ऑनलाइन माध्यम के शिक्षण से भले ही बच्चों को शिक्षित किया जा सकता हो,लेकिन उनका पूरा शारिरिक,बौद्धिक,आध्यात्मिक एवं मानसिक विकास विद्यालयी परिवेशीय शिक्षण में ही सम्भव है।विद्यालय में जब बच्चे एक-दूसरे से मिलते हैं,तो वे सामाजिक संबंधों का ककहरा सीखते हैं।
कमल किशोर डुकलान
महामारी के बीच हमने सामान्य हालात की ओर एक कदम और बढ़ा दिया है। सोमवार को उत्तराखंड में स्कूल-कॉलेज खुल गए, विद्यालय परिसर में एक बार फिर से पुरानी रौनक लौट आई है। बच्चों को कंधों पर बस्ते लादे स्कूल जाते देखना हमेशा ही सुखद होता है।
उत्तराखंड सरकार ने कक्षा नवीं से कक्षा बारहवीं तक की कक्षाओं की पढ़ाई पिछले ३१जनवरी सोमवार से शुरू हो गई थी।यह अच्छी बात है कि देश के तकरीबन सभी राज्य एक साथ महामारी के दौर में शिक्षा-व्यवस्था को सामान्य बनाने में जुट गए हैं। इस समय जब नए संक्रमितों की दैनिक संख्या और संक्रमण की दर, दोनों नीचे आ रहे हैं,तब केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा इस तरह का फैसला स्वाभाविक ही था।
महामारी के खतरों को देखते हुए स्कूलों को खोला जाए या नहीं,इसे लेकर पिछले दो वर्षों में भारत ही नहीं अपितु पूरी दुनिया में खासी माथा-पच्ची हुई है।अमेरिका जैसे देशों में तो महामारी की पहली लहर के बाद ही स्कूल खोलने की कोशिशें शुरू हो गई थीं। लेकिन तब परिणाम अच्छे नहीं रहे थे। तभी यह खतरा भी समझ में आया था कि कोरोना वायरस भले बच्चों को शिकार नहीं बनाता,लेकिन कुछ बच्चे अगर इस वायरस को लेकर घर पहंुचते हैं,तो वयस्कों और बुजुर्गों को इससे खतरा हो सकता है। इन दो वर्षों में पूरी दुनिया ने स्कूलों की ऑनलाइन शिक्षा की संभावनाएं और सीमाएं भी समझ समझी।
यह भी समझ में आया कि ऑनलाइन माध्यम के शिक्षण से बच्चों को शिक्षित तो किया जा सकता है,लेकिन उनका पूरा शारिरिक,बौद्धिक एवं मानसिक विकास नहीं हो सकता। ऑनलाइन शिक्षा संगी-साथियों का विकल्प नहीं दे सकती। स्कूलों में जब बच्चे एक-दूसरे से मिलते हैं, तो वे सामाजिक संबंधों का ककहरा भी सीखते हैं। इस समय जब बड़ी संख्या में लोगों का वैक्सीनेशन हो चुका है और देश की सभी गतिविधियां सामान्य रूप से चलाई जाने लगी हैं; बाजार खुल गए हैं और यहां तक कि २०२२ के आसन्न अनेक राज्यों में चुनाव भी हो रहे हैं, तब यह अच्छी तरह समझ में आ चुका है कि पूर्ण बंदी से नुकसान भले हो जाए,कोई बहुत बड़ा फायदा भी नहीं मिलता है। ऐसे में,सिर्फ शिक्षण संस्थानों को बंद रखने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है।
पिछले कुछ समय में जिस भी गतिविधि को सामान्य किया गया है, सभी में यह आग्रह रहा है कि पूरी सावधानी बरती जाए। मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग और सैनेटाइजेशन को हर जगह अपनाया जाए। लेकिन सच यह है कि ज्यादातर जगहों पर लोग इसका पालन नहीं करते दिखाई दिए। अगर प्रयास किए जाएं, तो इसकी शुरुआत हमारे स्कूल ज्यादा अच्छी तरह से कर सकते हैं। स्कूलों को महामारी से लड़ने की पाठशाला बनाया जाए,तो इसका असर पूरे समाज पर दिख सकता है। पूरे देश में किशोर वय बच्चों को वैक्सीन भी लगने लगी है। यह काम स्कूलों में उसी तरह से किया जा सकता है,जैसे कभी हैजे और चेचक के मामले में किया जाता रहा है। यह भी जरूरी है कि महामारी की लड़ाई को छोटे बच्चों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। फिलहाल तो इतिहास विषय में भी इनके बारे में नहीं पढ़ाया जाता।