गैरसैंण पर अजय भट्ट और इंदिरा हृदयेश की ‘पेशेवर धूर्तता’
किसी नेता में है इस धूर्तता का खुला प्रतिकार करने का साहस ?
प्रदीप सती
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और प्रचंड मोदी लहर में भी बुरी तरह हारने वाले अजय भट्ट ने गैरसैंण के मुद्दे पर फिर से धूर्तता दिखाई है। उनका कहना कि जब तक गैरसैंण में व्यवस्थाएं दुरुस्त नहीं हो जाती, वहां विधानसभा का सत्र आयोजित करना ठीक नहीं है और यह सीधे तौर पर सरकारी धन यानी जनता के पैसे की बर्बादी है। बक़ौल अजय भट्ट, पहले गैरसैंण में सारी सुविधाएं विकसित करने की जरूरत है ताकि सत्र के दौरान किसी भी तरह की परेशानी ना हो। अजय भट्ट की इन बातों से एक बारगी ऐसा लगता है मानो उन्हें उत्तराखंड और यहां की जनता के पैसों को बड़ी फिक्र है। लेकिन उनका पूरा बयान सुनने के बाद उनके असल धूर्त चरित्र का खुलासा हो जाता है। दरअसल इसके बाद अजय भट्ट ने कहा कि उनकी पार्टी की सरकार गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की दिशा में बढ़ रही है।
अजय भट्ट साहब एक तरफ बिना पर्याप्त व्यवस्थाओं के गैरसैंण में विधानसभा सत्र को जनता के पैसों की बर्बादी बताते हैं और दूसरी तरफ ग्रीष्मकालीन, शीतकालीन दो-दो राजधानियों की वकालत कर रहे हैं।
अजय भट्ट जी से पूछा जाए कि एक छोटे से राज्य में दो-दो राजधानियां बनाने से क्या जनता के पैसों की बर्बादी नहीं होगी ? क्या पचास हजार करोड़ रुपये के कर्ज से दबा उत्तराखंड दो-दो राजधनियों का खर्चा उठा पाने में सक्षम है ? क्या इसके लिए अजय भट्ट भाजपा के पार्टी फंड से पैसे दिलवाएंगे ? हम भी इस बात को पुरजोर तरीके से मानते हैं कि गैरसैंण में विधानसभा सत्र के नाम पर हुई अब तक की सभी सियासी नौटंकियां राजनीतिक पाखंड है, मेहनतकश जनता के पैसों की बर्बादी है। हमारी मांग है कि गैरसैंण में सत्र के नाम पर जनता के साथ छलावा बंद हो और स्थायी राजधानी की घोषणा हो। मगर अजय भट्ट को तो ग्रीष्मकालीन राजधानी चाहिए।
अजय भट्ट उत्तराखंड के लोगों को भले ही नादान समझ रहे हैं मगर उनके इस दोहरे और पहाड़ विरोधी चरित्र को प्रदेश की जनता पहले ही समझ चुकी थी। इसका प्रमाण प्रचंड बहुमत के बावजूद उनकी करारी हार है। अजय भट्ट जी से एक सवाल यह भी है कि गैरसैंण में जिन व्यवस्थाओं के न होने का रोना वे रो रहे हैं, उन व्यवस्थाओं की पूर्ति आख़िर किसको करनी है ? उन्हीं की पार्टी की सरकार को ना।? तो फिर वे शिकायत किससे कर रहे हैं ? क्या अजय भट्ट में मुख्यमंत्री से यह बात कहने की हिम्मत है ?
अब बात नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश की जिन्हें ठंड के महाप्रकोप से दो दिन के सत्र के लिए गैरसैंण जाने से डर लगता है। वह भी तब जब उनके लिए बने वीआईपी कमरे में हीटर, गर्म पानी, नौकर, चाकर समेत हर तरह की सुविधाएं दुरुस्त होती हैं। इंदिरा हृदयेश से पूछा जाए कि जो ठंड उन्हें गैरसैंण जाने से डरा रही है, तीन जिलों को छोड़ कर पूरा पहाड़ अदम्य जीवट के साथ उसी ठंड में कैसे और क्यों जीता होगा ? अगर ठंड से उन्हें जानमाल का इतना ही खतरा है तो फिर क्यों इस पहाड़ी राज्य में नेता प्रतिपक्ष जैसे जिम्मेदारी वाले पद पर हैं ? नेता प्रतिपक्ष जनता की आकांक्षाओं को सदन में उठाने वाला संवैधानिक पद होता है। प्रदेश की जनता की आकांक्षा है कि गैरसैंण स्थायी राजधानी बने और इस आकांक्षा को स्वर देने वाले शक्स को गैरसैंण के विधानसभा सदन में ठंड लगती है।
दरअसल मामला ठंड बढ़ने का नहीं बल्कि पहाड़ विरोधी मानसिकता का है। सच बात यह है कि इंदिरा हृदयेश को कभी भी पहाड़ और पहाड़ के सरोकारों से वास्ता ही नहीं रहा। पिछली बार उनका सारा ध्यान मुख्यमंत्री की कुर्सी पर था और इस बार अपनी राजनीतिक वंशबेल बढ़ाने पर। हल्द्वानी की जनता का धन्यवाद जिसने उन्हें निकाय चुनाव में अच्छा सबक सिखा दिया है।
एक सवाल भाजपा-कांग्रेस के उन वर्तमान और भूतपूर्व जनप्रतिनिधियों से भी है जो खुद को पहाड़ हितैषी बताने नहीं अघाते हैं। क्या इनमें से किसी एक में भी इंदिरा हृदयेश और अजय भट्ट की इस धूर्तता का खुला प्रतिकार करने का साहस है ?
गैरसैंण कोई जगह मात्र नहीं बल्कि उत्तराखंड की अवधारणा का केंद्र है। गैरसैंण पहाड़ के विकास के विकेंद्रीकरण का रास्ता है और इसके आलोक में पहाड़वासी पहाड़ के तमाम सवालों का जवाब देखते हैं। स्थायी राजधानी गैरसैंण के मसले पर अजय भट्ट और इंदिरा हृदयेश ने इससे पहले भी कई बार हिकारत भरा बर्ताव किया है। दोनो की इस ‘पेशेवर धूर्तता’ को जनता अच्छी तरह समझ रही है और वक्त आने पर सबक भी सिखाएगी।