बहुत जरूरी थी भव्य थियेटर पर माधो सिंह की गाथा

- माधो सिंह मलेथा की यह भूमि सामान्य भूमि नहीं
- एक सिंह रैंदो बण,एक सिंह गाय का,एक सिंह माधों सिंह और सिंह काहे का
वेद विलास उनियाल
जब श्रीनगर आना या वहां से लौटना होता है सहसा नजरे मलेथा के लहलहाते खेतों की ओर चली जाती है। यह चमकते सुनहरे से खेत अपने आप में एक गाथा लिए हुए हैं। आंखे सजल हो जाती हैं और माधो सिंह मलेथा की कहानी कल्पना की चीज नहीं । एक ऐसा इतिहास है जो युग युगों तक समाज में रहेगी। चार सौ साल पहले पहाडों को तिब्बत के आक्रमणकारियों से मुक्त कराना उस वीर भड सेनापति के युद्ध कौशल का गाथा है लेकिन जिस तरह पहाडों को छान कर तोड कर मलेथा के खेतों के लिए वह वह ऐपानी लाए उस विलक्षण कर्म के लिए उन्हें याद किया जाएगा। वह ऐसे नायक है जो चार सदी पहले के ऐसे नायक है जो सेनापति थे महान इंजीनियर थे कुदाल फावडा गैंती लेकर वह श्रमिक भी बने। माधो सिंह मलेथा की यह भूमि सामान्य भूमि नहीं है। इन नायकों को दुनिया में जाना जाता इसके लिए हमें इस स्तर पर तो आना ही चाहिए था कि उनके शोर्य प्रताप गाथा के लिए कुछ कर सकें। मलेथा के गीत जरूर लगते रहे, मलेथा का जिक्र भी होता रहा लेकिन माधो मलेथा की कहानी दुनिया का ध्यान खींचने वाली है। पहाडों में माधो सिंह को लेकर गीत जागर गाए गए हैं। कहा भी गया, एक सिंह रैंदो बण , एक सिंह गाय का, एक सिंह माधों सिंह, और सिंह काहे का।
दशकों पुरानी बात है, इंदिराजी और बहुगुणाजी श्रीनगर जा रहे थे। इंदिराजी की नजर इन खेतों पर पडी । लहलहाते खेतों को देख रही थीं तो बहुगुणाजी ने उन्हें माधो सिंह मलेथा की शोर्य गाथा को सुनाया था। देर से ही सही अब माधो सिंह मलेथा को उस रूप मे याद किया जाने लगा है । प्रख्यात लोकगायक स्व. चंद्र सिंह राही का एक गीत है, माधो भंडारी का तू मुलुक ऐजा । जिसका सार है तू अपनी भूमि में लौट के आ, माधो मलेथा की जो भूमि है उसे देखने आ जा
अब माधो सिंह मलेथा के लिए अस्सी कलाकारों ने भव्य रंगमंच किया तो कुछ कमिया बेशक हो, कुछ तथ्य से सहमति असहमति हो लेकिन इस विराट मंचन का अपना बडा महत्व है। यह मंचन मुंबई में हुआ। देहरादून में हुआ , वेकुठ चतुर्दशी के मेले में आयोजित हो रहा है और मलेथा में भी खेला जाएगा। शुभ होगा तो विदेश की धरती में भी जाएगा। इसका संवाद यही है दुनिया जाने माधो सिंह मलेथा का इतिहास क्या है। बेशक कुछ एतराज हो सकता है कि पिता ने पुत्र का जीवन क्यों लिया। यह अपराध नहीं था। लेकिन चार सौ साल पहले की घटनाओ में इसे देखना होगा। यह सस्ती ख्याति पाने का उपक्रम नहीं था बल्कि पानी के लिए तरस रहे गांवों को चट्टानों को तोडकर पानी दिलाने का संकल्प था।
विख्यात रंगकर्मी बलदेव राणा ने आखिर नायकों में वीर भड माधो सिंह भंडारी को ही रंगमंच के लिए चुना। अस्सी कलाकारों की टीम लेकर वह इस प्रस्तुति को साकार करते हैं। यह एक तरह से गीत नाटिका है। पवांडा जागर हैं तो प्रीतम भर्तवाण जैसे लोक गायक पहले से रिर्काडेड स्वरों में गीतों में प्रसंगों को बताते चलते है।गीत नृत्य नाटिका है तो गीत संगीत इसका सबक पक्ष होना स्वाभाविक है। मीना राणा वीरेंद्र राजपूत, मनीषा मालकोटी जितेंद्र पंवार सरोजनी भट्ट जैसे गायक गायिकाओं के स्वर हैं।
मंचन करते अस्सी कलाकार कोई सामान्य कलाकार नहीं। ये वो हैं जिन्होंने कला मंचों पर कई दशक साल गुजार लिए हैं। कई मचों पर उनकी अभिव्यक्ति है। माधो सिंह की भूमिका बलदेव राणा ने खुद निभाई है, माधो सिह की जीवनसंगिनी की भूमिका गीता उनियाल ने निभाई। उसका अभिनय नृत्य कौशल देखते बनता है । आज के समय में वह बेहद प्रतिभावान उभरती कलाकार है। डोभाल बंधु ने कैन लगाई बडुली गीत में उसे मुख्य भूमिका में रखा और यहां माधो सिंह भंडारी नृत्य नाटिका की महत्वपूर्ण भूमिका उसे सौंपी गई। माधों सिंह के बेटे वीरसिंह की भूमिका में अक्ष चौहान अपनी चहलकदमी और सुंदर अभिनय से सबका ध्यान खींचते हैं।
पूर्वजों की जीवटता उनके शोर्य लगन संघर्ष को बताती यह नृत्य नाटिका रंगमंच की एक संदर प्रस्तुति के तौर पर ही कही जाएगी। चंद्रकांता मलासी, रोशन धस्माना राजेंद्र रावत सुरेंद्र रावत जैसे मंजे हुए कलाकार है।
यह थियेटर ऐतिहासिक प्रसंग पर है। कुछ पहलुओं दृश्यों या घटनाक्रम को लेकर अलग अलग राय हो सकती है। एक दो गीत के बोल भी अगली प्रस्तुतियों में ठीक किए जा सकते हैं। दृश्य संयोजन बहुत अच्छा था , नृत्य मनोरम। थियेटर के सभी भाव प्रस्तुतियों क अऩुरूप रहे।
इतने भव्य सुंदर मंचन में एक चीज से जरूर बचना चाहिए। मंच संचालको को किसी कथा की तरह नहीं कहना चाहिए। थियेटर का महत्व खत्म हो जाता है। जो कुछ कहना है थियेटर कहेगा, मंच संचालकों को ज्यादा बोलने से बचना चाहिए। एक और कमी झलकती है। निश्चित है कि किसी बडे कर्म को करने के लिए शासक सत्ता का अपना महत्व होता है। सत्ता और प्रभावी लोग आगे आते हैं तो ऐसे मंचो को साकार करने की हिम्मत आती है। लेकिन बार बार उल्लेख करना ठीक नहीं। वीर भड माधों सिंह का अगर थियेटर है तो वह दलगत चीजों से बहुत ऊपर होना चाहिए। । देहरादून के आयोजन में राज्य मंत्री धनसिंह रावत ने यह जरूर उचित कहा कि वीरचंद्र सिंह पर भी ऐसा रंगमंच बनाए। इसके साथ साथ अनुरोध यह भी किया जाना चाहिए कि पर्यावरण की अलख जगाने वाली गौरा देवी को भी हमारे समाज उपेक्षित किया हुआ है। आज के कथित और तथाकथित पर्यावरणविद्द पुरस्कार शाल दुलाशा बटोर ले जाते हैं उनका नाम कहीं नहीं लेते। गौरा देवी पर भी ऐसा विराट मंचन के लिए किसी को आगे आना चाहिए।