सुभाष पांडे और उनकी ढोलक की थाप …

- ढोलक की थाप पिछले तीस दशक से लोगों को करती आ रही मंत्रमुग्ध
वेद विलास उनियाल
उत्तराखंड का लोक संगीत की दुनिया भले ही सुभाष पांडे के लिए बेहद आदर रखती हो लेकिन सच यही है कि सुभाष पांडे समाज में जो आदर मिलना चाहिए था, वो नहीं मिल पाया।ऐसा नहीं कि समाज इतना निष्ठुर था कि अपने इतने गुणी कलाकार को नजरअंदाज करतालेकिन कला जगत का चलन है कि साजिंदे बेचारे पर्दे की ओट में रह जाते हैं। अब तो सांस्कृतिक आयोजनों में उनका नाम भी पुकारा जाने लगा वरना एक समय तो उन्होने साज बजाया और चल दिए। रिकार्ड कैसेट में भी कहीं नाम नहीं।
भारतीय फिल्म संगीत में अगर गुलाम मोहम्मद पाकिजा के संगीत निर्देशक नहीं बनते तो दुनिया नहीं जान पाती कि इस फिल्म की ठुमरी, गजलरुबाइयों में गुलाम मोहम्मद की ढोलक कितनी खूबसूरती से बजी है। अगर प्यारेलालजी स्वयं में इतने बडे संगीत निर्देशक नहीं होते तो संगीत के रसिया नहीं जान पाते कि होके मजबूर उसने मुझे भुलाया होगा जैसे गीत में उनकी वायलेन बजी है, अगर हरी प्रसाद चौरसिया बांसुरी वादन के कंनसर्ट नही कर रहे होते उनके स्वयं की सीडी विडियो नहीं आती तोसंगीत कागहरा अनुराग रखने वाले भी नहीं जान पाते कि एसडी बर्मन के संगीत में कहां कहां उनकी बांसुरी बजी।शायद यही बिडंबना भारतीय लोकसंगीत में भी है कि हम सांस्कृतिक मंच गायक गायिकाओं को और कामेडी करने वालो को , उद्घोषको को तो पर्याप्त चर्चा देता है लेकिन लोग नहीं जान पाते कि जो इन सांस्कृतिक मंचों में या लोकसंगीत को जन तक पहुंचाने में सुभाष पांडे होने का मतलब क्या है।
सुभाष पांडे की ढोलक की थाप पिछले तीन दशक से लोगों को मंत्रमुग्ध करती आ रही है। ऐस साजिंदा जिसका हुनर देश दुनिया के मंचो में जाकर लोगों को प्रभावित करता रहा, लेकिन पहाडी समाज यह नहीं कह पाता कि वाह साजिदों का क्या कमाल था, फिर वहचाहे बांसुरी बजाने वाले हों, या हुडका।चलन के मुताबिक किसी आयोजन की सफलता का सारा श्रेय गायक गायिका को ही मिलता रहा। लेकिन हर आयोजन के पीछेबजते साजउन आयोजनों को संगीतमय बनाते रहे।
सुभाष पांडे उत्तराखंड के विलक्षण कलाकार हैं।तीन दशक पहले उन्होंने जब पहाडी लोकसंगीत को सुन सुन कर ढोलक पर थाप देना शुरू किया तो वह संगीत के प्रति मन का अनुराग था। तब ढोलकव्यवसायिक होकर सांस्कृतिक मंचो में जाएगा, या पहाडी साजिंदे न्यूजीलैंड मस्कट कनाडा भी जाएंगे यह कोई सोच नहीं पाता था। वो गढदेवा का समय था। साल के कुछ सीमित मगर बहुत खूबसूरत आयोजन। अपने पहाड के शुद्ध रंग में रंगे। लेकिन लोकसंगीत और वाद्यों के प्रति गहरा मोह सुभाष पांडे को निरंतर सीखने के हिलौरे देता रहा। ताल वाद्यों की परख , उनकी निपुणता आती गई।वे इस स्तर के साजिदें बने कि लगभग हर गाने वाले नेउन्हें अपने साथ जोडना चाहा।पहाडों का जो लोकसंगीत हम तक आया उसमें न जाने कहां कहां सुभाष के ढोलक की मधुर थाप है। जिन जगमगाते सांस्कृतिक मंचों के गीतो पर नीचे पंडालों में लोग थिरकते रहेउनमें बहुत कम जान पाए कि सुभाष की ढोलक बज रही है।बिना चर्चा में आए लोकसंगीत की ऐसी सेवाविरल है। पहाड के लोगों को ऐसे गुणी कलाकारों के बारे में भरपूर जानना चाहिए। खासकर तब जबकि हम अपने प्रदेश का परिचयगीत संगीत की धारा बहाकर देते रहे हों।
उत्तराखंड में लोक संगीत,फागढोलक के बिना कहां।बेशकनए समय में और खासकर फ्यूजन के दौर मेंअब नए साजों में ढोलक तब भी अपनी प्रांसगिकता बनाए हुए हैं। लेकिन लोकसंगीत की असली खनक और मधुरता उस समय को याद कर आती है जब केशव अनुरागी, गोपाल बाबू गोस्वामीचंद्र सिह राही नरेंद्र सिंह नेगी , वचनी देहीकबोतरी देवी, रेखा धस्माना तमाम पुरानेगाने वालेकेवल हारमोनियम और ढोलक हुडका बासुरी के साथ मंचो पर आते थे। बहुत हुआ तो मोरछंग बज गया। लेकिन वो अहसास अलग था।आज के आधुनिक संगीत में , जबसाजों की की भीड मेंचैत्वाली और फ्यूलाडी के नए डिजायन दिखते हैं तब कहीं हल्की सी ढोलक की थाप सुनाए दे तो एक अलग अपनापन झलकता है। रामलीला के मंचों में राग रागनी चौपाई विहाग बहरे तबील,छंदकी वाणीढोलक और हारमोनियमसे ही मुखरित हुई है।पहाडों में होल्यारों के फाग का आनंदढोलक की थाप के बिना कहां।
सुभाष पांडेऔर उन जैसे साजिदों को हमारा नमन।उत्तराखंड के लोकसंगीत को वो जिस तरह पल्लवित कर रहे हैं उसप्रयास के लिए नमन। दशकों से कितनी मेहनत की होगीइन बांसुरी बजाने वालों ने, ढोलक बजाने वालों ने, हारमोनियम और अब की बोर्ड तबला और ड्रम पैड बजाने वालों ने।