“ओड़ा लाणा” और बारह बजाणा है जनजाति क्षेत्र जौनसार बावर की अनूठी और विचित्र परम्परा !
मनोज इष्टवाल
कुन्ना गाँव हमारा पहली बार आना हुआ जबकि इससे पूर्व में दो बार सिलामु गाँव, व एक बार कोटा गाँव आ चुका था! तब यहाँ आने के लिए सड़क नहीं थी और पैदल ही 7 से 10 किमी. चलना पड़ता था. विगत 5 बर्षों में अब इस क्षेत्र के लोग सड़क मार्ग का आनंद उठा रहे हैं! कोटा गाँव पार करते ही जब बांज वृक्ष दिखाई दिए तो उदित घिल्डियाल बोल पड़े हम 4500 फिट की उंचाई पर हैं! अभी कुछ ही आगे बढे तो सामने हिमालय का सामना करता एक गाँव दिखाई दिया (मौन्डा गाँव) तब फिर उदित घिल्डियाल तपाक से बोल पड़े- इष्टवाल जी आप तो कह रहे थे कि नैनबाग़ से मुश्किल से 15 किमी होगा यह तो 20 किमी से भी अधिक है. मेरा जवाब था यह तो अनुमान के आधार पर की गयी बात थी! मैं भी आप लोगों की तरह पहली बार आ रहा हूँ. तब तक अगले मोड़ से एक गाँव और दिखाई दिया. मैंने यूँहीं तुके में कह दिया ये है कुन्ना न कि वो! काफी देर से शांत राजेन्द्र जोशी बोल पड़े अब हम लगभग 6500 फिट की उंचाई पर हैं क्योंकि अब देबदार शुरू हो गया है. मैंने दोनों ही मित्रों की सोच की मन ही मन इसलिए तारीफ़ की क्योंकि दोनों ने बर्षों पूर्व पहाड़ छोड़ दिया था शायद उदित का तो जन्म भी मैदानी भू भाग में हुआ फिर भी वृक्षों के आधार पर समुद्र तल से उस स्थान की उंचाई मापना अपने आप में कमाल का हुनर है! और यह दोनों में भरपूर दिखने को मिला.
खैर मे हमारा आईडिया सही निकला और हम कुन्ना गाँव के नीचे जा पहुंचे जहाँ महाराष्ट्र नम्बर की एक बुलेट मोटर साइकिल खड़ी दिखाई दी जो दर्शन डोभाल जी की थी. सड़क से ही खडी चढ़ाई में पहला मकान सीमेंट चढ़ा सुंदर भव्य! उसके पिछवाड़े से गुजरकर आप पंचायती आँगन पार करते हैं जहाँ किसी देवता की मूर्ती आपको आले में दिखाई देगी! हम पंचायती आँगन की दिशा में मुड़ने के स्थान पर सीधे गाँव के बीचोंबीच जा पहुंचे जहाँ मकान की भूलभुलैय्या के बीच रास्ता ढूंढना मुश्किल था तब एक सज्जन ने रास्ता दिखाया तो हम भैरव मंदिर के प्रांगण के नजदीकी मकान की छत्त पर जा पहुंचे. जहाँ कुछ ग्रामीण सब्जियां वगैरह काटने में ब्यस्त दिखाई दिए ! मकान के पार खेत में बड़े बड़े पतीलों में कई ग्रामीण खाना बनाने में ब्यस्त थे वहीँ एक व्यक्ति हमसे मुखातिब हुए दुआ सलाम सभी से हुई तो वे तेज क़दमों से सीढ़ी चढ़ते हुए दुमंजिले में जा पहुंचे! ये दर्शन डोभाल के भाई थे जिन्होंने मेहमानों की आवभगत में ब्यस्त दर्शन डोभाल जी को हमारे आगमन की सूचना दी! चाय पानी मेल मुलाक़ात बढ़ी तो लम्बे सफर से थके राजेन्द्र जोशी जी की आँखें बैठे बैठे मूंदने लगी! या ये कहें यह उनका आराम करने का नायब तरीका है तो सही रहेगा क्योंकि किसी को पता भी नहीं चलता कि यह ब्यक्ति आराम कर रहा है या हमसे बातें!
जिस कमरे में हम बैठे थे उसके बीचोंबीच लकड़ी के फट्टों के ऊपर एक पतली सी लकड़ी की पट्टी ताजा-ताजा लगाईं दिख रही थी! ऐसा मेरी याददास्त में जौनसार बावर का कोई घर नहीं आया जहाँ में ठहरा हूँ और इस तरह लकड़ी के बने घर के अंदर पट्टी लगाईं गयी हो! जिज्ञासा थी तो वहां बैठे जनमानस से पूछ बैठा कि आखिर ये है क्या?
तब तक दर्शन डोभाल जी भी आ गए बोले – सर यही तो आजका कार्यक्रम था! इसे ठेस भी कहा जाता है! जब एक परिवार के 12 परिवार हो जाएँ तब बड़े भाई को उसका मकान से एक हिस्सा अलग किया जाता है ताकि उसे ये अभिमान न हो कि हम 12 हो गए तो हमसे बढ़कर कोई नहीं! यह हमारी एक परम्परा का हिस्सा है ताकि यह परिवार अपने आप पर अहम न करे कि हमसे बढ़कर कोई नहीं! अब एक हिस्सा मेरा और एक बाकी भाइयों का हो गया! जब “ओड़ा लाणा” होता है तब खेत बंटता है और जब “ठेस लाणी” है तब मकान बंटता है! अब ठेस लगाई गयी है तो जिस भाई का भी मन हो वह मेरे साथ रह सकता है जिसका मन न हो वह अपने हिस्से में स्वंत्रतता के साथ जीवन यापन कर सकता है. शायद इसे जौनसार में बारह बजाणा या बजना नाम से जाना जाता है न! मैंने अचानक प्रश्न उछाला तो कमरे में बैठे कई व्यक्तियों के चेहरे पर झलकती उत्सुकता से साफ़ पता चलने लगा कि मैं सही दिशा में हूँ! इसी दौरान दर्शन डोभाल जी ने हमारा परिचय घर व गाँव के व्यक्तियों या पाऊणा (मेहमान) लोगों से करवाया! एक व्यक्ति जो दर्शन डोभाल के परिवार के ही थे वह बोले- जी आप सही कह रहे हैं इसे बारह बजणा ही कहा जाता है अब ये बारह बजणा क्यों कहा जाता है इसका सीधा सा जवाब यही है कि अपने परिवार पर लोग अहम न करें!
खैर मैंने इस बारह बजणा शब्द की गहराई पर उतरकर कई बुद्धिजीवियों से जानना भी चाहा कि परिवार के बढ़ने से भला किसी के बारह कैसे बज सकते हैं? लेकिन इसका प्रत्युत्तर किसी से नहीं मिल पाया! शास्त्र सम्मत तथ्यों को जब उकेरा तो पाया कि हिन्दू धर्म के पौराणिक काल में बारह बर्जनाएं मानीं गयी हैं कहीं यह उसी का रूप तो नहीं! क्योंकि परिवार जब बढ़ने लगता है तो पिता पुत्र नाती ही परिवार का हिस्सा नहीं होता बल्कि बाहर अन्य परिवारों से लाई गयी लक्ष्मी स्वरुप माँ पत्नी बहु भी उसका हिस्सा हैं! ऐसे में धर्म में जेठ से छुआछूत मानी गयी लेकिन फिर भी देवर ससुर व अन्य छूट गए! जौनसार बावर में कुल का सबसे बड़ा बेटा ही सर्वेसर्वा होता है जिसके पास सर्वाधिकार मौजूद होते हैं! परिवार ज्यों ज्यों बढ़ता है भले ही वहां यह समृधि का धोतक माना जाता रहा है! जौनसार बावर में आज भी कई बड़े परिवार हैं जिनमें एक परिवार चिल्हाड (बावर) के माधौ सिंह बिजल्वाण का बताया जाता है जिनके संयुक्त परिवार में 80-85 लोग हैं. ऐसे अन्य भी कई परिवार हैं! बारह बजणा जैसी परम्परा पूर्व काल में तब लागू की गयी हो सकती है जब कई ऐसे मामले विघटन के आये हों जो अशुभ माने गए हों. क्योंकि यहाँ ओड़ा लाणा में 8 परिवार होना भी अशुभ माना गया है! ये परिवार उन 12 वर्जनाओं का पूर्व में अक्षरत: पालन नहीं कर पाए होंगे जो सामाजिक दृष्टि से पूर्व काल में लागू रही होंगी इसलिए परिवार को असुरक्षित देखते हुए या उसके बढ़ते स्वरुप को देखते हुए ही इसे यहाँ की पूर्व कालिक खुमडी ने बहुत सोच समझकर एक क़ानून के तौर पर क्षेत्र में लागू करवाया होगा ताकि परिवार की टूटन भी बच जाय और बंटवारा भी बेहद आंतरिक तरीके से निबट जाय! बड़े भाई का हिस्सा अलग करना कहीं न कहीं कोई ऐसा संकेत देता महसूस होता है कि बड़े परिवार होने से पूर्व काल में उसका अहम चरम पर रहा हो जिस से अन्य में कोई असुरक्षा का भाव जागा हो ऐसे में उसका बांठा अलग कर दिया गया हो ताकि जो अपने आप को असुरक्षित मानकर चल रहा हो वह अपने हिसाब से जीवन यापन करने को स्वतंत्र हो! पति पत्नी पुत्र पौत्र व उनसे सम्बन्धित व्यक्ति जो किसी निर्णय से कसमसाकर कुछ न कर पाटे हों कह पाते हों ऐसा कुछ रहा होगा! लेकिन एक धारणा यह भी है कि बारह बजणा या ओड़ा लाणा कोई अशुभ संकेत लेकर भी आता है इसलिए कुल श्रेष्ट को अलग हिस्सा दिया जाता है. इस परम्परा पर आज भी वृहद शोध की आवश्यकता है ऐसा मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानवीय आधार को देखते हुए मानना है!
फिर भी मेरे मुंह से निकल ही पडा तो यह ख़ुशी किस बात की दवात कैसी? उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया- सर ये जो पट्टी घर के बीचोबीच बनाई गयी है या गाढ़ी गयी है यह उस अहम अभिमान को समाप्त करने की है जिसे हम बल पूर्वक हासिल करने की सोचते हैं! 12 परिवार जुड़ने के बाद घर के अंदर यह पट्टी उस ठोकर का काम करती है जब आदमी जमीन पर चलने की जगह आसमान में उड़ने लगता है! यह पट्टी ऐसे ही समय के लिए ठेस या ठोकर का काम करके यह अहसास दिलाने के लिए बहुत है कि हमारी जड़ अभी भी वही हैं और वही रहेंगी. विन्रमता, सहनशीलता और पारिवारिक गठजोड़ को जोड़े रखने वाली! आज हम 12 परिवार हैं तो यह बेहद ख़ुशी का मामला बनता है इसीलिए इस जश्न को अपने आबद-मित्रों व आप जैसे मित्रों बुद्धिजीवियों के बीच रखने का अवसर मिला है! परम्परा के अनुसार आज बकरा कटता है हमने भी काटा जो लगभग 60 किलो निकला है! यही इस जनजातीय क्षेत्र की दावत मानी जाती है!
“ओड़ा लाणा” जो हमारी परम्परा है वह 8 परिवार होने के बाद शुरू हो जाती है इसे हमारे यहाँ बुरा मानते हैं कि अब इनके आठ परिवार हो गए तो इनमें से एक का अलग बांठा (बंटवारा) हो जाएगा! उस दिन भी प्रक्रिया यही होती है! लेकिन उस दिन घर में नहीं बल्कि खेत में ओड़ा लगता है! एक बड़े से खेत के बीचों-बीच एक बड़ा सा पत्थर लैंडमार्क के रूप में स्थापित किया जाता है और यह समझा जाता है कि 8 में से एक परिवार जोकि बड़ा है वह अलग हो गया है!
अजब-गजब की इस परम्परा से रूबरू होकर यह नई लोक समाज लोक संस्कृति से जुडी यात्रा भले ही बेहद अनूठी रही लेकिन जौनसार के किसी गाँव में कोई कार्यक्रम हो या लोक संस्कृति से सम्बन्धित त्यौहार हो उसमें ढोल की थाप पर वहां के लोक नृत्य हारुल, झैंता, रासो, घुन्डिया रासो, बाजूबंद, तांदी, जंगू-भाभी, भारत इत्यादि न हों तो बड़ा अलग सा लगता है! 18 परिवारों के इस गाँव में सिर्फ एक परिवार चौहान राजपूत व बाकी डोभाल हैं. दो तीन परिवार ढाकी/बाजगी होंगे ऐसे मेरा अनुमान है! ऐसी यात्राओं का आनंद सचमुच अलग ही आनंद देता है जिसमें वहां के लोक समाज में ब्याप्त परम्पराओं की महक है! अब इन्तजार अगली यात्रा का क्योंकि 28 नवम्बर की अगली सुबह हम दर्शन डोभाल जी के पारिवारिक फोटोज खींचकर सबको दुआ सलाम कर वापस देहरादून लौट आये!