अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी द्वारा बिजली फ्री,बसों में यात्रा फ्री,रोजगार के नाम पर बिना कुछ किए पांच हजार का रोजगार भत्ता देने जैसी लोक लुभावन चुनावी घोषणाओं पर लगाम लगाने की आवश्यकता है। ऐसे दल सत्ता में आने के बाद अर्थव्यवस्था को गंभीर क्षति पहुंचाते का काम करते हैं।
कमल किशोर डुकलान
देवभूमि मीडिया ब्यूरो। संसद की लोक लेखा समिति के सौ वर्ष पूरे होने के अवसर पर उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने विकास के बजाय मुफ्त में दान देने वाली घोषणाओं पर व्यापक बहस की जो आवश्यकता जताई,उसकी पूर्ति होनी ही चाहिए। इस मुद्दे पर बहस की जरूरत इसलिए बढ़ गई है,क्योंकि राजनीतिक दलों की ओर से लोक लुभावन घोषणाएं करने का सिलसिला बेलगाम होता जा रहा है। समस्या इसलिए और बढ़ गई है,क्योंकि जनकल्याण के नाम पर ऐसी-ऐसी लोक लुभावन घोषणाएं कर दी जाती हैं,जो अंतत: जनहित के लक्ष्य पर ही भारी पड़ती हैं।
एक समय लोक लुभावन घोषणाओं के जरिये लोगों को नाना प्रकार की मुफ्त वस्तुएं देने का जो सिलसिला दिल्ली में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने सुरु किया है,वह अब देश अन्य चुनावी राज्यों में कायम हो रहा है।
दिल्ली की अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की सरकार ने बिजली फ्री,बसों में यात्रा फ्री,रोजगार के नाम पर बिना कुछ किए पांच हजार का रोजगार भत्ता देने जैसी लोक लुभावन राजनीति को अब देश के अन्य चुनावी राज्यों में भी अपना रही है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग से राजनीतिक दलों की ओर से चुनाव के समय की जाने वाली लोक लुभावन घोषणाओं के मामले में दिशानिर्देश जारी करने को कहा है, लेकिन चुनाव आयोग राजनीतिक दलों द्वारा फ्री जैसी लोक लुभावन घोषणाओं पर अब तक कुछ ठोस नहीं हो सका है। परिणाम यह है कि चुनाव आते ही राजनीतिक दल लोक लुभावन घोषणाओं की झड़ी लगा देते हैं।
मुफ्त चावल, गेहूं से लेकर बिजली,पानी के साथ-साथ मोबाइल, लैपटाप आदि मुफ्त में देने की घोषणाएं आम हो गई हैं। अब तो नकदी देने के भी वादे किए जाने लगे हैं। हालांकि इस तरह की घोषणाएं करने वाले दल जनता को पंगू बनाने का काम कर रहे हैं। ऐसे दल सत्ता में आने के बाद अर्थव्यवस्था को गंभीर क्षति भी पहुंचाते हैं, दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार इसका एक उदाहरण है।
यह और कुछ नहीं, एक तरह से जनता से की जाने वाली धोखाधड़ी ही है। इससे भी खराब बात यह है कि इससे अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क होता है और विकास के जरूरी कामों को आगे बढ़ाने में भी समस्या आती है। सरकारें जो व्यय अपनी चुनावी समय में की गई लोक लुभावन घोषणाओं पर खर्च करती हैं वह अन्य योजनाएं नहीं बना पाती है। यदि ऐसे राजनीतिक दलों को आर्थिक नियमों की अनदेखी कर चुनाव लड़ने की सुविधा दी जाती रहेगी तो इससे न तो जनता का भला होने वाला है और न ही देश का।
चुनाव आयोग द्वारा लोक लुभावन घोषणाएं कर चुनाव जीतने की प्रवृत्ति पर लगाम नहीं लगाई जायेगी तो फिर विकास की दीर्घकालिक योजनाओं के लिए कोई स्थान ही नहीं बचेगा। चूंकि अनाप-शनाप वादे कर चुनाव जीतने की प्रवृत्ति लोकतंत्र को भी क्षति पहुंचाती है,इसलिए इस पर रोक लगनी ही चाहिए। इसके लिए चुनाव आयोग को भी सजग होना होगा और खुद राजनीतिक दलों को भी।