LITERATURE
प्रो. लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’: धारा के विरुद्ध सशक्त प्रवाह


‘‘…ईमानदारी से जीने के लिए आदमी को जीवन – भर छटपटाना, भटकना, नये प्रयासों की शुरुवात और छोड़ना, फिर से नई शुरुवात और छोड़ना अर्थात क्षण – प्रतिक्षण गलतियां करते हुए निरंतर संघर्ष करना बखूबी आना चाहिए। इत्मीनान और चैन तो जीवन में मात्र क्षणिक मानसिक पड़ाव हैं।’’
‘बटरोही’ की इस कहानी में पहाड़ की स्त्रियों का मौन बयान है। परन्तु मुझे इससे ज्यादा यह लगता है कि बटरोही जी अपनी मूक वेदना की अभिव्यक्ति के लिए ‘लछिमा’ को सामने लाये हैं। समाज में परम्पराओं की जड़ें अभिमान और अपमान का पैगाम एक साथ लिए रहती – आती हैं। यही सामाजिक अभिमान और अपमान का द्वन्द्व बटरोही के लेखन का केन्द्र है। बटरोही जी का संघर्ष बाहर से नहीं अपने आप से है। सामाजिक परम्पराओं के प्रचलित पूर्वाग्रह – दुराग्रह आदमी को कितना बेबस – बैचेन करते हैं यह उनके लेखकीय संघर्ष में बखूबी दिखता है।Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur.