निष्प्रयोज्य कानूनों में अब भी उत्तराखंड में हैं वन महकमें से जुड़े सर्वाधिक कानून
उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आने की बाद धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश से विरासत में मिले निष्प्रयोज्य कानूनों को किया जा रहा है समाप्त
प्रधानमंत्री मोदी के निर्देश हैं कि ऐसे सभी निष्प्रयोज्य कानूनों को विचारोपरांत किया जाए धीरे-धीरे समाप्त
राजेंद्र जोशी
देहरादून : जहाँ एक तरफ उत्तराखंड सरकार अविभाजित उत्तरप्रदेश के समय के निष्प्रयोज्य हो चुके और अंग्रेजों के जमाने के कानूनों को ख़त्म करने पर विचार कर रही है,वहीं उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आने की बाद धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश से विरासत में मिले कानूनों को भी समाप्त किया जा रहा है और उनके स्थान पर नए अध्यादेश लाकर उन्हें नए कानूनों की शक्ल दिया जा रहा है, तो उधर उत्तर प्रदेश सरकार भी सौ साल पुराने उन कानूनों को समाप्त करने जा रही है जिनका उत्तराखंड के अविभाजित यूपी में रहते हुए प्रयोग किया जा रहा था, लेकिन अब ये सब उत्तर प्रदेश के लिए किसी काम के नहीं रह गए हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश हो या उत्तराखंड या देश के का कोई अन्य राज्य प्रधानमंत्री मोदी के निर्देश हैं कि ऐसे सभी निष्प्रयोज्य कानूनों को धीरे-धीरे समाप्त कर दिया जाना चाहिए जिनका अब कोई औचित्य नहीं रह गया है।
उत्तर प्रदेश से अलग हुए उत्तराखंड को बीस वर्ष हो चुके हैं लेकिन दोनों ही जगह वर्ष 1920 का कानून आज भी बरकरार है यानी सौ साल पुराना क़ानून अभी भी चल रहे हैं। लेकिन उत्तरप्रदेश में जो कानून सबसे ज्यादा निष्प्रयोज्य हो चुके हैं वे वनों से सम्बंधित कानून हैं जिनमें ‘यूपी रूल्स रेगुलेटिंग द ट्रांसपोर्ट टिंबर इन कुमाऊं सिविल डिवीजन -1920’ जानकार बताते हैं कि उत्तरप्रदेश में अब इस कानून का क्या औचित्य जबकि अब उत्तराखंड अलग राज्य बन चुका है, और कुमाऊं उत्तराखंड का एक मंडल। लेकिन उत्तरप्रदेश वन विभाग का यह कानून अभी भी बरकरार है।
वहीं उत्तर प्रदेश में 82 साल पुराना एक और कानून है। ‘यूपी रूल्स रेगुलेटिंग ट्रांजिट आफ टिंबर आन द रिवर गंगा एबब गढ़मुक्तेश्वर इन मेरठ डिस्ट्रिक एंड आन इटस ट्रिब्यूटेरिस इन इंडियन टेरिटेरी एबब ऋषिकेश- 1938…’। यह कानून भी उत्तर प्रदेश के लिए बेवजह का सरदर्द बना हुआ है जबकि ऋषिकेश भीअब उत्तराखंड का हिस्सा बन चुका है। हालांकि इस कानून के नाम और उपयोगिता पर उत्तराखंड में भी चर्चाओं का दौर जारी है क्योंकि यह नाम इतना लंबा है और अब इसकी कितनी उपयोगिता है यही यहां भी और वहां भी कानूनविदों में बहस का मुद्दा है।
उत्तराखंड को सबसे ज्यादा परेशान करने वाले वन कानून ही उत्तर प्रदेश को भी अब परेशान कर रहे हैं इनमें ”इंडियन फारेस्ट यूपी रूल 1964, यूपी कलेक्शन एंड डिस्पोजल आफ डि्रफ्ट एंड स्टैंडर्ड वुड एण्ड टिंबर रूल्स, सहित यूपी कंट्रोल आफ सप्लाई डिस्ट्रब्यूशन एंड मूवमेंट आफ फ्रूट प्लांटस आर्डर-1975, यूपी फारेस्ट टिंबर एंड ट्रांजिट आन यमुना, टौंस व पबर नदी रूल्स 1963, यूपी प्रोडयूस कंट्रोल ,यूपी प्रोविंसेस प्राइवेट फारेस्ट एक्ट” आज भी उत्तरप्रदेश में लागू हैं जबकि यमुना, टौंस और पबर नदियां अब उत्तराखंड के भीतर बाह रही हैं।
गौरतलब हो कि अविभाजित उत्तरप्रदेश के समय में ये सभी कानून अबके उत्तराखंड में भी लागू थे और उत्तरप्रदेश की तरफ बहने वाली गंगा, यमुना,टौंस पबर नदियों से ही लकड़ियों का परिवहन किये जाने की व्यवस्था थी। क्योंकि उस दौरान उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में जितनी सड़कें अब बन चुकी हैं तत्कालीन समय में थी ही नहीं और राज्य में लकड़ी के व्यवसाय भी आय का बहुत बड़ा साधन हुआ करता था इसलिए नदियों से ही लकड़ियों के बड़े-बड़े स्लीपर्स का परिवहन होता था। वन ठेकेदार पर्वतीय इलाकों के दूर दराज से क्षेत्रों से पहले पेड़ों को काटकर उनके स्लीपर बनाया करते थी और परिवहन से पहले उनकी टहनियों को नदियों में बहाया करते थे जो नदियों के खोहों और घुमावदार धारों में फंसकर पानी के प्रवाह को सीधा कर देते थे, जिसके बाद ऊपर से पेड़ों को काटकर बनाये गए स्लीपर्स को नदियों में बहाया जाता था जो सीधे -सीधे बहते हुए तराई तक पहुँच जाते थे इन्हे यहाँ कालसी, डाकपत्थर, ऋषिकेश ,रायवाला और टनकपुर सहित सुल्तानपुर ऊधमसिंह नगर में इन्हे नदियों से निकलकर ट्रकों या रेल मार्ग के परिवहन किया जाता था। हालांकि वर्तमान में पहाड़ों में वन कटान का काम अब वन निगम के पास है और वह अब नदियों के बजाय सीधे ट्रकों से अपने डिपो तक इनका ढुलान करता है, लिहाज़ा अब ये कानून उत्तराखंड के लिए भी निष्प्रयोज्य हो चुके हैं, जिन्हे हटाने पर यहां भी विचार चल रहा है।