- 10 साल में ही प्रत्येक गांव से 25 से 30 परिवारों ने पूरी तरह छोड़ दिये गांव
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
देहरादून : उत्तराखंड में पलायन एक बड़ी समस्या के रूप में उभरा रहा है। रोज़गार के लिए पलायन की बात समझ में आती है, लेकिन उत्तराखंड के वीरान होते इन गांवों को जिसने एक बार गांव छोड़ा उसने दोबारा गाँव की तरफ वापस लौटने की ओर कदम नहीं बढ़ाए। पलायन की विवशता का अंदाजा जनगणना-2011 की रिपोर्ट से भी लगता है। भूगोल के लिहाज से राज्य के दो बड़े जिलों अल्मोड़ा और पौड़ी में 2001 व 2011 की जनगणना की तुलना में जनसंख्या घटने की दर चौंकाने वाली है। सरकार भी मानती है कि इसका प्रमुख कारण पलायन ही है। लेकिन पलायन रोकने के किये सूबे की सरकारों ने क्या कुछ किया किसी के पास कोई जानकारी नहीं है, हां कुछ संस्थाओं और संगठनों ने पलायन का अखबारी बयानों में हवा खड़ा कर जरुर इस विषय पर अपनी राजनीती चमकाने की कोशिश जरुर की जो सफल नहीं हो पायी, लेकिन वर्तमान सरकार ने पलायन को लेकर सतपाल महाराज के नेतृत्व में संजीदा कोशिश जरुर की है लेकिन उसका भी जब तक परिणाम सामने नहीं आया तब तक कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन महाराज के बयान पर यदि यकीन करें तो उनके पास सैकड़ों सुझाव इस सम्बन्ध में आ चुके हैं। वहीँ विशेषज्ञों का मानना है कि पलायन जैसे विषय और सूबे की आर्थिकी पर अब भी वातानुकूलित कक्षों में बैठकर नहीं, बल्कि पहाड़ पर जाकर ही जानकारी हासिल की जाय कि आखिर पलायन को रोकने के अब क्या उपाय किये जा सकते हैं।
कहने को प्रदेश के अस्तित्व में आने के बाद सूबे के प्रतिव्यक्ति आय भले ही 11 गुना बढ़कर अब 160795 रुपये पहुंच चुकी हो, मगर तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। इन गुजरे 17 सालों में राज्य के पर्वतीय इलाकों से पलायन की रफ्तार में जिस तेजी से बढ़ोत्तरी हुई वह अपने आप में कान खड़े कर देने वाली घटना कही जा सकती है। लखनऊ की एक संस्था गिरि इंस्टीट्यूट आफ डेवलपमेंट स्टडीज (गिड्स), के अध्ययन से पता चलता है कि पिछले 10 सालों में ही उत्तराखंड के प्रत्येक गांव से 25 से 30 परिवारों ने पूरी तरह तरह गांवों से पलायन कर दिया है,और अब वे अपने गांवों की तरफ लौटने को कतई भी तैयार नहीं हैं। सर्वेक्षण में उत्तराखंड राज्य के दो जिलों पौड़ी और अल्मोड़ा में एक दशक में जनसंख्या में दर्ज की गई रिकॉर्ड गिरावट इस बात की पुष्टि करने के लिए काफी है कि इन जिलों के बाद पहाड़ के अन्य जिलों से भी पलायन की गति आज नहीं तो कल जरुर पकड़ेगी। जानकारों के अनुसार जिस गति से पहाड़ों से पलायन की रफ्तार बढ़ रही है, यदि उसे थामने को बेहद गंभीरता से प्रयास नहीं हुए तो भविष्य में दिक्कतें खड़ी हो सकती हैं। जिसका ताज़ा उदाहरण राज्य के पर्वतीय जिलों से विधानसभा की सीटों का घटना प्रमुख है।
जानकारों के अनुसार नौ नवम्बर 2000 से वर्ष 2005 तक राज्य के सुदूर पर्वतीय इलाकों में रहने वाले निवासियों को उम्मीद थी कि राज्य बनने के बाद प्रदेश की दशा और दिशा सुधरेगी लेकिन राज्य की सत्ता में काबिज सरकारें आमजन की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पायी लिहाज़ा इसके बाद से ही पर्वतीय इलकों से पलायन एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरा है। बीते दिन उत्तराखंड सतत पर्वतीय विकास शिखर सम्मेलन में ‘पलायन: मुद्दा और चुनौतियां’ विषय पर हुए पहले सत्र में गिड्स के प्रोफेसर राजेंद्र पी ममगाईं ने गिड्स की अध्ययन रिपोर्ट का हवाला देते हुए बढ़ते पलायन पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि पौड़ी जिले में 370 और अल्मोड़ा में 256 गांव खाली हो चुके हैं। अन्य जिलों का हाल भी लगभग धीरे-धीरे ऐसा ही होने जा रहा है। ममगाईं ने कहा कि पहाड़ में सुविधाओं के विस्तार के साथ ही आजीविका के अवसरों में कमी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं का अभाव ही पलायन का मुख्य कारण है। उन्होंने बताया कि पर्वतीय इलाकों में निवास कर रहे थोड़े से भी आर्थिक रूप से सक्षम लोग बेहतर भविष्य के लिए गांव छोड़ रहे हैं। वर्तमान में अब सिर्फ वे ही लोग ही मजबूरी में गांवों में रह रहे हैं, जिनकी आर्थिकी स्थिति ठीक नहीं है,या फिर वे बुजुर्ग व महिलाएं ही गांव में रह रहे हैं जिनका गांवों के साथ भावनात्मक रिश्ता रहा है, वे अपने गांव में ही अपने प्राण त्यागने का मन बनाये हुए हैं।
उन्होंने कहा कि एक और आश्चर्यजनक आकलन सामने आया है कि पहाड़ से पलायन करने वाले लोगों में से 70 फीसद उत्तराखंड राज्य से अन्य प्रान्तों की तरफ पलायन करने जा रहे हैं, जबकि शेष 30 फीसदी लोग अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार उत्तराखंड के छोटे कस्बों और ठीक-ठाक आर्थिक स्थिति वाले लोग तराई इलाके के नगरीय क्षेत्रों को अपना ठिकाना बना रहे हैं। उनका कहना है कि इस विषय पर अब सरकार व स्वयं सेवी संस्थाओं को अथवा संगठनों को गहन अध्ययन कर स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार स्थानीय लोगों की आजीविका के साधनों का विकास करके ही पलायन की समस्या पर कुछ हद तक काबू पाया जा सकता है। संस्था के एक अन्य अध्ययन के अनुसार उत्तराखंड के सुदूरवर्ती गांवों में विकास के नाम पर जो पूंजी आवंटित हो रही है उसका लाभ उन गांवों तक को नहीं मिल पा रहा। अध्ययन के अनुसार पहाड़ों में छोटे-मोटे काम करने वाले जो भी ठेकेदार सरकार का पैसा गांवों के विकास कार्यों में लगा रहे हैं वे तक अब थोड़ा बहुत संपन्न होने पर तराई के शहरों की ओर पहुँच रहे हैं, अर्थात गांवों से कमाया पैसा गांवों में नहीं लग रहा है और यह पैसा भी शहरों में आ रहा है जिससे पहाड़ के गांवों की आर्थिकी जहाँ की तहां रुक गयी है।
इस सम्मेलन में यह बात भी सामने आई कि पहाड़ की महिलायें आज भी सिर्फ छह घंटे सोती है क्योंकि आर्थक संसाधनों से मजबूत न होने के कारण उसे ही घर के सारे काम करने होते हैं यही कारण है कि राज्य के अस्तित्व में आने के 17 साल बाद आज भी पहाड़ की आर्थिकी की रीढ़ कही जाने वाली महिलाओं की दशा जस की तस है। वहीँ सूबे में गुजरे 17 सालों में खेती का रकबा लगभग एक लाख हेक्टेयर घटा है। गिरि संस्थान के प्रोफेसर ममगाईं के अनुसार खेती बाड़ी जरूर घटी, लेकिन महिलाएं अब मनरेगा के तहत मजदूरी का कार्य कर रही हैं।
उत्तराखंड सतत पर्वतीय विकास शिखर सम्मेलन में विशेषज्ञों ने इस बात पर भी चिंता जताई कि पलायन की मार झेलने के बाद भी अब तक की किसी भी सरकार की ओर से इस ज्वलंत विषय पर कोई शोध कार्य नहीं कराया । पर्वतीय विकास शिखर सम्मेलन में जानकारों ने बताया कि जब समस्या की जड़ का ही पता नहीं होगा तो सरकारें उसका कैसे उपचार करेगी यह समझ से परे है। पर्वतीय विकास शिखर सम्मेलन में इस बात पर भी जोर दिया गया कि जब अब से तीन-चार दशक पहले सूबे के हालात ठीक थे, और अब बिगड़े हैं तो क्या कारण हैं यह भी शोध का विषय हो सकता है।