजना को ला रहे है वह कहीं न कहीं साकार होती दिख रही है।

जिस तरह सीधे उत्तराखंड की राजनीति में न रहते हुए भी भाजपाई नेताओ में अनिल बलूनी फोकस में हैं उसी तरह विपक्ष की राजनीति में हरीश रावत ही राज्य स्तर पर संवाद बनाते दिख रहे हैं। कांग्रेस ने बेशक उन्हें असम की जिम्मेदारी दी हो लेकिन उनकी उत्तराखंड को लेकर सक्रियता विपक्ष के सबसे बडे नेता का अहसास करा ही देती है। वास्तव में जब हरीश रावत राज्य में विधानसभा में भी नहीं है और संगठन में भी नही तब भी उनकी ही आवाज में गौर किया जाता है। राज्य की राजनीति गलियारों में कोई भी चर्चा सुगबुगाहट हरीश रावत और अनिल बलूनी पर केंद्रित हो जाती है।

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