लोकसभा सांसद के गले से होते हुए अब राज्यसभा सांसद के गले में अटका
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
देहरादून। यह उस ”खोटे सिक्के” की कहानी है जिसे बड़े-बड़े नेताओं के गले में अटकने का शौक़ है। लेकिन आज तक यह ”खोटा सिक्का” जिसके भी गले में फंसा इसने उसकी फ़जीहत ही करवाई। इसलिए यह ”खोटा सिक्का” कोरोना वायरस की तरह देहरादून से दिल्ली तक जा पहुंचा। इसे राजनैतिक इत्तेफाक ही कह सकते हैं कि कब कौन सी घटना घटित हो जाए। ऐसा ही यह एक ”खोटा सिक्का” है जो कोरोना वायरस की तरह कई नेताओं के गले में फंसकर ख़राश पैदा करता रहा है। लेकिन नेताओं की मज़बूरी कहें या इस वायरस के उनके राज़दार होने का डर, कोरोना वायरस के संक्रमण की तरह अब एक नेता इससे अपने गले में फंसाए घूमते फिर रहे हैं।
इस ”खोटे सिक्के” की कहानी की शुरुआत करते हैं उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आने से पहले यह ”खोटा सिक्का” दुसान इलाके से कभी हाथों में हँसियां और हथौड़ा लेकर चला था और पहुँच गया कुर्सी तक, लेकिन कुर्सी का कोई वज़ूद नज़र न आने के बाद यह ”खोटा सिक्का” तत्कालीन राज्य में एक मंत्री के गले में जा फंसा जब कोई कोरोना को न जानता था और न पहचानता ही था,लेकिन आज के कोरोना महामारी की तरह यह ”खोटा सिक्का” जहां -जहां गया कमोवेश वहां संक्रमण विरोधी दीवारें लगी हुई थी और दरवाजे थे सेनिटाइज, लिहाज़ा वहां भी दाल नहीं गली और वहां से होते हुए यह सिक्का पहुंच गया नकली राजधानी ।
यहाँ पहुँचते ही यह सिक्का एक पूर्व मुख्यमंत्री के गले जा फंसा,जो राज्यपाल बन गए तो उन्हें भी ”खोटे सिक्के” की असलियत पता चली तो उन्होंने भी उसे उगलतने में देर नहीं की और अपने को इसके संक्रमण से बचाते हुए गले में फंसे इस ”खोटे सिक्के” को उगल दिया। अब ”खोटे सिक्के” के सामने रोज़ी -रोटी का संकट आ खड़ा हुआ तो ”खोटे सिक्के” जा फंसे एक और मुख्यमंत्री के गले। और लगे वहां से प्रवचन देने और प्रवचन देते -देते बन बैठे प्रवक्ता। लेकिन मुख्यमंत्री के सत्ताच्चयुत होते ही ”खोटे सिक्के” के दिन फिर खराब हो गए तो जा पहुंचे झोला टांग हरिद्वार और वहां करने लगे नेताओं की करने मिमिक्री।
विलक्षण प्रतिभा का धनी यह ”खोटा सिक्का” जब अनावश्यक रूप से सरकार के काम काज को लेकर फोन घुमाने लगे ही थे तो एक बार वहां से भी एक दिन अचानक अंर्तध्यान हो गये। लंबे समय तक किसी के गले में न फंसने का उन्हें गम सताता रहा क्योंकि आदत जो थी कानाफूसी की लेकिन सिक्के को वे कान नहीं मिल रहे थे जहां वह कानाफूसी करता, आखिकरकार एक दिन ”खोटे सिक्के” को भी अच्छे दिन आने की आहट हुई और वह जा फंसा एक राज्य सभा सांसद के गले।
अब राज्यसभा सांसद को कहाँ पता था कि उनके दरबार में बीरबल से भी ज्यादा विलक्षण प्रतिभा के धनी ”खोटे सिक्के” रूपी महावतार का आगमन हुआ है, चिकनी -चुपड़ी बातों के महिर इस ”खोटे सिक्के” ने जहां एक तरफ सांसद महोदय के दरबार में घुसपैठ शुरू क्या की वहीं सांसद महोदय के अपनों को ही यह ”खोटा सिक्का” उनसे दूर करता चला गया, अब एक मौक़ा यह आया कि सांसद महोदय के अपने भी पराये हो गए और अवसरवादी सिपहसलार सांसद के करीबी।
अब तक तो सांसद महोदय भी लगे ”खोटे सिक्के” की तान से तान मिलाते -मिलाते यह भूल गए कि उनके गले में जो खोटा सिक्का फंसा हुआ है वह तो असली सुर ही बाहर निकलने नहीं दे रहा है और सांसद महोदय अपने बेसुरे गाने को किसी किशोर कुमार या हेमंत कुमार की आवाज़ से कम नहीं आंकने लगे, ऐसा ”खोटा सिक्का” उन्हें बताने लगा। लेकिन लोगों को सांसद महोदय की आवाज़ में वो खनक नहीं सुनाई दी जो ”खोटे सिक्के” के उनके गले में फंसने से पहले निकलती थी।
तमाम तरह से रियाज़ करने के बाद भी सांसद महोदय के गले से वह सुर नहीं फुट पा रहे हैं जिनके तलबगार उनके समर्थक और श्रोता थे। बेचारे सांसद महोदय को अब गले में फंसा खोटा सिक्का न निगलते ही बन रहा है और न उगलते ही क्योंकि इतने समय साथ ही गले में फंसे रहने के चलते ”खोटा सिक्का”उनका भी ख़ासा राज़दार बन गया, अब सांसद जी की परेशानी यह है कि वे अपने गले का आपरेशन करवाकर गले में फंसे ”खोटे सिक्के” को बाहर करें या नहीं क्योंकि उन्हें अब यह डर सताने लगा है कि कहीं ”खोटा सिक्का” उनके राज़ बाहर न कर दे ,अब उनकी मज़बूरी है कि वे गले में ”खोटे सिक्के” को फंसाये ही अपनी सुर लगाते रहें। तब चाहे लोग उनकी तान को तल्लीनता से सुने या न सुनें।
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