UTTARAKHAND

माधोसिंह भंडारी का “मलेथा गांव” और वहां के लोक नियम और अनूठी परम्पराऐं

माधोसिंह भण्डारी नाम के शख्स ने बिना किसी आधुनिक यन्त्र के एक ऐसी सुरंग का निर्माण किया जो आज भी शोध का विषय बना हुआ है

मलेथा से प्रेम पंचोली
उत्तराखण्ड राज्य में लोगों ने स्वयं के ज्ञान से कई अविष्कार किये हैं। इनमें से श्रीनगर गढवाल के पास मलेथा गांव में माधोसिंह भण्डारी नाम के शख्स ने बिना किसी आधुनिक यन्त्र के एक ऐसी सुरंग का निर्माण किया जो आज भी शोध का विषय बना हुआ है। इस सुरंग के मार्फत माधोसिंह ने ग्रामीणों के लिए न कि पानी की आपूर्ति की बल्कि मलेथा जैसी जमीन को सिंचित में तब्दील कर दिया। माधोसिंह भण्डारी की ही देन है कि ”मलेथा का सेरा” आज हजारों लोगों की आजीविका का साधन बना हुआ है। यही वजह है कि ‘मलेथा गांव’ के लोग अनाज इत्यादि खाद्य सामग्री कभी भी बाजार से नही लाते। माधोसिंह के मलेथा गांव में आज भी ऐसी कई परम्पराऐं हैं जो आज के युग में आदर्श बनी हुई है।

275 परिवारों के 110 एकड़ खेत सिंचित होते हैं, लेकिन कभी पानी को लेकर गांव में झगड़ा नहीं हुआ। यही है मलेथा गांव की व्यवस्था की खासियत का एक अनूठा उदाहरण।

वीर योद्धा माधो सिंह ने 17वीं शताब्दी में लगभग डेढ सौ मीटर कठोर पहाड़ को काटकर जो सुरंगनुमा गूल बनाई थी वह अक्सर कई कारणों से चर्चाओं में रहती है। निर्माण की गुणवत्ता ही नहीं इसमें मानवीय संवेदनाऐं भी निहित रही है। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि जहां गूल बनी है, वहां सीधे ऊपर से नीचे तक पहाड़ की कटाई होनी थी। तत्काल गांव के किसी बुजुर्ग ने यह सलाह दी कि यदि उक्त जगह पर पहाड़ काटकर गूल का निर्माण किया गया और इसमे कभी कोई आदमी या जानवर गिर जाय तो नही बच पायेगा। तब यह सोचा गया कि गूल से अच्छा भला कि सुरंग निर्माण किया जाये। माधोसिंह ने तत्काल ठान ली कि वे इस सुरंग का निर्माण करके ही चैन की सांस लेंगे।
‘कहा जाता है कि एक बार वे श्रीनगर दरबार से वापस अपने गांव लौटते वक्त उन्हें काफी भूख लगी थी। उनकी पत्नी ने जब उन्हें खाना परोसा तो वह खाना रूखा-सूखा था। कारण जानने पर मालूम हुआ कि गांव में पानी की भंयकर किल्लत हो चुकी है। सब्जियां और अनाज का उत्पादन बिल्कुल बंद हो चुका था। इस पर माधोसिंह को रात भर नींद नहीं आयी। अलकनंदा नदी तो गांव से काफी नीचे और दूर बहती थी, जिसका पानी गांव में पहुँच ही नहीं सकता था। मगर गांव के ही पास में चन्द्रभागा नदी बहती है जिसका पानी गांव तक पंहुच सकता था, परन्तु नदी और गांव के बीच में पहाड़ था। माधोसिंह ने इसी पहाड़ के सीने में सुरंग बनाकर पानी गांव लाने की ठानी।
माधोसिंह शुरू में अकेले ही सुरंग खोदते रहे लेकिन बाद में गांव के लोग भी उनके साथ जुड़ गये। कहते हैं कि जब सुरंग बनकर तैयार हो गयी तो काफी प्रयासों के बावजूद भी पानी उसमें नहीं आया। किवदन्ती है कि इन्ही दिनों रात को माधोसिंह के सपने में उनकी कुलदेवी प्रकट हुई और उन्होंने कहा कि सुरंग में पानी तभी आएगा जब वह अपने इकलौते बेटे गजेसिंह की बलि सुरंग के मुहायने पर देगा। माधोसिंह का ऐसा करने के लिए हाथ-पाव फूल गये। लेकिन जब उनके बेटे गजेसिंह को पता चला तो वह खुद को बलि चढने के लिए तैयार हो गया। गजेसिंह गांव में पानी की सुविधा उपलब्ध करवाने के लिए बलिदान हो गया और इसी सुरंग से गांव तक पानी भी पहुंच गया। एक तरफ गजेसिंह का मौत का मातम पसरा था वही दूसरी तरफ गांव वालों के चेहरों पर खुशहाली थी।

मलेथा निवासी वीर माधो सिंह भंडारी को श्रद्धांजलि देते हुए उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने उनके नाम पर उत्तराखंड तकनीकी विश्वविद्यालय (UTU) का नाम वीर माधो सिंह तकनीकी विश्वविद्यालय करने की घोषणा की है।

इस गूल पर आज भी ढोल नगाड़ो के साथ पानी लाने के लिए पूरे गांव से लोग चन्द्रभागा नदी पर जाते हैं। वहां नदी पर बांध बनाकर पानी लाया जाता है। जिससे 275 परिवारों के 110 एकड़ खेत सिंचित होते हैं, लेकिन कभी पानी को लेकर गांव में झगड़ा नही हुआ। यही है मलेथा गांव की व्यवस्था की खासियत का एक अनूठा उदाहरण।
तीन किमी क्षेत्र में फैले इस गांव में 22 जातियों, उपजातियों के 275 परिवार यहां निवास करते हैं। इस तरह गांव ”माल खोला, बिचला खोला, बंगारयों खोला, नेग्यों खोला में बंटा है। इतनी सारी भिन्नताओं और परिस्थितियों के बावजूद जोड़े रखती है इस गांव की व्यवस्था। गांव में रोपाई से पूर्व पंचायत होती है। पंचायत बुलाने के लिए यूं तो प्रबन्ध कार्यकारणी है, लेकिन सूचना देने वाला ”पौरी” सूचना देने के लिए नियुक्त होता है।
इस व्यक्ति को बैठक ही नहीं कार्यकारणी के हर निर्णय को समय पर देने यथा जंगल में लकड़ी कटान कब होगा, पानी कौन उपयोग करेगा, कब सार्वजनिक उत्सव होंगे जैसी सूचनाऐं देनी होती है। उसके बदले उसे ”प्रचार खेत” मिलता है, जिस पर उगा अनाज उसे मिलता है।
कार्यकारणी की पंचायत में रोपाई के लिए पानी लाने की तिथि और उस दिन देवी-देवताओं के भोग लगाने के लिए पकवान आदि का अंशदान ”म्यलाग” इसी बैठक में क्रमवार पानी पंहुचाने की जिम्मेदारी के लिए ”कोल्लालू” और बंदरो से फसल बचाने के लिए ”बंदरवाल्या” नियुक्त होता है, जिन्हें प्रत्येक परिवार से फसल के तैयार होने पर अनाज मिलता है और काम ठीक न करने पर इसमें कटौती का प्रावधान होता है। इसी तरह द्यूलेश्वर शिवालय में पूजा-अर्चना करने वाले और सामग्री के लिए ”बिंदी खेत” और नागराजा, बद्रीकेदार आदि खेत की उपज मेहनताना दिया जाता है। ओलावृष्टि को मंत्रों से दूसरी तरफ भेजने वाले बलूनी परिवारों के लिए ”डाल्यूं खेत” दिये गये हैं।

“एक सिंह रैंदो बण, एक सिंह गाय का, एक सिंह माधो सिंह, और सिंह काय का”
उत्तराखंड में प्रसिद्ध इस लोकोक्ति का अर्थ है- एक सिंह वन में रहता है, एक सींग गाय का होता है। एक सिंह माधो सिंह है, इसके अलावा बाकी सिंह बेकार हैं।

गांव की पंचायत अपने वनों के प्रति सचेत है। घास तो वर्ष में कभी भी कितना भी वनों से लो, मगर लकड़ी कितनी काटनी है, इसके लिए मानक निर्धारित हैं। गांव में शादी-ब्याह जैसे व्यक्तिगत आयोजन खोला स्तर पर ही होते हैं, पर सभी ग्रामीणों को निमन्त्रित भी किया जाता है। सार्वजनिक आयोजनों में सभी का शिरकत करना जरूरी है। कई मंदिरो में पूजा, माधोसिंह भण्डारी स्मृति मेला, श्रमदान और पंचायत बैठको में सभी ग्रामीण अनिवार्य रूप से भाग लेते हैं |
गांव के भले के लिए अपने प्राण देने वाले माधो सिंह भण्डारी के पुत्र गजे सिंह की स्मृति में रोपाई के अन्तिम दिन ”मायाझाड़ा खेत” में समारोह होता है। बकरे की बलि दी जाती है। समाज के लिए बलिदान की याद शायद यही पंरपराओं को निभाने की शक्ति और प्रेरणा देता हो।
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