वेद विलास उनियाल
इतना तो तब समझ गया कि यह गोर्की भाई के साथ यह आखरी मुलाकात है। इंद्रेश अस्पताल में एक शैय्या में लेटे हुए उनकी आंखे बंद थी और सांस धीरे- धीरे चल रही थी।
मेरी स्मृति में बचपन के दृश्य घुमडृ- घुमडृ कर आ गए। गोर्की भाई हम बच्चों के क्या कुछ नहीं थे। पौड़ी में तब बरफ भरपूर पड़ा करती थी। बर्फ की सफेद चादर सी बिछ जाती थी। गोर्की भाई हमारे लिए बर्फ के इगलू बनाया करतेे थे।
स्कूल की किसी किताब में एस्किमो बालक पर एक चैप्टर था, उसमें बताया जाता था कि उन ठंडे इलाकों में लोग बरफ के बने घरों में कैसे रहते हैं। कैसे उनके कमरे गर्म रहते हैं। हमारे पास गोर्की भाई थे जो बच्चों के लिए छोटे- छोटे आकार के इगलू बनाकर दिखाते थे। तब पता नहीं कि पतंग उडाने का भी एक मौसम आता है। पर सर्दी की ठिठुरन दूर होती तो बाजार में पतंगे आ जाती थी। पर उन पतंगों में लंबी सी कागज की पूंछ कौन लगाए। हम बच्चों के पास गोर्की भाई थे न। राम लीला आती तो वह चाय के डिब्बे में लगी चमकीली सफेद पन्नी से गत्ते का चमकीला मुकुट बनाते थे । साथ ही धनुष -बाण भी। वो लकडी के धनुष में लगी सुंदर लाल- पीली डोरियां अभी भी याद हैं। कड़ी ठंड से बचने वो हमारे लिए लिए टीन की सजीली कांगड़ियां बनाया करते थे । उनका नाम वरुण नयाल था , पर हम उन्हें गोर्की भाई ही कहा करते थे।
पौडी लक्ष्मी नारायण मंदिर से थोडा ऊपर वो टीन की चादरो वाला पीले रंग का भवन, वहां के आडू, नारंगी, संतरे सेब के पेड़ सूरजमुखी गुलाब गेंदा गुडहल चमेली के फूलो के अलावा घर की बैठक में रखा बडा सा ट्रांजिस्टर हमें लुभाता था। लेकिन इससे ज्यादा रोमांच हमें गोर्की भाई के कमरे को देखकर मिलता था। बहुत करीने से सजा हुआ जहां उस दौर में भी हाथ से बना ग्लोब नजर आता था। आकाशगंगा भी बनी थी। और न जाने कहां से चांद पर जाने वाले वैज्ञानिकों के सुंदर चित्र लाकर उन्होंने दिवार पर चिपकाया हुआ था। वह किसी वैज्ञानिक, कलाकार, अध्ययनशील का कक्ष लगता था। शायद हमसे बारह साल बडे रहे होंगे गोर्की भाई। लेकिन मानों उनका पूरा समय हम बच्चों के साथ बीतता था।
याद आता है पहाडों की लाल मिटटी के कितने खिलौने वे हमारे लिए बनाते थे। आम, सेब गुडिया हिरण बनाते और फिर रंग भरते। हमें मिट्टी ओलना भी सिखाते। पहाडों की यह मिट्टी खिलौने बनाने के लिए उपयुक्त नहीं होती, चटख जाती है , लेकिन गोर्की भाई तो आकार दे ही देते थे। जाहिर है गणित अंग्रेजी तो हम हमें समझाते ही थे।
गोर्की भाई का जीवन बहुत अलग होना था। जिस तरह के मेधावी विलक्षण
अध्ययनशील थे , उन्हें जीवन में बहुत आगे जाना था । मगर किस्मत उनके लिए अच्छे दिन लेकर नहीं आई थी। शायद युवावस्था में ही उन्हे मष्तिष्क की कोई बीमारी हो गई थी। वह नितांत अकेले रहने लगे। बाहर की दुनिया से एकदम अलग हो गए। देखते देखते गोर्की भाई की दुनिया एक कमरे में सिमट गई। वे अपने घर परिवार के साथ आसाम और दिल्ली कुछ समय रहने के बाद वापस पौडी ही उस घर में आ गए। लेकिन बचपन के वो गोर्की भाई एकदम बदल गए। हम कभी उनसे मिलने जाते बस एक एक क्षण बात करते फिर चुप हो जाते। कभी मन हुआ तो कुछ हमसे हल्का सा पूछ लिया।
गोर्की भाई बीमार रहने लगे है यह तो मालूम हो गया था। लेकिन लंबा समय हुआ था उनस मिलना नहीं हुआ था। दिल्ली के आईएसबीटी स्टेशन में उनके छोटे भाई तरुणजी को मैं पहचान गया। उनसे ही जाना कि गोर्की भाई इंद्रेश अस्पताल में भर्ती हैं । मेरे साथ बेटी महक भी थी। मैंने उससे कहा कि जब तेरी उम्र से भी छोटा था तो एक हमारे गोर्की भाई हुआ करते थे, वो बहुत बीमार है उन्हें देखने अस्पताल जाना है। घर, उसके बाद चलेंगे। वह भी साथ गई। उनकी ओर नजर डाल कर मुझे महसूस हो गया था कि यह उनकी अंतिम बेला है। वो न हमें देख पाने की स्थिति में थे न बात कर पाने की। मैंने पांव छूकर उन्हें प्रणाम किया। बचपन में उन्होने जो प्यार स्नेह दिया , उसके प्रति मन ही मन आभार जताया। उन एक एक चीजों को याद किया, जो गोर्की भाई हमारे लिए बनाया करते थे। वो इगलू, वो मिट्टी के खिलोने, वो कागज के रंगबिरंगे जहाज, वो कश्ती।
कितना संयोग था दिल्ली में तरुणजी से मिलना। उनके साथ दिल्लीसे दहरादून के सफर के बाद सीधे इंद्रेश अस्पताल जाना। और एकाएक फिर यह पता लगना कि जिस रोज उन्हें देखने गए थे उसके अगले दिन ईश्वर ने उन्हें अपने पास बुला लिया।
गोर्की भाई तुम्हारी याद आ रही है। बचपन भी याद आ रहा है। कितने खुशनसीब होते हैं वो बच्चे जिनके मोहल्ले में कोई एक गोर्की भाई जैसा हो जाए। नमन।