ऐसा अभागा राज्य जिसे 20 वर्ष में भी एक अदद स्थाई राजधानी नहीं मिल पायी
भ्रष्ट नेताओं और भ्रष्ट नौकरशाही ने राज्यवासियों की उम्मीदों पर फेरा पानी
राज्य के संसाधनों का स्वहित में किया जा रहा है जमकर दोहन
देवभूमि मीडिया ब्यूरो देहरादून : वर्ष 1952 से अलग राज्य के लिए चलने वाले जनांदोलन व तमाम शहादतों के बाद आखिरकार वर्ष 2000 में अस्तित्व में आए उत्तराखंड को राज्य गठन के बाद 20 वर्ष में भी एक अदद स्थाई राजधानी नहीं मिल पायी है। राज्य गठन के बाद पहाड़वासियों को लगा था कि अपना प्रदेश भ्रष्टाचार मुक्त होगा, नेता और नौकरशाह अपने ही होंगे,चारों ओर खुशहाली आएगी, अपने राज्य की समस्याओं का अंत होगा लेकिन राज्य गठन के बाद से ही जनहित के मुद्दे हाशिए पर नजर आ रहे हैं। राज्य गठन के बाद जो भी दल सत्ता में रहा है उसने गैरसैंण राजधानी के मुद्दे को भुनाया, और इसकी आग में अपनी राजनीतिक रोटियां सेकीं लेकिन सत्ता संभालते ही गैरसैंण सभी के लिए गैर हो गया, यहां तक कि राज्यादोलन के दौरान राज्य का सबसे हितैषी होने का दावा करने वाली उत्तराखंड क्रांति दल कभी कांग्रेस की गोद में तो कभी भाजपा की गोद में सत्ता की मलाई चाटते-चाटते ख़त्म हो गया। राज्य के अस्तित्व में आने के बाद जो भी राजनीतिक दल सत्ता में रहा उसके कार्यकाल में जहां सूबे में नौकरशाही हावी रही वहीं भ्रष्टाचार व कमीशनखोरी बेलगाम रही है।
गौरतलब हो 15 अगस्त 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने लाल किले से उत्तराखंड राज्य गठन की घोषणा की इसके बाद 15 अगस्त 1997 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने भी लालकिले से पृथक प्रदेशगठन का संकल्प दोहराया। तीन अगस्त 1998 को प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल विहारी बाजपेयी नीत भाजपा सरकार के मंत्रीमंडल ने राज्य गठन को मंजूरी दी। वहीं सात दिसंबर 1999 को केंद्र में सत्तारूढ़ दल भाजपा ने राज्य विधेयक मंजूर किया व एक अगस्त 2000 को लोकसभा तथा 10 अगस्त 2000 को राज्य सभा में अलग राज्य का विधेयक पारित किया गया। विधेयक पर 28 अगस्त को राष्ट्रपति ने अधिसूचना जारी कर राज्य गठन का मार्ग प्रशस्त किया और अंतत: नौ नवंबर 2000 को उत्तराखंड अस्तित्व में आया।
\इसी दिन नए राज्य के पहले राज्यपाल सुरजीत सिंह बरनाला ने सूबे के प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में नित्यानंद स्वामी को शपथ दिलाई। दशकों पुरानी मांग पूरी होने पर आम उत्तराखंडी खुश था, वहीं राजधानी को लेकर संशय की स्थिति बनी रही इस बीच गैरसैंण राजधानी की मांग को लेकर धरना-प्रदर्शन का दौर शुरू हुआ। प्रदेश के कोने-कोने से आन्दोलनकारी गैरसैंण पहुंच अनशन पर बैठे। किन्तु जबाब में पुलिस की लाठियों के सिवा कुछ भी हासिल नहीं हुआ। बाबा मोहन उत्तराखंडी की अनशन के दौरान प्रशासनिक अधिकारियों की मौजूदगी में जान गई जिसकी जांच आज तक नहीं हो सकी है। वहीं गैरसैंण राजधानी की मांग कर रहे गैरसैंण क्षेत्र की महिलाओं सहित 32 आन्दोलनकारी आज भी विभिन्न संगीन धाराओं में कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रहे हैं।
14 जनवरी 2013 को एक भव्य कार्यक्रम में प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने विधानसभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल व तत्कालीन सांसद सतपाल महाराज की उपस्थिति में विधानसभा, ट्रांजिट हाऊस व विधायक आवास का शिलान्यास गैरसैंण में कर पहाड़वासियों को विश्वास में लेने का प्रयास किया। जबकि कार्यक्रम में मौजूद नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी व जिला बनाने की मांग मंच पर रखी, तभी से सत्तारूढ़ भाजपा गैरसैंण को ग्रीष्म कालीन राजधानी राग अलापने लगे हैं। लेकिन किसी को भी राज्य आन्दोलन के शहीदों की शहादत याद नहीं है कि उन्होंने आखिर गैरसैण को राजधानी और पृथक राज्य के लिए क्यों जान की बाज़ी लगायी।