पलायन के लिए उत्तराखंड के नेता भी कम जिम्मेदार नहीं!
आर पी विशाल
बड़े बड़े पत्रकार, प्रवक्ता, कवि, समाजसेवी, नेता, अधिकारी और हर सुख सुविधा सम्पन्न व्यक्ति आज पलायन की चिंता को लेकर बहस कर रहा है हालांकि यह बहस काफी पुरानी है लेकिन नई राजनितिक चहल पहल से मुद्दे गरमा जाते हैं। एनडीटीवी के प्राइम टाइम में यह मुद्दा जिस प्रभावी ढंग से उठाया गया था स्थानीय समीक्षकों ने उतने ही कमजोर तर्कों से यह साबित भी किया कि इसकी ठोस नीति किसी के पास नही है।
यदि आप यकीन करेंगे, तो पाएंगे कि जो प्रकृति के संरक्षक और समाज के सुधारक तथा जनता के प्रतिनिधि है उन्ही से पहाड़ को सबसे ज्यादा खतरा है, पलायन के सबसे बड़े कारण भी यही लोग हैं, कहीं कोई विकास की नीति यदि बनती है सबसे पहले पर्यावरण प्रेमी चार लोगों के साथ मिलकर उस नीति का विरोध करेंगे और इस तरह वे कोई मेडल हासिल करके बाकि लोगों के सपने को चौपट कर देते हैं। बाकि नेता, समाजसेवी और ठेकेदार मिलबाँटकर खाते हैं।
वन विभाग भी सबसे ज्यादा रोड़े अटकाने का काम करता है, बिजली या पानी की लाइन खींचनी हो, सड़क बनानी हो, कोई नए काम करने हो वन विभाग सबसे पहले खड़ा हों जायेगा। मुझे मालूम है पर्यावरण बचेगा तो जिंदगी बचेगी लेकिन पर्यावरण तभी बचेगा जब गांव बचेंगे, वहां की हरियाली और खुशहाली बचेगी। बंजर खेत और वीरान घरों से पर्यावरण नही बचेगा।
हमे अपने पड़ोसी राज्य हिमाचल से सीखना चाहिए जहाँ 100 साल पहले तक सेब का नामोनिशान नही था। अमेरिकी नागरिक सैमुअल एवास स्टोक्स यानि बाद में जिनका नाम सत्यानन्द स्टोक्स हुआ वर्ष 1904 में शिमला के सपाटू नामक स्थान पर ठहरे। वहां पहले उन्होंने कुष्ठ रोगियो की सेवा की। बाद में उन्होंने यहाँ के सेब से हिमाचल को नई पहचान दिलाई, सत्यानद स्टोक्स ने सेब को अमेरिका से लाकर थानाधार के बारूबाग में वर्ष 1916 में लगाया और दो बीघा जमीन पर शुरू हुई सेब की खेती अब एक लाख 10 हजार हेक्टेयर में फैल चुकी है। 1916 में सत्यानंद स्टोक्स ने अमेरिका के लुसियाना से सेब के पौधे लाकर सेब का बगीचा तैयार किया था। सेब की तीन किस्मों रेड, रॉयल व गोल्डन डिलिशियस से हुई शुरुआत के 100 साल बाद 90 किस्मों की सेब प्रजातियो की खेती प्रदेश में सफलतापूर्वक की जा रही है। सत्यानंद स्टोक्स ने जो कदम उठाया था, उसकी बदौलत आज प्रदेश में 1,10,679 हेक्टयर क्षेत्र में 7.77 लाख मीट्रिक टन सेब पैदाकर प्रदेश की आर्थिकी को सुदृढ़ किया जा रहा है। स्व. सत्यानंद स्टोक्स ने न केवल सेब के क्षेत्र मे क्रांति लाई बल्कि सामाजिक एव आर्थिक उत्थान, अंधविश्वास उन्मूलन तथा शिक्षा के प्रसार के साथ भारतीय स्वतंत्रता सग्राम मे भी हिस्सा लेकर इस क्षेत्र का नाम रोशन किया है।
उसके बाद हिमाचल के प्रथम मुख्यमंत्री यशवंत सिंह परमार ने सेब के उत्थान के लिए जंगल के जंगल खाली करवाये और किसानों को जीवन जीने के लिए एक माध्यम दिया। आज जो व्यक्ति प्रदेश से बाहर है वो भी कम से कम एक वर्ष में तीन बार अपने गांव जरूर आते हैं और विदेशों में हैं वो भी एक या दो बार जरूर गाँव आते है जबकि उत्तराखण्ड में कई लोग जन्म के बाद गांव नही गये, यह दुर्भाग्य नहीं अभिशाप है हम सभी के लिए।
हिमाचल सरकार ने शिमला में आलू अनुसंधान संस्थान केंद्र खोला है साथ कई ठोस कदम भी उठाये हैं जिससे किसानी एवं बागवानी भाइयों को हर तरह की सुविधा से महरूम किया जा सके। जबकि उत्तराखंड में विश्व का सबसे बड़ा कृषि विश्वविद्यालय पंत नगर है बावजूद इसके खेत बंजर और किसान बेहाल है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार की कोई नीति नहीं है। केंद्र सरकार जहाँ स्टार्ट अप, लघु उधोग, और स्वावलंबी कई योजनाओं को प्रोत्साहित कर रही है वही राज्य सरकार को चाहिए कि लघु मंडियों, उचित खाद, नकदी फसलें, सड़क व्यव्यस्था सुदृढ़ हो तथा सिंचाई और अन्य जरूरतों पर जोर दे।
सरकारों को चाहिए कि वे स्कूलों में शिक्षा व् शिक्षक सुनिश्चित करे, अस्पताल व् डॉक्टर व्यवस्थित करे, इन छोटी छोटी मुलभुत सुविधाओं के लिए यदि हम आज भी लड़ाई लड़े तो उखाड़कर फेंकनी चाहिए ऐसी सरकार और ऐसी व्यवस्था। विश्व तकनीकी और आधुनिकीकरण के पटल पर खड़ा है और हम मूलभूत सुविधाओं के लिए जद्दोजहद करने में लगे हैं। विदेशों में पहले मूलभूत सुविधाएं पहुचाई जाती है उसके बाद गाँव बसाए जाते हैं भारत में सबकुछ उलटा है। पलायन के लिए नीतियां न कवि बना सकता है न लेखक, न समाजसेवी न एसी में बैठे नेता, अफसर। पलायन को रोकना है तो पहले खुद को गांव से जोड़ना होगा। मेरे गाँव ने, मेरे देश ने मुझे क्या दिया यह न सोचो, मेरा गाँव मुझे आगे लेकर नही जा सकता है लेकिन मैं अपने गाँव को आगे लेकर जा सकता हूँ ऐसी मेरी सोच होनी चाहिए, बदलाव जरूर आएगा। जय उत्तराखंड, जय भारत।।