घनसाली। पहाड़ों से लुप्त हो रही ढोल-दमाऊ की परंपरा जहां अपनी पहचान खोती नजर आ रही है। वहीं टिहरी गढ़वाल की खासपट्टी के सोहन लाल और उनके भाई सुकारू दास ने इस परंपरा को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया है। सोहनलाल और सुकारु दास की जोड़ी शादी समारोह व अन्य मांगलिक कार्यों में ढोल-दमाऊ से इस विधा का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। जिसके लिए दोनों भाइयों ने मिलकर 9 लोगों की टीम भी तैयार की है, जो शादी समारोह व मंचों पर प्रस्तुतियों के माध्यम से इस कला को आगे बढ़ा रहे हैं। पहाड़ों की पहचान माने जाने वाले गढ़वाली वाद्य यंत्रों को उनकी वास्तविक पहचान के लिए घनसाली के पुजारगांव निवासी सोहनलाल व उनके भाई सुकारु दास ढोल सागर विधा को प्रसारित करने का कार्य कर रहे हैं।
उनके इस कार्य से देश-विदेश से शोध कर रहे छात्र व अन्य लोग उनसे इस हुनर को सीखने पहाड़ का रुख कर रहे हैं। उनकी इस कला से प्रभावित होकर गढ़वाल विवि के संगीत विभाग के प्रो. डीआर पुरोहित ने दोनों भाइयों को कई मंचों पर पहचान दिलाने का कार्य किया। उनकी ढोल विधा के चर्चों से अमेरिका के सिनसिनाटी यूनिवर्सिटी के प्रो. स्टीफन ने सोहन लाल से इस कला की शिक्षा लेने घनसाली पहुंचे।
प्रो. स्टीफन ने सोहन लाल को बतौर विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में अमेरिका ले जाने का प्रयास किया, लेकिन वीजा में कुछ दिक्कत होने के कारण वह अमेरिका नहीं जा सके। सोहन लाल बताते हैं कि इस विधा को पहचान देने के लिए उन्होंने नौ लोगों की टीम बनाई है। जिसमें दो जोड़ी ढोल-दमाऊ, मसकबीन, रणसिंगा शामिल हैं। बकौल सोहन लाल उन्होंने इस कला को अपने पूर्वजों से प्राप्त किया। परिवारिक स्थिति संपन्न होने के बावजूद उन्होंने इस विधा को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। उनका कहना है कि आज की युवा पीढ़ी हीन भावना व शर्म से ग्रसित होकर ढोल बजाने में शर्म महसूस करती है। जिससे पहाड़ी वाद्य यंत्रों को उनका वास्तविक मुकाम नहीं मिल पाता। इसके लिए इस विधा को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।