- आज फिर शतरंज की बिसात पर कई को मिली मात
- प्रदेश में इफ़रात में तबादले और नौकरशाही में काम का माहौल शून्य
वरिष्ठ पत्रकार अजित सिंह राठी की कलम से
आज उत्तराखंड की नौकरशाही में हुआ फ़ेरबदल कई मायनों में ग़ज़ब की महत्ता लिए हुए है। बात ख़ालिश तौर पर हाकिमों के बदले जाने की ही नहीं है, बात है निज़ाम के नजरिये की। आज के सभी तबादलों पर मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की मुहर तो जरूर लगी होगी, लेकिन तबादलों का यह ब्लू प्रिंट मुक्कमल तौर पर उनके दिमाग की उपज तो बिलकुल नहीं लगता है।अब तबादलों की समीक्षा कर ली जाय।
कार्मिक विभाग ने तबादलों के जो आदेश जारी किये हैं उनके तहत सबसे पहले मुख्यमंत्री सचिवालय की बात करना उचित रहेगा। मुख्यमंत्री सचिवालय में अभी अपर मुख्य सचिव ओमप्रकाश, सचिव अमित सिंह नेगी और राधिका झा, अपर सचिव आशीष श्रीवास्तव (आईएएस), प्रदीप रावत और मेहरबान सिंह बिष्ट तैनाती है। आज मुख्यमंत्री सचिवालय में राधा रतूड़ी के रूप में एक और अपर मुख्य सचिव और कुमाऊं कमिश्नर राजीव रौतेला के रूप में एक और सचिव की तैनाती हो गयी है। सलाहकार, ओएसडी, पीआरओ, कोर्डिनेटर अदि की फ़ौज अलग से है। शायद ही देश के किसी राज्य में किसी मुख्यमंत्री का इतना भरी भरकम सचिवालय हो। मसला इतना ही भर नहीं है, क्योंकी गंभीरता से देखोगे तो यहाँ भी पावर गेम की स्पष्ट झलक दिखेगी। प्रभावशाली अधिकारियो का एक गुट नहीं चाहता कि ओमप्रकाश मुख्यमंत्री सचिवालय में रहे। वो गुट ओमप्रकाश को हटवा नहीं सका तो राधा रतूड़ी के रूप में एक और अपर मुख्य सचिव की तैनाती कराकर पावर बैलेंस कर दिया है। वैसे भी ओमप्रकाश की अब वो हनक नहीं रही जो शुरुआत में थी। और मज़े की बात यह है कि इस समीकरणों से ओमप्रकाश भी अनभिज्ञ नहीं है। वैसे तो इस सवाल का जवाब खुद ओमप्रकाश ही दे सकते है कि उनके अभी भी सीएम सचिवालय में बने रहने के पीछे उनका कौन सा स्वाभिमान सुरक्षित है। यह भी हो सकता है कि सीएम सचिवालय से जल्द ही विदाई हो जाय।
अब बात करते है आनंद बर्धन की। आनंद बर्धन से गृह और कारागार वापस ही नहीं लिया गया, बल्कि छीन लेने जैसा प्रतीत हुआ है। पंकज पांडेय और चंद्रेश यादव के लिए आक्रामकता के साथ आईएएस एसोसिएशन की अगुआई कर मुख्यमंत्री से मिलने की कोशिश का दंश न जाने उन्हें कब तक उन्हें झेलना पड़ेगा। हालाँकि उन्हें आबकारी विभाग देकर संतुलन बनाने की कोशिश हुई है, लेकिन माहौल के तेवर अपनी जगह है। बर्धन 1992 बैच के आईएएस है और उनके गृह कारागार विभाग नितेश झा को दिए गए है जो उनसे दस साल जूनियर है। यहाँ कनिष्ठता वरिष्ठता के सवाल को तो दरकिनार किया भी जा सकता है लेकिन नितेश झा राज्य में आज तक के सबसे जूनियर अफसर है। यदि गृह या कारागार में कभी सचिव रहे भी है तो ऊपर प्रमुख सचिव जरूर रहे है। इसके पीछे का तर्क यह है कि पुलिस में भी ऑल इंडिया सर्विस के अफ़सर (आईपीएस) होते है और उनकी वरिष्ठता भी आईएएस की तर्ज़ पर चलती है। डीजीपी की तो बात ही छोड़ दो, पुलिस विभाग में जितने भी आईजी, एडीजी है वो सब झा से वरिष्ठ है और ये सब शासन में गृह सचिव की बैठक में आने से इंकार तो नहीं करेंगे लेकिन नहीं आने के बहाने जरूर तलाशेंगे। पुलिस में चौदह साल की सर्विस पर डीआईजी, 18 साल की सर्विस पर आईजी, 25 साल की सर्विस पूरी होने पर एडीजी और 30 साल की सर्विस पूरी होने पर डीजी बनते है। जबकि इस समय के गृह सचिव की कुल सर्विस 17 साल की है। अनूप वधावन जब गृह सचिव बने तब उनकी सर्विस 24 साल से ज़्यादा थी और कुछ दिन बाद वह प्रमुख सचिव बन गए थे।
एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि क्या राज्य की भाजपा सरकार कमिशनरी सिस्टम को खत्म करना चाहती है ??? खत्म नहीं करना चाहती तो कमजोर जरूर कर रही है। नारायण दत्त तिवारी की कांग्रेस सरकार के बाद गढ़वाल को कभी पूर्णकालिक कमिश्नर नहीं मिला, पहाड़ की जनता अधिकारियो के पहाड़ में नहीं रहने का रोना रोती रही और कमिश्नर कभी जुगाड़ लगाकर तो कभी मुख्यमंत्री के करीबी होने का फायदा उठाकर सचिवालय में किसी विभाग का चार्ज लेकर पहाड़ चढ़ने के बजाय देहरादून में ऐशो आराम की जिंदगी जीते रहे। परिणामसवरुप मंडल स्तर के सभी अफसरों ने पौड़ी मंडल मुख्यालय छोड़कर देहरादून में डेरा दाल लिया। और यह सब उन नेताओ के संरक्षण में हुआ जो पहाड़ पहाड़ चिल्लाकर राजनीति करते रहे। और अब तो इंतहा हो गयी जब तीन सौ किलोमीटर दूर कुमाऊं कमिशनरी के कमिश्नर राजीव रौतेला को भी मुख्यमंत्री के सचिव का अतिरिक्त प्रभार देकर देहरादून में रहने की व्यवस्था कर दी गयी।
अब दूसरे तबादलों की बात। कई अधिकारी बेरोजगारी की हालत में है और डीजी सूचना दीपेंद्र चौधरी को मौजूदा जिम्मेदारी के साथ ही आबकारी आयुक्त की जिम्मेदारी भी दे डाली। आरके सुधांशु अब सोच रहे होंगे कि किस घडी में केंद्रीय प्रतिनियुक्ति से राज्य में वापसी का फैसला लिया था। जब आये तो महीने भर तक बगैर पोस्टिंग के खाली घूमते रहे और फिर जो विभाग मिले उन्हें हटाकर सचिव राज्यपाल बना दिया गया, और अब मुँह चिढ़ाने के लिए बायोटेक्नोलॉजी विभाग पकड़ा दिया गया जो कहीं धरातल पर नजर भी नहीं आता। जिन अधिकारियो के दिन बहुरने के नाम नहीं ले रहे हैं उनमे एक आईएएस रंजीत सिन्हा भी है। दो महीने पहले दिया गया अपेक्षाकृत कम महत्व वाला विभाग पंचायतीराज भी वापस ले लिए गया। अब वो कमोबेश खली ही है। जिस सेंथिल पांडियन को पंचायती राज विभाग दिया गया है वो कभी मुख्यमंत्री क्र नज़र में हीरो थे मगर अब…. और शुरुआत में तो शैलेश बगोली मुख्यमंत्री की बेड लिस्ट में थे लेकिन समय बदला और आज वो हैवी वेट हो गए है।
सविन बंसल भी अल्मोड़ा के डीएम रहते मुख्यमंत्री की गुडबुक में थे, यहाँ तक कि मंत्री रेखा आर्य के साथ झगडे के बाद बंसल को अल्मोड़ा से हटाने में महीनों का समय लगाया था, लेकिन आज उनसे खनन निदेशक का प्रभार लेकर पीसीएस अफसर मेहरबान सिंह बिष्ट को दिया है। इस पद पर हमेशा आईएएस रहे है लेकिन मुख्यमंत्री की मेहरबान पर मेहरबानी हो गयी। सीएम ने अपने अपर मुख्य सचिव ओमप्रकाश से नागरिक उड्डयन लेकर दिलीप जावलकर को दिया जिनसे पिछले दिनों मंडलायुक्त गढ़वाल, स्मार्ट सिटी के सीईओ का चार्ज ले लिए था। ओमप्रकाश से नागरिक उड्डयन लिया तो खनन दे दिया। यहाँ यह समझ नहीं आता कि इतनी जल्दी विभाग बदलने से क्या आउटपुट निकलता है।
- बेरोज़गार अफसर और करोड़ों पानी में
एक आईएएस और आईपीएस पर कोई भी सरकार प्रतिमाह दस लाख रूपये का आसपास खर्च करती है। मोटी पगार और उससे जुड़े खर्चे, ऑफिस का खर्च, ड्राइवर, पीए, चपरासी, टेलीफोन, इंटरनेट समेत तमाम सुविधा, रहने के लिए बांग्ला यह सब एक अफसर पर खर्चा होता है।
अब उन अफसरों पर नज़र डालिये जिनके पास अपेक्षाकृत या तो कम काम है या नहीं के बराबर है। सचिव आरके सुधांशु व हरबंश सिंह चुघ, प्रभारी सचिव रंजीत सिन्हा, इंदुधर बौड़ाई, हरिचंद सेमवाल, विजय कुमार ढौंढियाल, बीके संत, अशोक कुमार, वी षणमुगम, आर राजेश कुमार, सविन बंसल, अतुल कुमार गुप्ता, रणवीर चौहान समेत दर्जन भर आईएएस ऐसे है जिन्हे राज्य की मौजूदा ब्यूरोक्रेटिक व्यवस्था में बेरोज़गार की श्रेणी में रखा जा सकता है। और फ़िलहाल दो आईएएस प्रभारी सचिव पंकज पांडेय सस्पेंड है और दूसरे अफसर अपर सचिव चंद्रेश यादव को सरकार ने आज ही बहाल किया है। सरकार इस अफसरों पर महीने में एक से ड़ेढ़ करोड़ रुपया बेकार में ही खर्च कर रही है, जिसे राजकोष पर भर भी कह सकते है और बगैर काम लिए पैसा देकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने की संस्कृति की संज्ञा भी दे सकते है। वैसे अच्छे-बुरे, बेईमान-ईमानदार अफ़सर कोई नहीं होते, सवार ने लगाम टाइट पकड़ी है तो सब काम करने वाले और ईमानदार होते हैं, यदि लगाम ढीली छोड़ी तो फिर बेईमानो और बुरे अफसरों का बोलबाला होता है और सवार ने यदि लगाम ही किसी और के हाथों में दे दी तो कहानी खत्म ही समझो।