POLITICSUTTARAKHAND
उत्तराखंड को अलग राज्य बने 20 साल, कसौटी पर नौ मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल
जनमत अगर किसी पार्टी के साथ खड़ा हो तो सियासी अस्थिरता हो जाती है खुद ब खुद खत्म
विकास धूलिया
20 साल में नौ मुख्यमंत्रियों का सफर
नित्यानंद स्वामी
09 नवंबर 2000 से 29 अक्टूबर 2001
भगत सिंह कोश्यारी
30 अक्टूबर 2001 से 01 मार्च 2002
नारायण दत्त तिवारी
02 मार्च 2002 से 07 मार्च 2007
भुवन चंद्र खंडूडी
08 मार्च 2007 से 23 जून 2009
रमेश पोखरियाल ”निशंक”
24 जून 2009 से 10 सितंबर 2011
भुवन चंद्र खंडूडी
11 सितंबर 2011 से 13 मार्च 2012
विजय बहुगुणा
14 मार्च 2012 से 31 जनवरी 2014
हरीश रावत
01 फरवरी 2014 से 17 मार्च 2017
त्रिवेंद्र सिंह रावत
18 मार्च 2017 से अब तक जारी
देहरादून। उत्तराखंड को अलग राज्य बने अब 20 साल होने जा रहे हैं। इस दौरान कुल पांच सरकार सूबे में रही हैं। पहली अंतरिम और उसके बाद चार निर्वाचित सरकार। शुरुआत से ही सियासी अस्थिरता में फंसे रहे उत्तराखंड को आखिरकार चौथी निर्वाचित सरकार में स्थिरता हासिल हुई। इसका सबसे बडा कारण यही है कि पहली दफा किसी पार्टी को भारी भरकम बहुमत हासिल हुआ। यही वजह है कि उत्तराखंड में अब तक नौ मुख्यमंत्री (भुवन चंद्र खंडूडी दो बार) रहे हैं और मौजूदा मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत सर्वाधिक लंबे कार्यकाल के लिहाज से दूसरे स्थान पर पहुंच गए हैं।
शुरुआत में ही पड़ी अस्थिरता की बुनियाद
नौ नवंबर 2000 को जब उत्तराखंड देश के 27वें राज्य के रूप में वजूद में आया। तब उत्तर प्रदेश विधानसभा और विधान परिषद में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले 30 सदस्यों को लेकर अंतरिम विधानसभा का गठन किया गया। इस अंतरिम विधानसभा में भाजपा का बहुमत था, तो पहली अंतरिम सरकार बनाने का अवसर भी भाजपा को ही मिला। नित्यानंद स्वामी को अंतरिम सरकार का मुख्यमंत्री बनाया गया। इसके साथ ही नवगठित राज्य में सियासी अस्थिरता की बुनियाद भी पड गई। पार्टी में गहरे अंतरविरोध के कारण स्वामी अपना एक साल का कार्यकाल भी पूर्ण नहीं कर पाए और उन्हें पद छोड़ना पड़ा।
भाजपा बेदखल, कांग्रेस के हाथ आई सत्ता
स्वामी के उत्तराधिकारी के रूप में उनकी कैबिनेट के वरिष्ठ सहयोगी रहे भगत सिंह कोश्यारी ने राज्य के दूसरे मुख्यमंत्री के रूप में सरकार की कमान संभाली। कोश्यारी लगभग चार महीने ही इस पद पर रह पाए, क्योंकि वर्ष 2002 की शुरुआत में हुए पहले विधानसभा चुनाव में मतदाता ने भाजपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया। राज्य को अब 70 विधानसभा सीटों में बांट दिया गया था और पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इसमें से 36 सीटें हासिल हुईं। यानी बहुमत का बस आंकडा ही छुआ कांग्रेस ने। उस वक्त हरीश रावत प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे और उन्हीं के नेतृत्व में चुनाव लड़कर कांग्रेस सत्ता तक पहुंची।
तिवारी के तजुर्बे का कमाल, पूरे किए पांच साल
इसके बावजूद कांग्रेस आलाकमान ने रावत पर नारायण दत्त तिवारी को तरजीह देकर मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी। रावत खेमे ने इसका खुलकर विरोध भी किया, लेकिन आलाकमान का फैसला नहीं बदला। इसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस में गुटबाजी खुलकर सामने आ गई। यह बात दीगर है कि नाममात्र के बहुमत के बावजूद तिवारी पूरे पांच साल तक सरकार चलाने में कायमयाब रहे। दरअसल, इसमें उनके लंबे सियासी तजुर्बे और रणनीतिक कौशल की सबसे बडी भूमिका थी। हालांकि, पांच साल के कार्यकाल के दौरान ऐसे कई मौके आए, जब सरकार में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चा जोर-शोर से चली, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
भाजपा को सत्ता, सवा दो साल में बदला मुख्यमंत्री
वर्ष 2007 के दूसरे विधानसभा चुनाव में मतदाता ने कांग्रेस को दरकिनार कर भाजपा को सत्ता सौंप दी। दिलचस्प बात यह रही कि भाजपा को 70 सदस्यीय विधानसभा में ठीक आधी, 35 सीटों पर ही जीत मिली और कांग्रेस के हिस्से आई 21 सीट। सबसे बडी पार्टी के रूप में उभरने पर भाजपा ने सरकार बनाने का दावा किया। निर्दलीय और उत्तराखंड क्रांति दल की मदद से भाजपा सत्ता में आ गई। भुवन चंद्र खंडूडी मुख्यमंत्री बने, लेकिन इसके बाद भाजपा में भी गुटबाजी उभर आई। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को राज्य की सभी पांचों सीटों पर करारी शिकस्त मिली। इसके कुछ समय बाद सवा दो साल का कार्यकाल बीतते-बीतते खंडूड़ी की मुख्यमंत्री पद से विदाई हो गई।
निशंक बने मुख्यमंत्री, मिले इन्हें भी सवा दो ही साल
खंडूड़ी के स्थान पर रमेश पोखरियाल निशंक मुख्यमंत्री बने। तब लगा कि अब भाजपा में गुटबाजी पर लगाम लगेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भाजपा में अंदरखाने गुटबाजी जारी रही, हालांकि यह सतह पर नजर नहीं आई। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले अचानक लगभग सवा दो साल के कार्यकाल के बाद निशंक को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा और खंडूड़ी की दोबारा इस पद पर वापसी हो गई। माना गया कि भाजपा ने खंडूडी की कुशल प्रशासक की छवि के कारण उनके नेतृत्व में विधानसभा चुनाव में जाने के लिए यह कदम उठाया। हालांकि, चुनाव से महज छह महीने पहले मुख्यमंत्री को बदले जाने के कदम पर तब सियासी हलकों में खासा अचरज जताया गया।
बहुगुणा ने सरकार बनाई, गुटबाजी फिर उभर आई
वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच जोरदार टक्कर देखने को मिली। भाजपा 31 तो कांग्रेस को 32 सीटें मिलीं। चौंकाने वाली बात यह रही कि तत्कालीन मुख्यमंत्री खंडूड़ी कोटद्वार विधानसभा सीट से चुनाव हार गए। अगर खंडूड़ी जीत जाते जो कांग्रेस 31 और भाजपा 32 के आंकडे पर होती। ऐसा हुआ नहीं और सबसे बडी पार्टी के रूप में उभर कर कांग्रेस स्वाभाविक रूप से सत्ता की दावेदार बन गई। बसपा, उत्तराखंड क्रांति दल और निर्दलीय विधायकों की मदद से कांग्रेस ने सरकार बनाई। मुख्यमंत्री बने विजय बहुगुणा। पुरानी कहानी फिर दोहराई गई, नतीजतन कांग्रेस में सत्ता में आते ही गुटबाजी पूरे उभार पर आने लगी।
बहुगुणा का कटा पत्ता, हरीश रावत को मिली सत्ता
जून 2013 की भयावह केदारनाथ आपदा के बाद प्रदेश सरकार की भूमिका सवालों के घेरे में आई तो कांग्रेस में बहुगुणा विरोधी खेमा सक्रिय हो गया। वर्ष 2014 की शुरुआत में कांग्रेस की अंदरूनी सियासत का घमासान चरम पर पहुंचा और बहुगुणा को मुख्यमंत्री पद गंवाना पडा। इस दफा कांग्रेस आलाकमान ने आखिरकार हरीश रावत को मौका दे दिया। रावत मुख्यमंत्री बन गए, लेकिन पूर्व केंद्रीय मंत्री सतपाल महाराज को यह नागवार गुजरा और वह लोकसभा चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस को बाय-बाय कह भाजपा में शामिल हो गए। दरअसल, महाराज कांग्रेस के दिग्गजों में शुमार थे और उन्हें पूरी उम्मीद थी कि पार्टी उन्हें सरकार का नेतृत्व करने का अवसर देगी।
पार्टी नहीं संभाल पाए हरदा, टूट के बाद कांग्रेस बेपर्दा
हरीश रावत के मुख्यमंत्री रहते हुए कांग्रेस ने सबसे बड़ी टूट का सामना किया। महाराज पहले ही जा चुके थे और बहुगुणा खेमा मौके की तलाश में था। मार्च 2016 में बहुगुणा के नेतृत्व में नौ विधायकों ने कांग्रेस को बड़ा झटका देते हुए बजट सत्र में विद्रोह कर रावत सरकार को संकट में डाल दिया। राष्ट्रपति शासन लगा, लेकिन फिर न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद रावत सरकार बचाने में कामयाब रहे। हालांकि मई 2016 में एक अन्य पार्टी विधायक ने भी भाजपा का रुख कर लिया। रही-सही कसर पूरी हो गई वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले, जब कैबिनेट मंत्री और प्रदेश अध्यक्ष रहे यशपाल आर्य ने भी भाजपा का दामन थाम लिया।
भाजपा को तीन-चौथाई बहुमत, ऐतिहासिक प्रदर्शन
कांग्रेस की टूट का परिणाम सामने आया वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में। हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस महज 11 सीटों पर सिमट गई। इस तरह रावत के लगभग तीन साल के कार्यकाल का समापन हुआ। रावत स्वयं दो सीटों से चुनाव लडे, मगर दोनों जगह पराजित हो गए। कांग्रेस के तमाम दिग्गज इस चुनाव में अपनी सीट बचाने में नाकामयाब रहे। नमो मैजिक में भाजपा ने ऐतिहासिक प्रदर्शन किया। भाजपा ने 70 में से 57 सीटों पर परचम फहराया। यह राज्य के के छोटे से इतिहास में पहला अवसर रहा, जब उत्तराखंड में किसी पार्टी ने इस तरह एकतरफा जीत हासिल कर तीन-चौथाई से ज्यादा बहुमत के साथ सत्ता तक का सफल सफर तय किया।
त्रिवेंद्र के सिर सजा ताज, स्थिरता का भी आगाज
वर्ष 2017 में सत्ता पाने के बाद भाजपा के लिए मुख्यमंत्री का चयन कोई मुश्किलभरा काम साबित नहीं हुआ। शुरुआत से ही त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री पद का सबसे प्रबल दावेदार समझा जा रहा था। हालांकि सतपाल महाराज और प्रकाश पंत का नाम भी चर्चा में आया, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने त्रिवेंद्र को ही चुना। 18 मार्च 2017 को त्रिवेंद्र ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। अब उन्होंने इस पद पर तीन साल और सात महीने का कार्यकाल पूरा कर लिया है। 57 विधायकों का बहुमत साथ तो पार्टी में कोई अंतरविरोध भी इस दौरान नजर नहीं आया। सबसे अहम यह कि इस दौरान ऐसा कोई मौका भी नहीं आया, जब सरकार की स्थिरता पर कोई सवाल उठा हो।
सबसे लंबे कार्यकाल में दूसरे नंबर पर त्रिवेंद्र, सफर जारी
लब्बोलुआब यह कि त्रिवेंद्र सिंह रावत कार्यकाल के लिहाज से कांग्रेसी दिग्गज नारायण दत्त तिवारी(जो अब तक उत्तराखंड में पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले एकमात्र मुख्यमंत्री) के बाद उत्तराखंड के सबसे सफलतम मुख्यमंत्री साबित हुए। महत्वपूर्ण बात यह कि त्रिवेंद्र का सफर अब भी जारी है। इस बात में अब संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि वह तिवारी के बाद उत्तराखंड के केवल दूसरे मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं, जिन्होंने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। यानी, जनमत अगर किसी पार्टी के साथ खड़ा हो तो सियासी अस्थिरता खुद ब खुद खत्म हो जाती है।
(विकास धूलिया दैनिक जागरण के ब्यूरो प्रमुख हैं और उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार हैं)