डेढ़ वर्ष कार्यकाल का सबसे बड़ा तामझाम वाला कार्यक्रम
प्रकाश सुमन ध्यानी
7 अक्टुबर 2018, लोक सभा आम चुनाव 2019 को अब बचे हैं मात्र 7 महीनें। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उत्तराखण्ड निवेशक समिट का आज शुभारंभ करते हैं। 08 तारीख को सरकार में नं0 2 गृहमंत्री राजनाथ सिंह समापन करते हैं। त्रिवेन्द्र रावत सरकार के डेढ़ वर्ष कार्यकाल का सबसे बड़ा तामझाम वाला कार्यक्रम। इसी बहाने राजधानी देहरादून की मुख्य सड़कें चाक चैबन्ध हो गयी। रंग रोगन हो गया। देहरादून कुछ खूबसुरत सा लगने लगा।लोगों को अच्छा लगा। उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, लगे रहो त्रिवेन्द्र रावत।
करीब 75000 करोड़ के एम0ओ0यू0 सरकारी, गैर सरकारी, देशी, विदेशी कुल मिलाकर हस्ताक्षरित किये गये। अब प्रतीक्षा है कि निवेश आता कितना है, कब आता है, किस रूप में आता है, मैदानी क्षेत्रों में कितना आता है और पर्वतीय क्षेत्रों में कितना आता है।
कुछ ही माह पूर्व देश के 10 राज्यों में विधानसभा एवं लोक सभा के उपचुनाव हुए। 9 राज्यों के विधानसभा उपचुनाव में भाजपा हारी। केवल उत्तराखण्ड के चमोली जिले की थराली विधानसभा सीट ही जीत पायी। तब से लग रहा था कि केन्द्र सरकार मुख्यमंत्री की पीठ सार्वजनिक रूप से अवश्य थपथपायेगी। जीरो टालरेन्स का नारा देने वाली त्रिवेन्द्र सरकार ने एन0एच0 घोटाले में दो आई0ए0एस0 अधिकारियों को निलंम्बित कर प्रशासनिक इच्छाशक्ति का भी परिचय दिया इस प्रकार त्रिवेन्द्र रावत अन्य भाजपा शासित राज्यों के बीच अलग चमक सी बनाते हुए लगे।
मुझे याद आता है शिवराज सिंह चैहान जब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे तो लोगों को उनसे बहुत बड़ी आशायें नही थी लेकिन खरामा-2 उन्होंने 15 वर्ष राजकर अपनी जड़ें जमा दी। उमाभारती सकलेचा, पटवा जैसे भाजपा दिग्गजों की गद्दी पर अपने को साबित करने के लिए शिवराज सिंह ने तैड़-फैड़, धुम-धड़ाका राजनीति की वजाय सधे हुए कदमों की राजनीति की। आप मुझे माफ करें त्रिवेन्द्र रावत मुझे इसी लाईन पर चलते हुए दिख रहे हैं। मेरा भी कहना है मान-अपमान, हानि-लाभ, यश-अपयश की चिन्ता न कर लगे रहो मित्र लगे रहो।
प्रधानमंत्री, गृहमंत्री आदि वरिष्ठ भाजपाईयों ने समिट में आकर मुख्यमंत्री की जो पीठ थपथपायी उससे त्रिवेन्द्र रावत और उत्तराखण्ड दोनों मजबूत हुए हैं। लगता है केन्द्र की थैली का मोह उत्तराखण्ड की ओर कुछ और खुलेगा तथा विकास के लिए कुलबुलाता उत्तराखण्ड लम्बी छलांग लगाने में कामयाब होगा।
अब उचित रहेगा कि समिट के दूरगामी और लघुकामी परिणामों का भी कुछ विश्लेषण कर दें। त्रिवेन्द्र जी समिट कराना पर्याप्त नहीं है। उत्तरप्रदेश में भी फरवरी में समिट हुई थी। प्रधानमंत्री गये थे लाखों करोड़ के एम0ओ0यू0 साईन हुए थे अभी तक न तो कोई बड़ी इकाई लग पायी और न ही उल्लेखनीय इन्वेस्टमेन्ट ही आ पाया। लोकसभा चुनाव से पहले जनता परिणाम मांगती है। यह ठीक है कि इन्वेस्टमेन्ट के परिणाम रातों रात नहीं आते लेकिन चुनाव से पहले इन्वेस्टमेंट के आसार तो लगने चाहिए। कुछ चीजें शुरू हो जानी चाहिए तब तो लोगों को विश्वास होगा। वैसे भी जनता राजनेताओं की घोषणाओं पर ज्यादा विश्वास नहीं करती इसीलिए लम्बी-लम्बी घोषणा करने वालों को चित भी कर देती है। यदि हर एक पर्वतीय जिलें में एक-एक इकाई का काम चुनाव से पहले शुरू हो जाये तो चुनाव में परिणाम भी सकारात्मक मिल सकते हैं। उत्तराखण्ड के लोगों को नौकरियाॅं रोमांचित करती हैं। यदि चुनाव से पूर्व हर जनपद में कुछ युवा रोजगार पा सकें तो वे आपके अग्रदूत रहेंगे। रोजगार स्वयं भाजपा के एजेन्डे का प्रमुख बिन्दु बन जायेगा लेकिन यदि रोजगार के रूप में इन्वेस्टमेंट न आ सका तो जंगल में मोर नाचा किसने देखा। बन्धु मोर नाचना भी चाहिए और नाचते हुए दिखना चाहिए तब सार्थकता है।
सन् 2000 के 9 नवम्बर को उत्तराखण्ड राज्य बना। विशेष राज्य के साथ स्व0 प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेयी ने विशेष राज्य का दर्जा दिया, औद्योगिक पैकेज भी दिया। सिडकुल बनाया गया, हरिद्वार, उद्यमसिंह नगर और देहरादून में उद्योग लगे, कुछ चल रहें हैं, कुछ बन्द हो गये, कुछ रोजगार भी मिला, कुछ विकास भी हुआ, प्रदेश की प्रतिव्यक्ति आय भी बढ़ी, सरकार के खजाने में भी कुछ आया, लेकिन सस्टेनेबलिटी (टिकाऊपन) नही आ पायी। पैकेज की अवधि समाप्त और उद्योगपति प्रदेश से गायब। राहतें कम होती गई, उद्योग खिसकते गये। 2004-2005 में जो 20-21 साल का युवा खुश होकर नौकरी पर लगा, 35 वर्ष की आयु में ही फिर बेरोजगार हो गया क्योंकि उद्योग बन्द हो गये, यह सस्टेनेबल विकास नहीं है। फिर मात्र 15-16 वर्ष के लिए 10-15 हजार प्रतिमाह की नौकरी उचित रोजगार की श्रेणी में भी नहीं आता है। जो उद्योग अपने कर्मचारियों को सड़क पर छोड़ दे उसका क्या फायदा। हिमाचल में उद्योगबन्दी का प्रतिशत बहुत कम है, क्यों है ? हमें उनसे सीखना पड़ेगा।
मेजर जनरल भुवनचन्द खण्डूरी जी के कार्यकाल में पर्वतीय उद्योगनीति बनी थी, खण्डूरी जी चले गये, नीति धरातल पर नहीं आ पायी। जब केन्द्र और प्रदेश में एक ही सरकार होगी तो अपने वायदों के प्रति प्रतिबद्धता रहेगी लेकिन केन्द्र में सरकार तो तब आयेगी, जब उत्तराखण्ड में 5 के 5 सीटें जीतेंगे। और 5 सीटंे तब जीतेंगे जब पहाड़ों में लोगों को कुछ रोजगार मिलेगा।
अब कुछ सावधानियों की तरफ भी मुख्यमंत्री जी का ध्यान आकर्षित करना चाहूॅंगा-
1. पहाड़ मंे उद्योग तब सफल होंगे जब अवस्थापना सुविधाऐं (इन्फ्रास्ट्रक्चर) तैयार होगा। इसके लिए प्रदेश सरकार के पास साधन पर्याप्त नहीं हैं। अतः केन्द्र सरकार से इन्फ्रास्ट्रक्चर डवलपमेंट पैकेज की दरकार की जाये।
2. उत्तराखण्ड में मुख्यतः तीन जमीन सम्बन्धी कानून कार्य कर रहें हैं-अ-उत्तरप्रदेश जमीदारी उन्मूलन एक्ट, ब- कुमाॅंऊ जमीदारी उन्मूलन एक्ट, स-जौनसार भावर भू कानून। जमीन खरीदनें से पूर्व इन कानूनों का बारीकी से अध्ययन किया जाये और इसमें निहित पर्वतीय भावना का ध्यान रखा जाये। इस सीमान्त क्षेत्र के भू कानून यहाॅं के मूल निवासियों को कुछ राहत देते हैं, क्योंकि वो वर्षों से सीमा के अधोषित प्रहरी हैं। इन राहतों को ट्रान्सफर भी नहीं किया जा सकता है। इन्हें शिथिल करना भी ठीक नहीं रहेगा। अन्यथा पहाड़ की बसागत पर चोट हो जायेगी। विरोधी दल भू कानूनों को लेकर मुखर हो गये हैं। अतः भू क्रय की अपेक्षा लीज पर उद्योगों को जमीन देना ठीक रहेगा। अभी तक प्रधानों, मालगुजारों, थोकदारों, सयानों के अधिकार में वर्ग चार की जो जमीनें हैं उन्हें सरकार उनके नाम नहीं कर पायी। इन जमीनों का क्या होगा ? अतः विरोधी कहीं कोर्ट न चले जायें।
3. स्थानीय लोगों को रोजगार में प्राथमिकता मेंडेटरी किया जाये।
4. प्रतिबद्ध अधिकारियों को कम से कम 5 वर्ष के लिए इस काम पर लगाया जाये तथा उन्हें प्रोत्साहन भत्ता दिया जाये।
5. प्रदेश के उद्योगपतियों को पहाड़ लगाने में प्राथमिकता दी जाये।
6. इस बात की भी सावधानी रखी जाये कि सस्टेनेबल इन्डस्ट्री को ज्यादा राहत दी जाये।
7. केन्द्र से ट्रान्सपोर्ट सब्सिड़ी (मोटर, वाहन, खच्चर, मनुष्य मजदूरी) की मांग की जाये।
8. पर्वतीय क्षेत्रों में छोटे उद्योग लगते हैं, उनमें उत्पादन कम होती है, लागत ज्यादा आती है, बांडिंग की दिक्कत से बिकने से कठिनाई होती है। अतः एक मार्केटिंग व ब्रांडिंग डवलपमेंट एजेन्सी के द्वारा उत्पाद बेचे जायें। उद्योगों का काम केवल उत्पादन हो, बेचने व ब्रांडिंग की जिम्मेदारी एकीकृत संस्था ले, पहाड़ में उद्योग तब ही टिक पायेंगे।
मुख्यमंत्री जी व कुछ अधिकारियों के तीन माह के प्रयास प्रशंसनीय हैं। कम से कम उत्तराखण्ड निवेशकों के लिए एक डेस्टीनेशन के रूप में तो उभरा है। इसके लिए मुख्यमंत्री जी व सम्बन्धित अधिकारियों को बधाई दी जा सकती है। लेकिन लक्ष्य अभी दूर और कठिन है परन्तु नामुमकीन नहीं। त्रिवेन्द्र सरकार की यह मुहीम गेम चेंजर भी हो सकती है यदि सफल हो गयी तो। अन्यथा 20-25 करोड़ की दीपावली गरीब प्रदेश को भारी भी पड़ सकती है। अभी लोग आशावान हैं। उम्मीद पर संसार टिका है लेकिन भविष्य के प्रश्न भी खड़े हैं।
(यह आलेख लेखक के निजी विचारों पर आधारित है देवभूमि मीडिया डॉट कॉम का इससे सहमत होना कोई आवश्यक नहीं है )