- मुख्यमंत्री रावत ने राज्य आंदोलनकारी बिष्ट के निधन पर शोक जताया
- 1974 की अस्कोट-आराकोट यात्रा ने उनका बदल दिया था जीवन
- डॉ. शमशेर ने कभी भी अपने विचारों से नहीं किया समझौता
- नशा नहीं रोजगार दो, चिपको और उत्तराखंड राज्य आंदोलन के रहे थे अगुवा
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
देहरादून : उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी और वरिष्ठ पत्रकार, चिंतक, प्रखर वक्ता 71 वर्षीय डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट ने अल्मोड़ा स्थित अपने घर में तड़के करीब 4 बजे अंतिम सांस ली। वे पिछले 4 वर्षों से शुगर और गुर्दे की तकलीफ के कारण अस्वस्थ चल रहे थे। बीते दिनों एम्स में ऑपरेशन के बाद वह घर पर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे। डॉ. बिष्ट के चले जाने से राज्य आंदोलनकारी और देश-विदेश के सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ता स्तब्ध हैं।
वहीं मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने अल्मोड़ा निवासी उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलनकारी डाॅ. शमशेर सिंह बिष्ट के निधन पर गहरा दुःख व्यक्त किया है। उन्होंने दिवंगत आत्मा की शांति व शोक संतप्त परिवारजनों को दुख की इस घड़ी में धैर्य प्रदान करने की ईश्वर से प्रार्थना की है।
1972 में अल्मोड़ा छात्रसंघ अध्यक्ष रहे डॉ. बिष्ट ने पर्वतीय युवा मोर्चा, उत्तराखंड लोकवाहनी के संस्थापक होने के साथ नशा नहीं रोजगार दो, वन बचाओ समेत राज्य आंदोलन में सक्रिय रहे। साथ ही नदियों को बचाने व बड़े बांधों के खिलाफ जिंदगी भर संघर्षरत रहे। डॉ. बिष्ट विश्वविद्यालय आंदोलन, नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन, चिपको आंदोलन और उत्तराखंड राज्य आंदोलन के अगुवा रहे थे। नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन में वह 40 दिन जेल में रहे। जंगलों की नीलामी के खिलाफ 27 नवंबर 1977 को नैनीताल में हुए प्रदर्शन में वह आगे रहे। इस प्रदर्शन के बाद रहस्यमय तरीके से नैनीताल क्लब जलकर खाक हो गया था।
वहीं जब पौड़ी में जुझारू पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या हुई तो पौड़ी से लेकर दिल्ली तक शराब माफिया मनमोहन सिंह नेगी का खौफ था और कोई भी उसके खिलाफ बोल नहीं रहा था। ऐेसे में अल्मोड़ा से डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट और रघु तिवारी ने आकर खौफ के सन्नाटे को तोड़ते हुए पौड़ी की सड़कों पर मनमोहन के खिलाफ नारे लगाये और उमेश डोभाल के हत्यारों को पकड़ने के लिये आंदोलन को तेज किया। यह उनका रणनीतिक कौशल ही था कि राज्य आंदोलन की लड़ाई के दौरान अल्मोड़़ा में उन्होने सर्वदलीय संघर्ष समिति के बैनर तले सभी ताकतों को एक मंच पर एकत्रित कर दिया था।
उनका जन्म 4 फरवरी 1947 को अल्मोड़ा में हुआ था। 1974 की अस्कोट-आराकोट यात्रा ने उनका जीवन बदल दिया और सारे प्रलोभन ठुकरा कर वे पूरी तरह उत्तराखंड को समर्पित हो गए। उनके साथी रहे वरिष्ठ पत्रकार व आंदोलनकारी पीसी तिवारी ने कहा कि डॉ. बिष्ट के निधन से राज्य ने अपना एक हितैषी खो दिया है। वह एक ऐसी शख्सियत थे, जो कि सत्ता के दमन से कभी नहीं डरे और हमेशा जनता के पक्ष में आवाज बुलंद करते रहे। उन्होंने कहा कि उन्होंने कभी भी अपनी विचारधारा से समझौता नहीं किया। वह चाहते तो किसी भी राष्ट्रीय पार्टी में शामिल होकर एमपी, एमएएलए बन सकते थे, लेकिन कभी भी विचारों से समझौता नहीं किया। उनकी अंतिम यात्रा में बड़ी संख्या में लोगों से उन्हें नम आँखों से विदा किया जबकि उनके निधन से परिवार में कोहराम मचा हुआ है।