हुड़किया कथाओं को गांव मेला और दरबारों में थे सुनाते
कृष्ण कुमार मिश्र
कहानियां गढ़ी नही जाती और न ही लिखी, वे उपजती हैं ह्रदय में नन्हे पौधों की कोपलों की तरह और फिर बन जाती हैं दरख़्त ऊंचाई पर पहुंच कर कहती हैं सबक और फिर दे जाती हैं अपनी बहुत सी कृतियां अपने बीजों से, कहानियां बिखरती चली जाती हैं दुगनी तिगुनी चौगुनी रफ्तार से और ये सिलसिला कायम रहता है मुसलसल इस कायनात के होने तक!
हम कहेंगे कहानियां, जो पिछली सदी में बैगा हुड़किया ने सुनाई थी रेवरेंड ई एस ओकले और तारा दत्त गैरोला को, वे कहानियां जो सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाते आए हैं ये ठेठ चारण, ये चारण हमारी संस्कृति के वाहक थे, हमने ख़त्म कर दिया उन्हें संक्रमित विकास के युग में, और साथ ही ख़त्म हो गई वो कहानियां भी जनमानस के मस्तिष्क पटल से, अब जो बचा है वह हादसे हैं, घटनाएं हैं, जो घटित होती हैं और फिर गायब! कहानियों की तरह समाती नही हैं ज़ेहन में, ये कहानियां लिखी नही जाती थी सुनी और गुनी जाती थी, हादसे और घटनाएं लिखी जाती हैं सुर्खियों के तौर पर, भला सुर्खी कहाँ देर तक टिकने वाली, कहानियां एक मानव ह्रदय से निकल कर पैबस्त हो जाती हैं दूसरे ह्रदय में और इस तरह यात्रा करती हैं ये हमारी कहानियां और बनाती हैं मानव इतिहास!
यक़ीनन ये कहानी ही कहती हैं हमारे बीते हुए कल को, दस्तावेज, आंकड़े, खबरे, सरकारी गजेट बस अंकित करते हैं कागजों में फाइलों में वह ह्रदय में अंकित नही होता, जो ह्रदय में अंकित नही उसका प्रवाह फिर कैसे? फ़िलवक्त जो लिखा जा रहा है जिन्हें कहानी कहते हैं प्रबुद्धजन वह स्वयंसिद्धा है खुद लिखो खुद पढ़ो, बाढ़ सी है सोशल मीडिया, और वेबसाइटों पर साहित्यकारों की, और प्रकाशकों की भी जो वर्ष में एक बार लुटियन की दिल्ली में मेला जैसा लगाते हैं सेल्फियों का दौर चलता है विमोचन होते हैं, पर वह किताबों में या वेबसाइटों में किसने क्या कहानी कही किसी को स्मृति नही रहते बस लाइक कमेंट्स के सिवा! और हां इन लाइक कमेंट्स के पीछे कहानी की ख़ूबी न होकर लेखक-लेखिका के कुछ निजी निर्दिष्ट कारण जरूर होते हैं,
मैं कहना चाहता हूं कि क्यों दशकों से कोई कहानी काबुलीवाला, गिल्लू, दो बीघा जमीन नही बन पाई, क्यों प्रवाह नही जनमानस में इन नवोदित कहानियों का? जबकि हर घर शहर में बिछे हैं तार कम्युनिकेशन के प्रत्येक हाथ मे यंत्र है जुड़ाव का! फिर क्यों प्रवाह नही ? केवल प्रचार तक चीजे क्यों थम जाती हैं आजकल! बताऊँ दरअसल ये कहानियां नही ये हादसे और घटनाएं है जिन्हें कहानी कहकर प्रकाशित व प्रचारित किया जाता है, इनमें न प्रकृति है, न भाव न सबक न इल्म बस खुद की मानसिक विकृतियों का लेखा जोखा, और जिन्हें भाव कहते है ये कथित कहानी वाले वह भाव न होकर कुभाव है, कलुषित और लिप्सा से भरे हुए, कहानी छापने की जरूरत नही होती, और न विमोचन की, और न ही फेसबुक पर चिपकाने की! कहानी ह्रदय से चिपक जाती है, और वह छूटती नही उसका प्रवाह डीएनए के साथ चलता है पीढ़ी दर पीढ़ी, सदियों पहले की कथा राम कथा, कृष्ण कथा, नल-दमयंती, दुष्यंत-मेनका, राजा मोरध्वज, कुछ भी न बदला हूबहू जनमानस में व्याप्त हैं, युग बदल गए पर सदियों पुराने मानव ह्रदय में व्याप्त हैं, मस्तिष्क भले दिग्भ्रमित हो जाए, ह्रदय की छाप डीएनए में अंकित हो जाती है, और विरासत की तरह प्रवाहित होती है पीढ़ी दर पीढ़ी, ये कहानियां नही ये विरासत हैं, ये केवल सौंदर्य बोध नही कराती बल्कि रहस्यों को खोलती हैं, इतिहास से रूबरू कराती हैं, पहाड़ नदी झरने जानवर और इंसानी समाज का पूरा लेखा जोखा रखती हैं, कहानी इंसानी दिमागों के तह उधेड़ती है, और खोलती है दिलों के राज भी!
अखबारों पत्रिकाओं में छपती नव-युग की कथित कहानियों जो घटनाओं का बरक्स भर हैं उनसे इतर हम कहना चाहते हैं सदियों की कहानी परम्परा उन कहानियों के ज़रिए जिसे ब्रिटिश उपनिवेश के दौर में कुछ बुद्धिमान गोरी चमड़ी वालों ने बड़े करीने से संजोया है अपनी अंग्रेजी भाषा में, ब्रिटिश भारत उपनिवेश में जो बुनियादी दस्तावेजीकरण हुआ वह अब नदारद है, गजेटियर के नाम पर अब सिर्फ आंकड़े टँकित व अंकित किए जाते हैं, ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक महान अफसर जिसने मोगली को मध्य भारत मे खोज निकाला ऐसे बहुत से भेड़िया मानव की खोज की उत्तर भारत की तराई में, ठगों के इतिहास से लेकर उत्तर भारत की कहानियों तक को संकलित किया उस महान अंग्रेज का नाम है सर विलियम स्लीमैन, उनके भारत के अन्वेषण व लेखन मुझे हमेशा आकर्षित करता है, 1857 की क्रांति से पहले स्लीमैन इंग्लैंड वापस चले गए, और हमे दे गए हमारी धरोहर का लेखा-जोखा, बहुमूल्य अतीत।
विलियम स्लीमैन ने जो कार्य मध्य भारत व उत्तर भारत की तराई में किया, वैसा ही कार्य विलायती सरकार में एक पादरी ओकले व पहाड़ के वकील व कवि तारा दत्त गैरोला ने किया…उनकी कहानियां पहाड़ के जनजीवन जंगल रहस्य और जानवरों तक का दस्तावेजीकरण करती हैं, हमारे अतीत का यह आईना लिपिबद्ध तो इन दो महान व्यक्तित्वों ने किया, पर ये कहानी सुनाई हमारे प्यारे बैगा हुड़किया ने, ये हुड़किया कथाओं को गांव गांव मेला और दरबारों में सुनाते आए हैं, और देते आए हैं इतिहास से सीखने का सबब…अब हम सब को बैगा हुड़किया बनना होगा अगर यथार्थ की राह पर अपनी नस्लों को चलाने की ख्वाहिश है तो! अन्यथा ये संक्रमण का दौर है अपना कुछ बचा नही जो बचा है वह संक्रमित है, ऐसे दौर में ये कहानियां हमें जोड़ सकती हैं अपनी जड़ों सर, पुरखों से, अपने जंगलों से, अपने पहाड़ और समंदर से….
बहुत जल्द बैगा हुड़किया की कही हुई कहानी का अनुवाद आप सबको सुनाऊँगा तह ए दिल से…
साभार : कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-खीरी
उत्तर प्रदेश
भारत वर्ष
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